Apna Khuda Ek Aurat
By Noor Zaheer
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About this ebook
Safia Mehdi's family hopes that she will bring back her deviant husband, Abbas Jafri, to 'God's true faith'. Ironically, Abbas, who dreams of a liberated India where women enjoy equal rights as men, helps Safia break free from the stereotype of a Muslim woman. Abbas is issued a fatwa for confronting the imam and criticizing the shariat for the sorry state of Muslim women in the country. When he is killed by fanatics, Safia is left all alone to fend for her daughter and herself. Armed with sheer belief in the power of being a woman, Safia embarks on a journey to find out if women can become the God that they were always meant to be.
Noor Zaheer
Noor Zaheer has written the Delhi Hindi Academy Award-winning Mere Hisse Ki Roshnai, Surkh Karwan Ke Hamsafar, a travelogue and Bad Urraiyye, a novel.
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Apna Khuda Ek Aurat - Noor Zaheer
अपना ख़ुदा एक औरत
माई गॉड इज़ ए वूमन से लेखिका द्वारा स्वयं अनुदित
नूर ज़हीर
apnakhudaekaurat.jpgहार्परकॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया
अपना ख़ुदा एक औरत
वह एक लम्बी और दुष्कर यात्रा थी। झुलसते थार रेगिस्तान से गंगा के मैदानों की सघन सरस घनी हरियाली तक। सफ़िया पूरी रात सो नहीं पायी थी। भला ग्यारह सेर ज़ेवर, किमख़्वाब और ज़र्बफ़्त पहन कर कोई सो सकता है? हर स्टेशन पर लोग, फूलों-झालरों से सजे, पहली श्रेणी के डिब्बे पर कुतूहली नज़रों से देखते। सफ़िया मोतियाँ लुटाने वाली क़िस्मत की मानी गयी थी। उसकी शादी ऐसे ख़ानदान में तय हुई जिसमें दो अदद ‘सर’ की उपाधियाँ, पाँच ख़ानबहादुर और नौ बैरिस्टर मौजूद थे। उसका शौहर भी बैरिस्टर था और उसके ससुर अवध हाई कोर्ट के जज। कुछ पहले ही उन्हें अंग्रेज़ सरकार ने ‘सर’ की उपाधि से नवाज़ा था। इस रिश्ते पर बहुतों को हैरानी हुई थी, क्योंकि उसके पिता तो एक मामूली-से स्कूल इन्स्पेक्टर थे। इस पैग़ाम से पैदा हुआ उत्साह और ख़ुशी ऐसी संक्रामक थी कि सफ़िया, जिसे ग़मगीन होना चाहिए था, हँसहँस कर अपने देहाती मुसलमान रिश्तेदारों का उच्चारण सही करती घूम रही थी - बलिश्टर नहीं बै - रिस - टर!
नौ बरस की उम्र से उसे पर्दे में बिठा दिया गया था, जब उसने बच्चों की पत्रिका ‘‘ग़ुंचा’’ के लिए एक कहानी लिखी थी। एडिटर ने कहानी भी छापी थी और उसे शाबाशी का एक पत्र भी लिखा। इतना काफ़ी था उसके दादा के लिए, उसे पर्दे में क़ैद करने के लिए, क्योंकि उसके पास ग़ैर मर्दों के ख़त आने लगे थे।
सत्रह बरस की छोटी-सी ज़िन्दगी में यह उसकी दूसरी रेल-यात्रा थी। पहली बार वह उस दुनिया की थरथराहट का मज़ा उठा रही थी, जो उसके लिए अनजानी थी। अमीरों की दुनिया। उसने नज़र चुरा कर अपने शौहर को देखा। उसकी एक किताब छप चुकी थी, जो काफ़ी विवादास्पद हुई थी। शरीफ़ मुसलमान घरानों में उसका ज़िक्र तक मना था। सफ़िया को उसके बारे में अचानक ही पता चला था।
०
सफ़िया के पिता, सैयद मुर्तुज़ा मेहदी, उसकी शादी के पैग़ाम की चर्चा अपने अज़ीज़ दोस्त मि़र्जा अशफ़ाक़ बर्नी से कर रहे थे। मि़र्जा साहब को घर का सदस्य माना जाता था और सफ़िया को इजाज़त थी कि उनके लिए चाय ले कर ख़ुद आये। भरी हुई ट्रे ले कर सफ़िया आ ही रही थी कि अब्बास जाफ़री के नाम पर उनकी चीख़ सुन कर पर्दे की आड़ में हो गयी।
‘‘आप हमारी बेटी को अब्बास जाफ़री से ब्याहने की सोच रहे हैं? उस बेदीन काफ़िर को? जिसने ‘आतिशबाज़ी’ लिखी है। क्या आपको मालूम नहीं, इज़्ज़तदार मुसलमान घरों में उस किताब के ज़िक्र पर भी पाबन्दी है। दार-उल-उलूम, सरकार से अपील कर रहे हैं कि उस पर पाबन्दी लगायी जाये।’’ सफ़िया पूरी ताक़त से ट्रे को भींचे थी; ज़रा-सी खनक भी न होने पाये, साँस रोके, अपने पिता के जवाब के इन्तज़ार में, जो आने में बड़ी देर लगा रहा था।
‘‘आप मेरी सफ़िया को नहीं जानते। वह समझदार और सयानी तो है ही, लेकिन उससे भी बढ़ कर उसकी दीनी तालीम मुकम्मल है। वह उसे अल्लाह के सच्चे दीन की तरफ़ लौटा लायेगी।’’ सफ़िया की आँखें अपने पिता के भरोसे पर नम हो गयीं, ‘‘आख़िर कलाम पाक भी तो यही कहता है कि हर अच्छे मुसलमान का यह फ़र्ज़ है कि वह भटकी हुई आत्मा को, मुस्त़िकल ईमान यानी इस्लाम की ओर वापस ले कर आये। मुझे यक़ीन है हमारी बेटी ऐसा ही करेगी।’’
तर्क मज़बूत था, कलाम पाक का हवाला दे रहा था और इस्लामी फ़र्ज़ की याद दिला रहा था। मि़र्जा साहब चुप हो गये। सफ़िया ने साँस ली और बाहर आयी। ट्रे रख कर उसने झुक कर मि़र्जा साहब को सलाम किया, चाय उँडेल कर, उनकी प्याली में चार चम्मच शक्कर डाली। उनकी दुआएँ समेटती अपने अब्बा का इशारा पा कर वह जा ही रही थी कि उसने मि़र्जा साहब को कहते सुना, ‘‘फिर भी, मेहर के लिए बड़ी रक़म तय करना ठीक रहेगा, मानिए पचास हज़ार अशरफ़ियाँ। न जाने कल को क्या हो?’’
सैयद मुर्तुज़ा हुसैन ने यह तजवीज़ ज़रूर मान ली होगी। जब दूल्हे के घर के लोग शादी की सारी बातें तय करने आये और उनसे मेहर की रक़म पूछी गयी तो उन्होंने वही रक़म बतायी। इस्लामिया कॉलेज के मेहमानख़ाने में, जहाँ मेहमान ठहराये गये थे, क़हर बरपा हो गया। शब्दों में कहे बग़ैर, लड़के के बड़े भाई ने यह जता दिया कि वे अपनी औक़ात से ज़्यादा की माँग रख रहे हैं। दबने वालों में से तो थे नहीं सैयद मेहदी, उठते हुए बोले कि लड़के वाले सोचने-विचारने को चाहें तो वक़्त ले लें, लेकिन उनकी तरफ़ से कोई मोल-भाव नहीं होगा।
‘‘तशरीफ़ रखिए, सैयद साहब। हमारे जैसे ख़ानदानों के बेटे अपनी बीवियों को तलाक़ नहीं दिया करते। औरत की इज़्ज़त और एहतराम किया जाता है हमारे कुनबों में। फिर भी, जब आपने हम पर शक किया है तो हमारी आन इसी में है कि आपके शुब्हे को दूर कर दें। आपकी बतायी मेहर की रक़म हम क़ुबूल करते हैं, जो निकाहनामे में दर्ज रहेगी और तलाक़ के वक़्त अदा की जायेगी।’’ उस ठण्डी, खनखनाती आवाज़ ने मेहदी साहब की रीढ़ में एक ब़र्फीली लहर दौड़ा दी।
‘‘हमारी अम्मी, लेडी ज़ीनत बेगम,’’ दूल्हे के बड़े भाई साहब ने कहा। सैयद साहब ने हरे साटन के पर्दे को सलाम किया, ‘‘माफ़ी चाहता हूँ। मुझे मालूम नहीं था आप भी लखनऊ से तशरीफ़ लायी हैं।’’
‘‘आपने यह कैसे सोचा कि इतने अहम फ़ैसले हम लौंडे-लपाड़ों के हाथ छोड़ देंगे।’’ आवाज़ में सोचा-समझा तंज़ था और जिन्हें वह लौंडा कह रही थी, पैंतीस पार किये हुए हज़रत थे। मेहदी साहब की रीढ़ की हड्डी जमने लगी और उन्होंने पहली बार रुक कर सोचा कि क्या वे अपनी इकलौती बेटी को इस ख़ानदान में दे कर ठीक कर रहे हैं। ज़ाफ़रान और इलायची की ख़ुशबू उन्हें ख़यालों से वर्तमान में लौटा लायी। तीन हीरे और एक अक़ीक़ की चार अँगूठियों वाला ख़ूबसूरत हाथ उनकी नाक के नीचे नफ़ीस क़लाकन्द की तश्तरी घुमा रहा था।
‘‘अब अगर आपके सारे शक दूर हो गये हों तो मुँह मीठा कीजिए।’’
घटनाओं की रफ़्तार से सैयद मेहदी भौंचक्के रह गये। लड़के के धार्मिक झुकावों के बारे में सारे सवाल उनके ज़ेहन से उड़ गये। घबरा कर उन्होंने एक डली मिठाई मुँह में रखते हुए, दुआएँ, माफ़ी और शुक्रिया एक ही साँस में कह डाला।
०
रेलगाड़ी घड़घड़ाती हुई सण्डीला स्टेशन में दाख़िल हुई। सफ़िया ने छह इंच की चम्पा किरन की किनारी वाला दुपट्टा खिसका कर बाहर झाँका। स्कूल इन्स्पेक्शन पर अक्सर उसके अब्बा सण्डीला आया करते थे और इस क़स्बाई शहर के मशहूर लड्डुओं की मिट्टी की हँडियाँ ले जाया करते थे। लाल कपड़े से ढँकी हँडियाँ जिनकी सोंधी महक और केवड़े से रचे-बसे लड्डू मुँह में घुल जाते थे। अल्लाह! कितनी भूखी थी वह! रात तो दहशत के मारे अपने मामुओं की तरफ़ से भेजा सफ़र का खाना वह खा ही नहीं पायी थी। खा लेती तो ठीक ही होता, क्योंकि उसके पति ने तो उसे हाथ भी नहीं लगाया था। हाथ तो दूर उसने तो उससे बात तक नहीं की थी।
सफ़िया ने उसे उठते हुए देखा और अचानक अच्छा-ख़ासा बड़ा फ़स्र्ट क्लास का कूपे छह गुना छह की घुटन-भरी कोठरी हो गया। ऊँचा, लम्बा, खौफ़नाक और ख़ामोश। कलेजा मुँह में लिये हुए, उसने उसे प्लेटफ़ार्म पर उतरते देखा। ट्रेन चल देने और उसके नीचे छूट जाने के दृश्य उसके दिमाग़ में दौड़ने लगे। क्या होगा उसका अंजाम? वह अकेली रह जायेगी, असग़री मैमन की ‘‘खोयी दुल्हन’’ की नायिका की तरह।
ट्रेन की तेज़ सीटी से सफ़िया ऐसा चौंकी कि चीख़ पड़ी। उसका पति दो कप चाय, सुबह का अख़बार और एक हँडिया लड्डू सँभालता अन्दर आया, ‘‘चिल्लायी क्यों? वैसे भी इतनी कमज़ोर-सी आवाज़ से कोई फ़ायदा नहीं होने वाला। अगर ध्यान अपनी तरफ़ खींचना हो तो ऐसे चीख़ना चाहिए - आ ऽ ऽ ऽ ऽ!’’ सफ़िया उछल पड़ी। ‘‘खाओ। आधे घण्टे में लखनऊ आ जायेगा और तुम्हें फिर शर्मीली दुल्हन बनना पड़ेगा। यह सब बहुत भारी नहीं है?’’ उसने सफ़िया के गहनों, कपड़ों की तरफ़ इशारा किया।
‘‘है। ग्यारह सेर!’’ वह बुदबुदायी। वह कहते-कहते रुक गयी कि आधा सेर कम पड़ गया था और औरतों के जमघट में उधम मच गया था। ख़ैरियत से उसी वक़्त उसकी फूफी ने आ कर सही वज़न की झाँझर उसकी नज़र की। हर ज़ेवर-कपड़ा वज़न करके, दुल्हन को सजाने को बुलायी गयीं ग्यारह सुहागनों में से एक को दिया जाता, और हिसाब में तेज़ एक महिला वज़न लिखती जाती और जोड़ती चलती। यह जोड़-घटाव शादी से एक दिन पहले भी किया जा सकता था, लेकिन फिर उस चीख़-पुकार, हबड़ा-दबड़ी, शिकवे-शिकायतें और भौंडे भद्दे मज़ाक़ों का क्या होता जो हिन्दुस्तानी शादी का अभिन्न अंग हैं।
सफ़िया के मामूजान ने, जो काफ़ी रईस ज़मींदार थे, अपनी सबसे चहेती भांजी के ब्याह के लिए ख़ास स्विट्ज़रलैंड से अलार्म घड़ी मँगवायी। यह घड़ी सबकी हैरानगी और तवज्जो का निशाना थी। लिहाज़ा जब वह ग़ायब हो गयी तो क़हर ही बरपा हो गया। सफ़िया की माँ फ़ौरन ज़मीन पर फसकड़ा मार कर बैठ गयीं और लगी दहाड़ने। इस तरह के हालात में वह सबसे अच्छा यही कर पाती थीं। फिर जो ढुँढइया मची, करीने से लगे दहेज़ के बक्से उलटे गये, फ़र्श पर बिछी चाँदनी, मसनद, क़ालीन तक लपेटी गयी। लेकिन सब बेकार। रोने की दहाड़ और बुलन्द होने लगी, जैसे-जैसे उसमें और स्वर योगदान करते गये। अचानक पंचम स्वर में चीख़ते गले ख़ामोश हो गये और हर नज़र घूमा कर, दूर की एक चची पर जा टिकी जिनके पाजामे के अन्दर से अलार्म की तेज़ घण्टी सुनाई दे रही थी। वह भी रोने में शरीक थी और जल्दी से उसे हँसी में बदलते हुए बोली, ‘‘ऐ लो भला, गे हियाँ कैसे आन पड़ी, मेरे पाजामे में को! बैठ गयी हूँगी मै विस पे।’’
घटना याद करके सफ़िया मुस्करा दी।
‘‘अब ठीक है। मैं तो सोचने लगा था कि तुम बेदिमाग़वालियों में से हो,’’ मुस्कराने से अब्बास का दृढ़, शान्त चेहरा बदल गया।
सफ़िया ऐसे चौंकी जैसे किसी ने उसे मारा हो। वह और घुन्नी? जो ख़ानदान भर में ‘चुटकुलों की पिटारी’ कहलाया करती थी। ‘‘क्या मतलब? मैंने सेकण्ड डिवीजन में मैट्रिक किया है। क्या कोई बेदिमाग़ यहाँ तक पहुँच सकती है?’’
‘‘ख़ुदाया! मैट्रिक के साथ जीवट भी। क्या कहने हैं!’’ वह उस पर हँस रहा था। सफ़िया हैरान, उसकी हलकी भूरी आँखों से निकलती सब्ज़ किरनों को देखती रही। मुस्कराहट के हँसी बनने में आँखें भींग गयीं, ‘‘खाओ ना। तुमने रात खाना भी नहीं खाया।’’
तो उसने ग़ौर किया था। चार लड्डू एक के बाद एक निगलते हुए, सफ़िया उसे शुक्रगुज़ार नज़रों से देखती रही।
बेचारी लड़की। अब्बास को अभी तक अपनी बड़ी बहन और बहनोई पर ग़ुस्सा आ रहा था जो पहली रात के मज़े पर फ़िकरे कसते हुए उन दोनों को अकेला छोड़ गये थे। अच्छा हो जो इस लड़की के पल्ले उनके भौंडे मज़ाक़ न पड़े हों। क्या सोच रहे थे वे? . . . कि वह ट्रेन में अपने से बारह साल छोटी लड़की के साथ . . . लानत है! उसने सुबह का अख़बार खोला। उसके ‘ओह गॉड!’ के उद्गार के साथ ही सफ़िया की, ‘हाय अल्लाह’ की चीख़ भी गूँजी। अब्बास ने नज़र उठायी और सफ़िया को अख़बार की सु़िर्खयों पर नज़र जमाये पाया, ‘‘अली ब्रदर्स अण्डर हाउस अरेस्ट,’’ स्याह अक्षर दमक रहे थे।
तो तुम अली बिरादरान और ख़िलाफ़त मूवमेंट के बारे में जानती हो?’’ सफ़िया का दिल ठहर गया! उसे आज़ादी के बारे में बात नहीं करनी चाहिए थी। आख़िर वह इंगलिस्तान से पढ़ कर लौटा था और वैसे भी ‘हमें सब मालूम है’ जैसी बीवी कौन चाहता है?
‘‘नहीं, बस अली बिरादरैन के बारे में सुना है,’’ उसने हक़लाते हुए कहा।
‘‘तो जल्दी ही और भी जान लो। आज़ादी की तहरीकों के बारे में सिर्फ़ सुनना भर काफ़ी नहीं है। वे हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा हैं। ऐसे घबरा क्यों रही हो? जानने की सज़ा नहीं है, जहालत बेशक जुर्म है।’’ फिर जैसे अचानक खयाल आया, ‘‘तुम अंग्रेज़ी पढ़ती हो?’’
‘‘मैं मैट्रिक हूँ . . .’’
‘‘सेकण्ड डिवीजन में। भला भूल कैसे गये हम. . .’’ उसका चेहरा देख कर वह खिलखिला पड़ा और वह उसे हँसा पाने की ख़ुशी में साथ हँसने लगी।
‘‘हमारी एक साथ पहली हँसी,’’ वह धीरे से बोला, ‘‘देखो, यहाँ से चारबाग़ स्टेशन की बुर्जियाँ, कँगूरे नज़र आते हैं। शतरंज की बिसात की तरह उन्हें बनाया गया है, बाईस लाख की लागत पर छह साल में बनाया गया। चालीस एकड़ में फैला है।’’ उसकी आवाज़ में फ़ख़्र था, लखनऊ के लिए, उसकी ज़िन्दा संस्कृति, संगीतमय गलियों, शाहाना इमारतों और हिन्दू-शिया मिली-जुली तहज़ीब के लिए। लखनऊ जो आज से सफ़िया का घर होने वाला था।
एक हाई कोर्ट जज की पुत्रवधू का स्वागत भी शानदार होना चाहिए। जैसे ही ट्रेन स्टेशन के अन्दर रेंगती हुई दाख़िल हुई, वर्दी पहने बैण्ड ने ‘‘हियर कम्ज़ द ब्राइड’’ की धुन बजानी शुरू की। डण्डों, बल्लियों और तख़्तों को जोड़ कर, परिवार की सबसे बड़ी डॉज गाड़ी डिब्बे के दरवाज़े तक लायी गयी थी। तीन लाल चादरों के महफ़ूज़ पर्दे में सफ़िया को उसकी पिछली सीट में पहुँचाया गया। वह अपने वजूद के अलावा ग्यारह सेर गहने समेट रही थी कि उसके कानों ने धीमी आवाज़ में चल रही बहस सुनी।
‘‘तुम ऐसा कैसे कर सकते हो? यहाँ रुक जाओगे और वह बेचारी अकेली . . . क्या बेहूदगी है?’’ बड़ी ननद साजिदा की आवाज़ थी जो अब्बास से दस साल बड़ी और ख़ानदान में नम्बर दो का रुतबा रखती थीं।
अब्बास का जवाब आहिस्ता मगर दृढ़ था, ‘‘इतने लोग हमारी अगवानी करने आये हैं। शुक्रिया कहे बग़ैर जाना क्या तमीज़दारी है? सफ़िया से मैं बात कर लेता हूँ। सफ़िया, मुझे अपने सब दोस्तों से मिलना होगा जो हमें लेने आये हैं। क्या तुम आगे जाना पसन्द करोगी या यहाँ रुकोगी?’’
‘‘रुकेंगे,’’ वह लाल सुनहरे आँचल के पीछे से बोली।
घण्टे भर बाद अब्बास, ‘‘सफ़दर मंज़िल पर मिलते हैं,’’ की आवाज़ों के बीच लौटा।
‘‘इतना काफ़ी नहीं था, जो सबको घर भी बुला लिया . . .’’ साजिदा बड़बड़ायी।
गाड़ी स्टेशन के भीड़-भाड़ वाले इलाक़े को छोड़ कर शहर में दौड़ने लगी। सफ़िया का जी लखनऊ की एक नज़र जाने को मचलने लगा, मगर शीशे भारी मख़मली पर्दों से ढँके थे और सफ़िया अपनी कल्पना से आवाज़ों और उनकी जगह का ताना-बाना बुनती रही ज़ोर का हॉर्न दे कर गाड़ी मुड़ी और उसके पहियों तले बजरी कुचलने लगी।
‘‘हम सफ़दर मंज़िल के बाहरी फाटक में दाख़िल हुए हैं। यहाँ से इमारत तक, आधे मील का फ़ासला है,’’ साजिदा गर्व से उसके क्षेत्रफल, उसको बनाने में लगे वक़्त, बाग़ों की देख-रेख पर ख़र्च हुए पैसे, फ़व्वारों की नक़्क़ाशी और पास बहती गोमती से सीलन को रोकने के लिए बनायी गयी इमारत की पाँच फ़ुट ऊँची कुर्सी का बखान कर रही थीं। वे सफ़िया को घबरा देने में कामयाब हो रही थीं।
‘‘तुम सँभाल लोगी,’’ अब्बास ने उसके कान में कहा।
गाड़ी रुकते ही, अब्बास ने सँभल कर ख़ुद को खोलते हुए अपना छह फ़ुट दो इंच का क़द सीधा किया। ताशे की आवाज़ के साथ कई औरतें, हाथों में चादरें लिये आयी और गाड़ी से ले कर सदर दरवाज़े तक, पर्दे की गलीसी बना कर खड़ी हो गयीं।
‘‘इसकी ज़रूरत नहीं है बूबू।’’
ज़ीनत बेगम जो नयी बहू का स्वागत करने बढ़ रही थीं, डंक खाये जीव की तरह पलटीं, ‘‘क्या कहा तुमने अब्बास?’’
‘‘मैंने कहा हमें इस पर्दे की ज़रूरत नहीं है।’’
‘‘लेकिन मैंने सोचा कि बु़र्का पहनना तो और भी मुश्किल होगा।’’
‘‘उसकी भी ज़रूरत नहीं है।’’
ज़ीनत बेगम तन कर खड़ी हो गयी, ‘‘क्या मतलब?’’
‘‘मतलब यह कि सफ़िया आज से पर्दा छोड़ रही है।’’
‘‘बेशर्म लड़के, किसी नचनिया की तरह अपनी मिल्कियत की नुमाइश करना चाहते हो,’’ ज़ीनत बेगम को ग़ुस्सा आने लगा था।
‘‘सफ़िया मेरी मिल्कियत नहीं है। वह मेरी शरीके-हयात है और उसे ऐसा ही बरताव करना होगा।’’
सफ़िया जल्दी-जल्दी ‘सूरा-ए-यासीन’ पढ़ रही थी। ख़ौफ़ पर क़ाबू पाने के लिए उसे ऐसा करना सिखाया गया था और अल्लाह वह डर रही थी! ये अमीर, ख़ानदानी माँ-बेटे, जितना इनकी बहस गरमाती उतना ही इनका स्वर ब़र्फीला होता जाता। ज़ीनत बेगम मुस्करायीं, ‘‘तुम्हारी बीवी की परवरिश बेहतरीन सैयद मुस्लिम रवायत में हुई है। वह कभी अपना धर्म, अपना ईमान छोड़ने को राज़ी नहीं होगी।’’
‘‘मैंने हमेशा यह माना है कि आज़ादी हर फ़र्द का अधिकार है। चुनने का हक़ और ज़रा-सा सहारा मिले तो कोई औरत बु़र्का नहीं पहनना चाहेगी।’’
‘‘पूछो उससे। पूछो कि वह तुम्हारे लिए अपनी शर्म अपनी इज़्ज़त छोड़ेगी!’’ ज़ीनत बेगम की आवाज़ में धार्मिक आत्म-सन्तुष्टि का अहंकार था।
‘‘ठीक। सफ़िया सुनो, यह दुनिया तुम्हारी है। इसकी पहचान के बग़ैर तुम इसमें कैसे रह पाओगी? आओ, तुम औरत हो और यह कोई लज्जा की बात नहीं है।’’ उसके चेहरे पर घमण्ड या अभिमान का एक ज़र्रा भी नहीं था। ईमानदारी और अपने यक़ीन पर शान्त विश्वास उन भूरी आँखों से झाँक रहा था। वह पल था नकार देने का, उस सब को जो बाक़ायदगी से उसके भीतर बिठाया गया था। वह पल था शर्म का, शर्म जिसे सदियों से मर्दों ने औरतों के लिए परिभाषित किया है। वह पल था फ़ैसले का, कि गुज़रे हुए कल के साथ रहे या बढ़ कर आने वाले कल को थाम ले। चौदह गज़ का कलीदार ग़रारा सँभालती, ढेरों किमख़्वाब और रेशम के बावजूद, ख़ुद को उघड़ा हुआ-सा महसूस करती सफ़िया गाड़ी से उतरी।
सिर झुकाये वह संगमरमर की सीढ़ियों पर चढ़ ही रही थी कि अचानक सहम कर रुकी और गिर ही जाती जो अब्बास उसकी कोहनी न पकड़ लेता।
‘‘डरो मत, एक कमल ही तो है,’’ हँसते हुए ऊँचे लम्बे, खिचड़ी बालों वाले शख़्स ने कहा, ‘‘यह नीलकमल है। इसका वतन चीन है मगर इसे, हमारे सिकन्दर बाग़ बोटैनिकल गार्डन में कामयाबी से उगाया गया है। हमारे बेटे से वह रिश्ता रखना जो एक कमल का झिलमिलाती झील से होता है।’’ वह पल था सर जस्टिस सफ़दर अली जाफ़री के साथ ज़िन्दगी भर चलने वाली दोस्ती का।
यही पल था, जिससे ज़ीनत बेगम के साथ चलने वाली जीवन भर की ठण्डी जंग की शुरुआत हुई।
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‘‘सफ़िया ज़रा नीचे जा कर पता कर सकती हो कि शाम की चाय का क्या हुआ?’’ अब्बास मार्क्सवादी पार्टी के नये मुखपत्र की डमी में उलझा था। सफ़िया मुस्करायी। उसे अभी तक लखनऊ की तहज़ीब वाली नज़ाकत की आदत नहीं पड़ी थी। शुरू में तो उसे लगा था कि हर बात में ‘‘शुक्रिया’’ ‘‘ज़हमत करके’’ कहना ऊपरी दिखावा है। फिर उसने देखा कि लखनऊ में सभी ऐसी औपचारिकता बरतते हैं जो व्यंग्य-सी मालूम होती है। दोस्ती बढ़ने के साथ औपचारिकता तो ख़त्म हो जाती, मगर तहज़ीब अकबर अली मोहम्मद अली के इत्रों की भीनी ख़ुशबू की तरह बाक़ी रहती। भला वह लखनवी क्या जिसमें दोनों मौजूद न हों।
पिछले छह दिन से अब्बास ख़ुद को कमरे में बन्द किये, उर्दू साप्ताहिक ‘कौमी मोर्चा’ के पहले अंक में जाने वाले लेखों, निबन्धों के प्रूफ़ों से जूझ रहा था। इन छह दिनों ने सफ़िया के सामने छपाई की जादुई दुनिया के दरवाज़े खोल दिये थे। उसने प्रूफ़ पढ़ने में निपुणता दिखायी थी और अब्बास ने प्रूफ़ का सारा काम उसके हवाले कर दिया। वह पढ़ती जाती और मुद्दों पर बहस भी करती। महात्मा गाँधी के भारत छोड़ो आन्दोलन और उनके सरकारी नौकरी त्यागने के आह्वान पर बहस करते हुए अब्बास ने देखा कि वह आँसुओं और तुनुकमिज़ाजी की बजाय तर्क और दलीलों से बहस करती है। इंगलैंड के सात बरसों में उसने अंग्रेज़ औरत के अपने जज़्बात पर क़ाबू रखने की क़ाबिलियत की इज़्ज़त करना सीखा था। उसने समझा था कि इसके पीछे कड़ी मेहनत और अनुशासन था। इसका मतलब भावनाओं का न होना नहीं, बल्कि भावनाओं पर नियन्त्रण था और यह अटल विश्वास कि अपने जज़्बात का भौंडा दिखावा न सिर्फ़ ख़ुद पर नियन्त्रण की कमी दिखाता है, यह विपक्ष को, जो ज़्यादातर पुरुष होता है, हावी हो जाने का मौक़ा प्रदान करता है। जब वह मुक़ाबला करता कि उसके जैसे घरों की औरतों ने आँसुओं और तक़रार से जो हासिल किया था उसका मुक़ाबला जब वह उस सब से करता जो पश्चिमी देशों की औरतों ने अपने जीवट से हासिल किया था तो अजीब तरह की शर्मिन्दगी महसूस होती। जैसे कहीं-न-कहीं वह ख़ुद इसके लिए ज़िम्मेदार हो। अगर वह ख़ुद को समाज का एक हिस्सा मानता है तो हालात की कुछ ज़िम्मेदारी तो उसकी भी थी। आख़िर मर्दों ने ही औरत को मजबूर किया है कि वे ख़ुद को नगण्य समझें। मर्द हमेशा तर्क का जवाब गहनों से, सवालों का जवाब क़ीमती कपड़ों से और दिमाग़ी विकास के लिए थोड़ी सी जगह के वास्ते रसोई और झौआ भर बच्चों से देते आये थे। उसने सफ़िया की आँखों को लाइब्रेरी की किताबों की तरफ़ तरसते हुए देखा था। जब उसने कहा कि वह कोई भी किताब पढ़ सकती है तो उसके चेहरे पर झलक आने वाली दमक पर उसने दिल-ही-दिल समाज को कितना कोसा था। ऑक्सफ़ोर्ड की कोई लड़की तो कोई किताब पढ़ने से पहले इजाज़त लेने के बारे में सोच भी नहीं सकती। क्या मिलता है समाज में जान-बूझ कर अपनी आधी आबादी को अल्पबुद्धि के जीव बना कर, जिनकी सोच निजी सुख-आराम से आगे नहीं बढ़ती, जो ख़ुशी को दस्तरख़ान पर परोसे पकवानों से नापती हैं, बेटों की गिनती पर फ़ख़्र करती हैं और मिल्कियत को सिर्फ़ पलँग के नीचे गड़े सोने से मापती हैं, दिमाग़ी कसरत के नाम पर जिनके पास अपनी ही तरह की लाचार औरतों को फाँसने के जाल होते हैं और उन्हें परेशानी में देख जिनकी छातियाँ जीत के उत्साह से फूल जाती हैं। ऐंग्लो इण्डियन लड़कों में खेले जाने वाले ‘‘पास इट ऑन विदाउट रिटर्न’’ के खेल की तरह।
दो साल ऑक्सफ़ोर्ड की तैयारी में अब्बास ने अंग्रेज़ी स्कूल में बिताये थे जहाँ ऐंग्लो इण्डियन लड़के बहुत थे। ख़ालिस भारतीय मिलीजुली नस्ल के इन लड़कों को उपेक्षा से देखते, मगर उनके गठीले शरीरों, खुलेपन और भविष्य को ले कर लापरवाही की भीतर से सराहना भी करते। ऐंग्लो इण्डियन लड़के, जो रेलवे में महफ़ूज़ नौकरी हासिल करने को ले कर मुतमईन थे, और उसके आगे कुछ नहीं, इन शुद्ध हिन्दुस्तानियों से, जो विदेशी विश्वविद्यालयों में पहुँच कर इण्डियन सिविल सर्वेंट हो सकते थे, नफ़रत करते थे। यह खेल उस नफ़रत को व्यक्त करने का एक तरीक़ा था। एक ऐंग्लो इण्डियन, खालिस हिन्दुस्तानी को ज़ोर की धौल जमाते हुए चीख़ता, ‘‘पास इट ऑन विदाउट रिटर्न।’’ उनकी मज़बूत एकता के डर से, खालिस हिन्दुस्तानी उनका आदेश न मानने की हिम्मत न करते और एक-दूसरे को थपड़ियाते और ऐसा दिखाते जैसे उन्हें मज़ा आ रहा हो।
भारतीय औरत की भी ऐसी ही स्थिति है। अपमान, उत्पीड़न, अत्याचार उस पर लादा जाता है। ख़ामोशी से, अपने अत्याचारियों से सवाल किये बग़ैर, वह सहती है, हर दुख को ध्यान से सँभाल कर, सूची पत्र में दर्ज करती, इन्तज़ार करती है उस समय का जब ख़ानदानी विरासत की तरह इन्हें अगली पीढ़ी को सौंपा जा सके। हर पीढ़ी अगली वाली को तड़पाती है जो इन्तज़ार करती है उस ख़ुशी का जो वह अगली पीढ़ी को दुखी करके पायेगी। सदियों से यह निज़ाम बड़े आराम से चल रहा है।
अब्बास ने सफ़िया की तरफ़ देखा जो चौड़े माथे पर बल दिये एक गेली देख रही थी। वह ज़ोर से नहीं पढ़ रही थी, जिसका मतलब था कि जो वह पढ़ रही है, उसकी समझ में नहीं आ रहा है। वरना सफ़िया का पढ़ना कुरआन के पाठ जैसा होता है जिसकी मुसलसल गुनगुनाहट के बीच अचानक स्वर का ऊँचा होना ही मौलवी साहब के जगे रहने का एकमात्र तरीक़ा होता है। क्या सफ़िया में उसका साथ निभाने का साहस होगा? या वह धारा के साथ अपरिचित, मगर जाने-पहचाने अन्त की तरफ़ बढ़ना चाहेगी।
‘‘क्या कहा तुमने?’’ सफ़िया ने पूछा।
‘‘ज़रा देखोगी हमारी चाय का क्या हुआ?’’
सफ़िया दीवान से उठ कर निचली मंज़िल की तरफ़ चली। पूरा परिवार तीनों खानों के वक़्त अट्ठारह फ़ुट लम्बी टीक की मेज़ पर जमा होता था, लेकिन शाम की चाय हर कमरे में पहुँचायी जाती थी, ताकि जस्टिस जाफ़री, जो दिन के खाने के लिए नहीं लौटते थे, इत्मीनान से, जिमख़ाना जाने से पहले, एक प्याली अकेले पी सकें।
जस्टिस साहब, आराम-कुर्सी पर बैठे, तेज़ दार्जिलिंग चाय पी रहे थे, जो ख़ास उन्हीं के लिए बनायी जाती थी। उनकी बेगम उन्हें दिन भर का ब्योरा दे रही थीं। सफ़िया को दरवाज़े पर हिचकिचाते देख, ज़ीनत बेगम ने भँवे उचका कर वाक्य आधे में छोड़ उसकी तरफ़ देखा।
‘‘आओ बीबी, क्या चाहिए?’’ सफ़िया अपने ससुर के प्यार-भरे लहजे पर मुस्करा कर बोली, ‘‘जी वह चाय के लिए आये थे।’’
‘‘तो कहो न, मुँह बाये क्या ताक रही हो? ट्रे साईड बोर्ड पर तैयार रखी है, ले लो और जाओ,’’ ज़ीनत बेगम ने हुक्म दिया।
इस रूखी विदाई पर खिसिया कर, ट्रे उठाते हुए सफ़िया ने पूछा, ‘‘क्या वसीम को कुछ हुआ है?’’ ऊपर का काम करने वाला अल्हड़-सा वसीम उसे बहुत पसन्द था।
‘‘क्यों, क्या ट्रे बहुत भारी है?’’ बेगम ज़ीनत ने तंज़ से पूछा।
‘‘पूछने में तो कोई बुराई नहीं है न,’’ क्लब जाने के लिए कपड़े बदलने जाते जस्टिस साहब के अन्तिम वाक्य से उनकी पत्नी की आँखों की सख़्ती कम नहीं हुई। दरवाज़े की तरफ़ मुड़ते हुए सफ़िया ने सफ़ाई देते हुए कहा, ‘‘दरअसल, ये पूछ रहे थे और. . .’’
‘‘कौन अब्बी? तो यह कहा क्यों नहीं? कह देना बंगाल में अकाल पड़ा है।’’
ऊपर, कमरे में अब्बास कुर्सी पर पसरा, घुटनों पर टिके काग़ज़ों के पुलिन्दे में क़लम से लकीरें खींच रहा था, ‘‘आह, चाय आख़िरकार,’’ उसने काग़ज़ एक तरफ़ किये, ‘‘तुम्हें क्यों उठा कर लाना पड़ा?’’ समाजवादी विचारधारा के बावजूद, अब्बास को शारीरिक श्रम से नफ़रत थी और अपनी गुलाबी नर्म हथेलियों पर फ़ख्र था।
‘‘मैंने अभी अभी ‘भारत एक खोज’ ख़त्म की है और पण्डित जवाहरलाल नेहरू का ऐसा मानना है कि जो श्रम नहीं करता उसे होने वाले मुनाफ़े पर भी कोई हक़ नहीं। मैं सिर्फ़ अपनी दिहाड़ी कमा रही हूँ।’’
‘भारत एक खोज’ उन पहली तीन किताबों में से थी जो अब्बास ने उसे दी थीं। हर अध्याय पर बहस और चर्चा ने सत्रह बरस की लड़की और अट्ठाइस साल के आलिम के बीच दोस्ती की नींव रखी थी। जैसे-जैसे सफ़िया पर लिखे, कहे और भीतरी मतलब के भेद खुले, अब्बास ने पाया था कि उसका ज़ेहन राब के उबलते हुए कढ़ाव की तरह है जिसे बराबर आँच और मुस्तकिल ईंधन पर रख कर, बार-बार मैली उतारने की ज़रूरत है, ताकि वह निर्मल होने से पहले जम न जाये और तेज़ी से उबलने से खट्टा न हो जाये। ‘‘अच्छा है कि तुमने किताब को अच्छी तरह से पढ़ समझ लिया है।’’
‘‘हाँ, यह कह सकते हैं कि मैंने किताब को सतही तौर पर समझ लिया है। उसमें इतनी बातें हैं जो मेरे समझ से परे हैं जैसे इस घर की कई बातें...’’
गर्म चाय की चुस्की लेते हुए अब्बास ने पूछा, ‘‘जैसे क्या?’’
‘‘हमने बूबू से पूछा कि वसीम को क्या हुआ है तो उन्होंने जवाब दिया — बंगाल में अकाल है। मगर वसीम तो यहीं गोंडा का है। तो फिर बंगाल मेंपड़े अकाल का ... क्या हुआ? मैंने क्या किया? कहाँ जा रहे हो...? सुनो तो ...’’ सफ़िया ने सन्त्रस्त हो कर चीनी के क़ीमती बर्तनों को फ़र्श पर बिखरते-टूटते देखा। सहम कर, उसका हाथ ख़ुद-ब-ख़ुद अपने बचाव के लिए सिर के ऊपर आ गया। कुछ पल बाद, बाहर को जाते हुए उसके तेज़-तेज़ क़दमों की आहट आयी, तो वह समझी कि अब्बास का ग़ुस्सा उस पर नहीं गिरने वाला है और वह उसके पीछे लपकी। किसी अशुभ अन्देशे से उसका दिल दहल रहा था।
पान लगाते हुए बेगम ज़ीनत ने नज़र ऊपर उठायी। एक यही काम वे नौकरों पर नहीं छोड़ती थीं। पान लगाने में ज़रा नफ़ासत की ज़रूरत होती है। ख़ुशबुओं और मसालों के डालने में ज़रा बदएहतियाती हुई कि पान बरबाद हुआ। बाईस कुलचियों वाला, चार सेर चाँदी का पानदान उनकी ख़ास पसन्दीदा सम्पत्तियों में से एक था। वह इसे दिन में दो बार खोल कर, दिन भर के पान लगा कर, नम ख़स पर सजा कर, गंगा-जमनी ख़ासदान से ढँक कर रखतीं।
अब्बास उनकी सबसे छोटी और सबसे ख़ूबसूरत औलाद था और सभी औरतों की तरह, ख़ूबसूरत मर्द उनकी कमज़ोरी थे। इसके साथ यह भी था कि वह इस मर्द की जननी थीं। अब्बास के पास आते ही, वह धूप में छूटी साबुन की बट्टी की तरह नर्म पड़ जातीं; और उसकी ख़्वाहिशें पूरी करने के लिए उनके घर का सख़्त अनुशासन किसी तरह रस्ता निकाल ही लेता। भ्रष्टाचार और अय्याशी से उसकी दूरी, उनके मातृत्व की क़ीमत बढ़ातीं। जब अब्बास की इंगलैंड जाने की बारी आयी तो बेगम ज़ीनत ने चिन्तित हो कर लखनऊ की जामा मस्जिद के इमाम को बुलवाया। इमाम साहब ने सबके सामने यह दावा किया कि अब्बास अगर किसी बात का वादा कर ले तो उसे हर हाल में निभायेगा। अपने बेटे की ज़बान की सार्वजनिक मान्यता से प्रसन्न बेगम ज़ीनत ने अब्बास को बुलवाया और उसे इमाम साहब की मौजूदगी में यह क़सम खाने को कहा कि वह इंगलैंड में शराब, सुअर और स्त्री को हाथ नहीं लगायेगा। अब्बास ने बड़े भोलेपन से