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अनुकररम

ं अनुकररम
हम धनवान होंगे या नहीं, य सरवी होंगे या नहीं, चुनाव जीतेगे या नही इसमे शंका हो सकती है
परनरतु भैया! हम मरेंगे या नहीं, इसमे कोई शंका है? िवमान
श उड़ने का समय िन ि रि,तहोताहै
बस
चलन क े ा , गाड़ी छूटने का समय िन
स मयिनिितहोताहै ि र ि त ह ो ताहैपरनरतुइसजीवनकी
के
श छूटने का कोई िन ि रि?तसमयहै
आज तक आपने जगत का जो कुछ जाना है, जो कुछ पापत िकया है ... आज के बाद जो
जानोगे और पापत करोगे, परयारेभैया! यह सब मृतरयु के एक ही झटके में छूट जायेगा, जाना अनजाना हो
जायेगा, पररिपर
ा तअपररिपर
ा तमेंबदल जायेगी।
अतः सावधान हो जाओ। अनरतमुररख होकर अपने अिविल आतरमा को, िनज सरवरूप के
अगाध आननरद को, शा शर वतािनर श त को पररापरत कर लो। ििर तो आप ही अिवनाशी आतरमा हो।
जागो.... उठो..... अपने भीतर सोये हुए िन शर ियबल को जगाओ। सवररदे,शसवररकाल में
सवोररतरतम आतरमबल को अिजररत करो। आतरमा में अथाह सामथरयरर है। अपने को दीन-हीन
मान बैठे तो िव शर व में ऐसी कोई सतरता नहीं जो तुमरहें ऊपर उठा सके। अपने आतरमसरवरूप
में पररितििरठत हो गये तो ितररलोकी में ऐसी कोई हसरती नहीं जो तुमरहें दबा सके।
सदा सरमरण रहे िक इधर उधर भटकती वृितरतयों के साथ तुमरहारी शिकरत भी िबखरती
रहती है। अतः वृितरतयों के साथ तुमरहारी शिकरत भी िबखरती रहती है। अतः वृितरतयों को
बहकाओनहीं। तमामवृ ितरतयोंको एकितररतकरकेसाधना -काल में आतरमििनरतन में लगाओ और वरयवहार
काल में जो कायरर करते हो उसमें लगाओ। दतरतिितरत होकर हर कोई कायरर करो। सदा शानरत
वृितरत धारण करने का अभरयास करो। िविारवनरत एवं पररसनरन रहो। जीवमातरर को अपना सरवरूप
समझो। सबसे सरनेह रखो। िदल को वरयापक रखो। आतरमिनिरठा में जगे हुए महापुरुिों के
सतरसंग एवं सतरसािहतरय से जीवन को भिकरत एवं वेदानरत से पुिरट एवं पुलिकत करो।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

हर मनुिरय िाहता है िक वह सरवसरथ रहे, समृदरध रहे और सदैव आनंिदत रहे, उसका
कलरयाण हो। मनुिरय का वासरतिवक कलरयाण यिद िकसी में िनिहत है तो वह केवल सतरसंग में
ही है। सतरसंग जीवन का कलरपवृकरि है। गोसरवामी तुलसीदासजी ने कहा हैः

'सतरसंग के िबना िववेक नहीं होता और शररीरामजी की कृपा के िबना वह सतरसंग सहज
में नहीं िमलता। सतरसंगित आनंद और कलरयाण की नींव है। सतरसंग की िसिदरध यानी
सतरसंग की पररािपरत ही िल है। और सब साधन तो िूल हैं।'
सतरसंग की महतरता का िववेिन करते हुए गोसरवामी तुलसीदास आगे कहते हैं-

आधी से भी आधी घड़ी का सतरसंग यानी साधु संग करोड़ों पापों को हरने वाला है।
अतः

।।
हम सबका यह परम सौभागरय है िक हजारो-हजारों, लाखो-लाखो हदृ यो को एक साथ ईशरीय
आननरद में सराबोर करने वाले, आितरमक सरनेह के सागर, वेदानरतिनिरठ सतरपुरूि पूजरयपाद
संत शररी आसारामजी बापू सांपररत काल में समाज को सुलभ हुए हैं।
आज के देश-िवदेश में घूमकर मानव समाज में सतरसंग की सिरताएँ ही नहीं अिपतु
सतरसंग के महासागर लहरा रहे हैं। उनके सतरसंग व सािनरनधरय में जीवन को आननरदमय
बनानेका पाथेय , जीवन केिवषाद का िनवारण करन क े ीऔषिि, जीवन को िवििन समपिियो से समृद करन क
े ी
सुमित िमलती है। इन महान िवभूित की अमृतमय योगवाणी से जरञानिपपासुओं की
जानिपपासा शात होती है, दुःखी एवं अशानरत हृदयों में शांित का संिार होता है एवं घर संसार
की
श जिटल समसरयाओं में उलझे हुए मनुिरयों का पथ पररका ि तहोताहै।
ऐसे हृदयामृत का पान कराने वाले पूजरयशररी की िनरनरतर सतरसंग-विारर से कुछ िबनरदू
संकिलत करके िलिपबदरध आपके करकमलों में पररसरतुत है।

' '

अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

पूजरय बापू का पावन सनरदेश


िनवेदन
िववेकपूणरर दृििरट
सदगुरू मिहमा
आतरमदररशन
ईशरकृपा की समीका
मोह सकल वरयािधनरह कर मूला
सरवधमरर िनिरठा
बीज मेंवृकरि..... जीव मे बह
सतरसंग का महतरतरव
सिरिाई का पररभाव
सामथरयरर का सदुपयोग
तू ही तू
यमराज के दरबार में िजनरदा मनुिरय
गोरख ! जानता नर सेिवए......

िजनको मनुषय जनम की महिा का पता नही, वे लोग देह के मान में, देह के सुख में, देह
की सुिवधा में अपनी अकरल, अपना धन, अपना सवररसव र लुटा देते हैं। िजनको अपने जीवन
का महतरता का पता है, िजनहे वृदावसथा िदखती है, मौत िदखती है, बालयावसरथा
र का, गभाररवास का दुःख
िजनहे िदखता है, िववेक से िजनरहें संसार की न शर वरता िदखती है एवं संसार के सब संबंध
सरवपरनवत िदखते हैं, ऐसे साधक मोह के आडंबर और िवलास के जाल में न िँसकर
परमातरमा की गहराई मेंजानेकी को श ि करतेहैं।
िजस तरह िूखा मनुषय िोजन केिसवाय अनय िकसी बात पर धयान नही देता है , परयासा मनुिरयिजस तरह पानी
की उतरकंठा रखता है, ऐसे ही िववेकवान साधक परमातरमशांितरूपी पानी की उतरकंठा रखता
है। जहाँ हिर की ििारर नहीं, जहा आतमा की बात नही वहा सािक वयथथ का समय नही गँवाता। िजन कायों को
करने से िितरत परमातरमा की तरि जाये ही नहीं, जो कमथ िचि को परमातमा से िवमुख करता हो, सिरिा
िजजासु व सचचा िकत वह कमथ नही करता। िजस िमतता से िगवद प , उस िमतररता को वह शूल की
् ािपतनहो
शैया समझता है।
,

, ,

,
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वह मित दुगररित है, िजसमे परमातमा की तडप नही। वह जीवन वयथथ है िजस जीवन मे ईशर केगीत गूँज न
पाए। वह धन बोझा हैजो आतरमधन कमानेकेकाम न आए। वह मनतुमरहारा शतररह ु ैिजस मनसेतुम अपनेआपसेिमल
न पाओ। वह तन तुमरहारा शतररु है िजस तन से तुम परमातरमा की ओर न िल पाओ। ऐसा िजनका
अनुभव होता है वे साधक जरञान के अिधकारी होते हैं।
जो वयिकत देह केसुख , देह की पररितिरठा, देह की पूजा, देह के ऐश तथा देह का आराम
पानेकेिलए धा िमररकहोता ,हैवह अपने आपको ठगता है। देह को एकागरर रखने का अभरयास करो।
कई लोग घुटना व शरीर िहलाते रहते हैं, वे धरयान के अिधकारी नहीं होते, योग
के अिधकारी नहीं होते। मन को एकागरर करने के िलए तन भी संयत होने िािहए।
एक बार भगवान बुदरध परम गहरी ांित का अनुभव लेकर िभकरिुकों को कुछ सुना रहे
थे। सुनाते सुनाते बुदरध एकाएक िुप हो गये, मौन हो गये। सभा िवसिजररत हो गई। िकसी की
िहमरमत न हुई तथागत से कारण पूछने की। समय बीतने पर कोई ऐसा अवसर आया तब
िभकरिुओंनेआदरसिहत पररथरर ा नाकीः
"भनरते! उस िदन आप गंभीर िविय बोलते-बोलतेअिानक िुप हो गयेथे, करया कारण था?"
बुदधनर ेकहा, "सुनने वाला कोई न था, इसिलए मै चुप हो गया था।"
िभकरिुकोंनेकहाः"हम तो थे।"
बुदधर ः"नहीं। िकसी का िसर िहल रहा था तो िकसी का घुटना। तुम वहाँ न थे। आधरयाितरमक
जान केिलए , िचि तब तक एकाग नही होगा, जब तक शरीर की एकागता िसद न हो।"
आप अपने तन को, मन को सरवसरथ रिखये। संसार का सवररसव र लुटाने पर भी यिद
परमातरमािमल जाय तो सौदा ससरता हैऔरसारे िव शर व
को पानेसेयिद परमातरमा कािवयोगहोता हैतो वह सौदा खतरनाक
है। ई शर वर के िलए जगत को छोड़ना पड़े तो छोड़ देना लेिकन जगत के िलए कभी
ईशर को मत छोड देना मेरे िैया ! ॐ.....ॐ.....ॐ....
ईशर केिलए पितषा छोडनी पडे तो छोड देना लेिकन पितषा केिलए ईशर को मत छोडना। सवासथय और सौनदयथ
परमातरमा केिलएछोड़नापडे ़तो छोड़देनालेिकन सरवासरथरय औरसौनरदयररकेिलएपरमातरमा को मत छोड़नाकरयोंिक एक न एक
िदन वह सरवासरथरय और सौनरदयरर, िमतरर और सतरता, पद औरपररितिरठासब पररकृित केतिनक सेझटकेसेछूट
जायेगे। इसिलए तुमहारा धयान हमेशा शाशत ईशर पर होना चािहए। तुमहारी मित मे परमातमा केिसवाय िकसी अनय वसतु
का मूलरय अिधक नहीं होना िािहए।
जैसे समझदार आदमी वृदावसथा होन स े े प ह ल ेह,ीयाताकरले
बु
िदरधकरिीणहोन
ताहैेकेपूवररही बु
िदरधमेंबाहरयी
िसरथित पा लेता है, घर में आग लगने से पहले ही जैसे कुआँ खुदाया जाता है, भूख लगने
से पहले जैसे भोजन की वरयवसरथा की जाती है, ऐसे ही संसार से अलिवदा होने के
पहलेही जो उस परयारेसेसंबंधबाँधलेताहै, वही बुिदरधमान है और उसी का जनरम साथररक है।
िजसन म े ौ , िजसनबअनिलयाहै
न काअवलं े प न च े ं च ल त न औरमनकोअखंडवसतुमेिसथरक
अभरयसरत िकया है, वह शीघरर ही आतरमरस का अमृतपान कर लेता है।
,
,
कई राितररयाँ तुमने सो-सोकर गुजार दीं और िदन में सरवाद ले लेकर तुम समापरत
होने को जा रहे हो। शरीर को सरवाद िदलाते-िदलाते तुमरहारी यह उमरर, यह रीर बुढ़ापे की
खाई में िगरने को जा रहा है। शरीर को सुलाते-सुलाते तुमरहारी वृदरधावसरथा आ रही है।
अंत में तो.... तुम लमबे पैर करकेसो जाओगे। जगान व े ा ले ि च ल ल ायेगेििरिीतुमनहीसुनपाओ
हकीम तुमरहें छुड़ाना िाहेंगे रोग और मौत से, लेिकन नही छुडा पायेगे। ऐसा िदन न चाहन प े रिी
आयेगा। जब तुमरहें सरमशान में लकिड़यों पर सोना पड़ेगा और अिगरन शरीर को सरवाहा कर
देगी। एक िदन तो कबरर में सड़ने गलने को यह शरीर गाड़ना ही है। शरीर कबरर में जाए
उसके पहले ही इसके अहंकार को कबरर में भेज दो..... शरीर ििता में जल जाये इसके
पहलेही इसेजरञानकी अिगरनमेंपकनेदो।
साधक की दृििरट यही होती है। साधक का लकरिरय परमातरमा होता है, िदखावा नहीं।
साधक का जीवन सरवाभािवक होता है, आडंबरवाला नहीं। साधक की िेिरटाएँ ई शर वर के िलए
होती हैं, िदखावे के िलए नहीं। साधक का खान-पान पररभु को पानेमेंसहयोगी होता है , सरवाद के िलए
नहीं। साधक की अकरल संसार से पार होने के िलए होती है, संसार में डूबने के िलए
नहीं। साधक की हर िेिरटा आतरमजरञान के नजदीक जाने की होती है, आतरमजरञान से दूर
जान क े ीनही।
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चकवा चकवी को समझाता हैः
,
,
हे िििड़या ! सनरधरया हुई। तू मुझसे िबछड़ जायेगी, दूसरे घोंसले में िली जाएगी
िकनरतु पररभात को तू ििर मुझे िमल जायेगी लेिकन मनुिरय जनरम पाकर भी उस सतरय सरवरूप
परमातरमा केसतरय सेिबछड़नेवाला मनुिरय पुनः सतरय सेन सुबहिमलेगा, न ाम को, न रात में िमलेगा न िदन
में।
सतरय का, परमातरमा का बिलदान देकर तुमनेजो कुछपाया है, वह सब तुमने अपने साथ जुलरम िकया
है। ई शर वर को छोड़कर यिद अनरयतरर कहीं तुम अपना िदल लगा रहे हो तो अपने साथ शतररुता
कर रहे हो, अनरयाय कर रहे हो। ॐ....ॐ....ॐ....

'अपने दरवारा संसार-समुदरर से अपना उदरधार करें और अपने को अधोगित में न


डालें करयोंिक यह मनुिरय आप ही तो अपना िमतरर है और आप ही अपना शतररु है।'
(शररीमदर भगवदगीताः 6.5)
हे अजुररन ! तून य े ि द अ प न म े ा ि , लहलन-
कसेमचलन
नलगायाऔरअपनम
से तथा े नकोचंचलतासे
पररकृित केबहाव सेरोका तो तू अपने -आपका िमतरर है और यिद पररकृित के बहाव में बहा तो अपने-
आपका शतररु है।
यह मन यिद संसार में उलझता है तो अपना ही सतरयानाश करता है और परमातरमा
में लगता है तो अपना और अपने संपकरर में आने वालों का बेड़ा पार करता है।
इसिलए कदम-कदम पर सावधान होकर जीवन वरयतीत करो करयोंिक समय बड़ा मूलरयवान है। बीता
हुआ करिण, छूटा हुआ तीर और िनकले शबरद कभी वापस नहीं आते। िनकली हुई घिड़याँ वापस
नहीं आतीं।
सिरता के पानी में तुम एक बार सरनान कर सकते हो, दो बार नहीं। दूसरी बार तो वह
पानी बहकर न जानेकहाँपहुँि जाता है। ऐसेही वतर
तररमानभूत मेंिला गया तोििर कभी नहींलौटेगा। इसिलएसदैव
वतररमान काल का सदुपयोग करो।
,
,
"कौन करया करता है? कौन करया कहता है?" इस झझ ं ट मे मत पडो। इसकी जात कया है? उसकी
जात कया है? इसका गाव कौन सा है? उसका गाँव कौन सा है?"
अरे ! ये सब पृथरवी पर हैं और आकाश के नीिे हैं। छोड़ दो मेरे और तेरे नाम
-ैं"कहाँ के हो? िकस गाँव के हो? िकधर से
पूछनेकी झंझट । लोगयातररामेंजातेहैंतो सामनेिनहारतेह
आये हो?" अरे भाई ! हमारा गाँव बररहरम है। हम वहीं से आये हैं। उसी में खेलते हैं
औ र उसी म े स म ा प त ह ो ज ा ए गँ े । ल े िक न इस ि ा ष ा को स म झ न व े ा ल ाकोईन ह ी िम ल त ा।स ब
इस मुदे शरीर का नाम, गाँव पूछते हैं िक कहाँ से आये हो।
ु है , िमटरटी में घूम रहा है और िमटरटी में ही िमलने को बढ़ रहा है,
जो िमटी से पैदा हआ
उसी का नाम, उसी का गाँव उसी का पंथ-समरपररदाय आिद पूछकर लोग अपना ही समय गँवाते
हैं और संतों का भी समय गँवा देते हैं।
तुमहारा गाव और तुमहारा नाम, सि पूछो तो एक बार भी यिद तुमने जान िलया तो बेड़ा पार हो
जायेगा। तुमहारा गाव तुमन आ े ज त क न ह ी द े खा । त ु म ह ा रेघरकापतातुमदसू रोसेिीन
नहीं जानते लेिकन संत तो तुमरहें सिरिा पता बता रहे हैं ििर भी तुम अपने घर के पते
को नहीं समझ पा रहे हो।
िदरवतीय िव शर वयुदरध के दौरान एक िसपाही को िोट लगी और वह बुरी तरह जखरमी होकर
बेहो हो गया। साथी उसेअपनी छावनी मेंउठा लाये। डॉकरटरोंनेइलाज िकया तो वह अिरछा तो हो गया लेिकन अपनी
सरमृित पूणररतः खो बैठा। मनोवैजरञािनकों को भी लाया गया लेिकन कोई िकरर नहीं पड़ा।
अपना नाम, पता, काडरर, िबलरला आिदसब खो बैठाथा वह िौजी। मनोवैजर ञािनकोंनेसलाह दीिक इसेअपनेदेश में
घुमाया जाये। जहाँ इसका गाँव होगा, घर होगा, वहाँ इसकी सरमृित वापस जाग उठेगी और
सरवयं ही अपने घर िला जायेगा। तब इसका पता िलेगा िक यह कौन है व कहाँ से आया
है।
तदनुसार वयवसथा की गई। दो आदमी साथ िेजे गये। इगंलैड केसिी रेलवे सटेशनो पर उसे उतारा जाता और
साइन बोडरर िदखाये जाते िक कदािित अपने गाँव का साइन बोडरर देख लें और सरमृित जग
जाए। लेिकन कही िी समृित न जगी। साथी िनराश हो गये। वे अब तक लोकल टेन मे याता कर रहे थे। एक छोटा सा
गाँव आया, गाड़ी रूकी। सािथयों ने सोिा िक इसे नीिे उतारना वरयथरर है लेिकन िलो िाय
पीनेउतर जातेहैं।
वह िौजी, िजसकी समृित की गहराई मे उसका गाव, उसका नाम िला गया था, रेलवे सरटेशन
पर अपनेगाँवका साईन बोडरर देखतेही उसकी सरमृित जग आई। यह िाटक केबाहर हो गया औरिटािट िलनेलगा।
सड़कें, गिलयों, मोहलरले, लाघता हआ ु वह अपन घ े र म े प , यह
ह ँ च ु ग या।वहाउसनद े ेखािकयहमेरी
मेरा बाप है। वह बोल पड़ाः This is my house. उसकी खोई सरमृित जाग गई।
सदगुरू भी तुमरहें अलग-अलग पररयोगों से, अलग-अलग सुख-दुःख से, अलग अलग
रर याओंसेतुमरहेंयातरराकरातेहैंतािक तुम कदािित अपनेगाँवकी गली को देखलो, ायद अपना पुराना घर देख
पिकरर
लो। जहा से तुम सिदयो से िनकल आये हो, उस घर की सरमृित तुम खो बैठे हो। अब शायद तुमरहें उस घर
का, उस गाँव का कुछ पता िल जाए। काश, तुमहे समृित आ जाए।
जगदगुर शीकृषण न अ -साँखरय के दरवारा, योग के दरवारा और िनिरकाम
े ज ु थ नकोकईगाविदखाये
कमरर के दरवारा, लेिकन अजुथन अपन घ े र म े न ह "अजुररनृषणनक
ी जारहाथा।शीक ! अब
े हाःतेरी मजीरर।
"
अजुररन कहता हैः "नहीं पररभु ! सा न करें। मेरी बुिदरध उिित िनणररय नहीं ले
सकती। मेरी बुिदरध गाँव में पररवेश नहीं कर सकती।" तब शी कृषण कहते है - "तो ििर छोड दे अपनी
अकरल और हो ि य ा ि र ऐय ो
श ं क ा भ , जीने
रोसा।छोड़देअपनी िह
मरने का खरयाल। छोड़ दे धमरर-कमरर की झंझट को और आ जा मेरी शरण में।"

"समरपूणरर धमोररं को अथाररतर समरपूणरर कतरतररवरय कमोररं को मुझमें तरयागकर तू केवल


एक मुझ सवररशिकरतमानर सवाररधार परमे शर वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे समरपूणरर पापों
से मुकरत कर दूँगा। तू शोक मत कर।"
(गीताः 18.66)
डूब जा मेरी गहरी शांित में। तुझे पता िल जाएगा िक तेरा गाँव तुझमें ही है,
कहीं आका -पाताल मेंनहीं।
हमारे से िदन कब आवेंगे िक हमें हमारे गाँव की परयास जग जाएगी तािक हम भी
अपने आतरमगाँव में पररिविरट हो जाएँ !
दिकरिण भारत के एक समरराट ने नई रािनयों के कहने में आकर पुरानी रानी के
पुतररको घर सेबाहरिनकालिदया। यदरयिपयह उस राजा की एक मातररसंतान थी औरपुरानी रानी (बड़ीरानी) से
उतरपनरन हुई थी लेिकन नई रािनयाँ उस पुतरर के िवरुदरध हमेशा राजा के कान भरा करतीं थीं
िकः "यह तो अलमसरत है, पागल है, सारा िदन घूमता रहता है और गाता रहता है। यह आपकी
पररितिरठाको धूल मेंिमला रहा है।"
बार-बार सुननेपर बात असर कर जाती है। राजा भी उस राजकुमार कोिगरी हुई नज़रोंसेदेखनेलगा औरवे
िगरी हुई िनगाहें पकरकी होती िली गईं। राजकुमार को िपता से पररेम न िमलने के कारण,
उसका पररेम पररभु की ओर होने लगा। वह टूटी िूटी भािा में मसरतानों जैसा कुछ न कुछ
गुनगुनाया करता था। उसके खान-पान, रहन-सहन की कोई वरयवसरथा नहीं थी। जैसा भी आया खा
िलया, पीिलया औरजीिलया।
मैं िसरोही गया था तो िसरोही के साथ अपने महल में बुलवाया लेिकन उसके
पहलेउसका भाई मेरेपास कई बार आगया। वह बहुत ही सीधा-सादा था। इतना सीधा-सादा िक सायकल पर
ही आ जाता था। लोगों ने मुझे बताया िक राजा अपने इस भाई को पागल समझता है। यदरयिप
वह पागल नहीं था, उसका सरवभाव ही सरलतायुकरत था। जैसे तैसे आदमी से बात करने लग
जाये, जहा-तहा बैठन ल े गजाये , एकदम अपने साधारण वे में, साधारण भाव में ही रखता था
लेिकन िसरोही नरेश अपन प े ु र ा न ि े स रोहीपुरकोसंिालनमेेअििकिवशासरखताथा।
कुटुमरबी और िसरोही के लोग समझते थे िक 'यह तो ऐसा ही है..... राजा का भाई तो है
लेिकन ऐसा ही है।' वासरतव में वह ऐसा-वैसा कुछ न था, ठीक था, परंतु सांसािरक आडमरबर न संभाल पाया
इसिलए लोगो ने 'ऐसा है.... वैसा है....' कहना पररिािरत कर िदया था।
इसी पकार उस समाट केएकमात पुत को िी देषवश नई रािनयो ने 'ऐसा है.... वैसा है....' कहना
आरंभ कर िदया। दािसयाँ भी उसे सा ही कहती थीं। राजा ने जब उसे िनकाल िदया तो वह
सड़कों पर रहने लगा, मवािलयों के साथ हो गया। ई शर वर के गीतों की बजाय उसके मुँह
से तेरे मेरे के गीत बजने लगे। संग का बड़ा रंग लगता है। राजा ने देखा िक यह
मेरे राजरय में रहकर मेरी ही इजरजत का किरा कर रहा है तो उसे अपने राजरय से बाहर
िनकाल िदया। अब वह भीखमंगों की टोली में शािमल हो गया। भीख माँगकर खा लेता और
जहा कही सो लेता।
कुछ िदन िकसी गाँव में रहता। गाँव वाले भीख देकर ऊब जाते तो दूसरे गाँव में
चला जाता। ऐसा करते-करते वह कई विोररं के बाद िकसी मरुभूिम के गाँव में पहुँि गया।
कपड़े जूते वही थे लेिकन िटकर ििथड़े हो गये थे। शरीर मैला और बदबूदार, वे भूिा
िबलरकुल दिरदररोंजैसीऔरपहुँिा हैउस मरुभिमकू ेगाँवकेएक छोटेसेहोटल केपास .... िबछाई हैअपनी भीख माँगनेकी
िटी पुरानी िदिरया।
"एक पैसा दे दो बाबू जी ! जूता लेन क े .... चाय
े िलएदे दो पीन क े ेिलएदअ ु -चवनी
नी दे दो.... तुमहारा
भला होगा..." इस पकार की िीख मागकर वह समाट पुत अपना गुजारा कर रहा है।
इिर समाट बूढा होन ज े ा र हा ह ै । ज य ो ि त ि ष योनक े हिदयािकअबतुमहारेनस
परमरपरा यिद समरभालनी ही हैतो जो एकमातररपुतररथा उसेही बुलाकर उसी का राजितलक कर दो अनरयथा तुमरहारेकुल का
अंत हो जाएगा।
राजा ने अपने पुतरर की तलाश में िारों ओर वजीर और िसपाही भेजे। वजीर के
नेतृतरव में एक टुकड़ी घूमती-ििरती उसी मरुभूिम के छोटे से देहाती गाँव में पहुँिी
औ र द े ख ा िक ए क छ ो ट े स े ह ोट ल क े स ा म न क े ो ई ि ि खा र ी ि ीखम ा ग र ह ा ह ै ।
यदरयिप विोररं का िासला बीत गया था लेिकन वजीर की बुिदरध पैनी थी। िवलकरिण,
िदरधमानवजीर नेरथ रोककर देखािक जो'एक पैसा दे दो...... कल से भूखा हूँ... कुछ िखला दो.... इस
बु
गरीब को.... तुमहारा कलयाण होगा....' की आवाज लगा रहा है, इस आवाज मे हमारे राजकुमार केकुछ गुण िदखाई
पड़तेहैं।
वजीर रथ से उतरकर सामने गया तो वह वजीर को दुहाइयाँ देने लगाः "तुमहारा कलयाण
होगा... तुमहारा राज और तुमहारी तुमहारी इजजत कायम रहेगी..... तुमहारा पद और पितषा कायम रहेगी..... जनाब !
मुझे गरीब को पैसे दे दो।"
वजीर ने पूछाः "तू कहा से आया है?"
वह कुछ सरमृित खो बैठा था, बोलाः "मैं गरीब हूँ.... भीख माँगकर जैसेतैसेअपना जीवन यापन कर
रहा हूँ।" वजीर पूछते पूछते उसे अपनी असिलयत की ओर ले गया तो सरवतः ही ये पररमाण
पररकट होनेलगेिक यह वही राजकुमार हैिजसकी तलाश मेंहमयहाँतक पहुँिेहैं।
वजीर ने उससे कहाः "तुम तो अमुक राजकुमार हो और अमुक राजा केएकमात कुलदीपक हो। राजा
तुमहारा राजितलक करन क े े ! तु
ि ल एउतसु कमहैऔ बैठकर पैसे पैसे केिलए िीख मागते हो ?"
यहारपागल
उसे तुरनरत सरमृित आ गई। उसने कहाः "मेरे सरनान के िलए गंगाजल लाओ। पहनने
के िलए सुनरदर वसरतरराभूिणों की तैयारी करो और सुनरदर रथ की सजावट करो।"
एक करिण में उसकी सारी दिरदररता िली गई। सारे िभकरिापातरर एक करिण में वरयथरर
हो गये और वह उसी समय समरराटततरव का अनुभव करने लगा।
वह राजा तो रािनयों के िकरकर में आ गया था इसिलए राजकुमार को िनकाल िदया था
औ र बाद म े अ पन स े व ा थ थ क े च क र म े न ह ी आ य ा िि र ि ी सं तरप
तरि िेज रहा है िक तुम िवषयो की िीख कब तक मागते रहोगे ? मुझे धन दे दो.... मकान दे दो... कुसीरर दे
दो... सतरता दे दो..... मुझे सुहाग दे दो.... मेरी मँगनी करा दो..... मुझेपुतरर दे दो.....' तुमहे इस
तरह िीख मागता देख सुनकर संतरपी वजीर िीतर ही िीतर बडे दःुखी होते है िक अरे ! परमातरमा केइकलौतेपुतरर !....
तुम सब परमातमा केइकलौते पुत हो कयोिक परमातमा और तुमहारे बीच ितनकामात िी दरू नही। परमातमा का राजय पाने
का तुमरहारा पूणरर अिधकार है, ििर भी तुम भीख माँगने से रुकते नहीं। अब रूक जाना...ठहर
जाना िैया......! बहुत भीख माँगली........... कई जनरमों से माँगते आए हो।
समरराट का पुतरर तो दस बारह साल से भीख माँग रहा था इसिलए उसे वजीर की बात पर
िव शर वास आ गया और अपने राजरय को संभाल िलया , लेिकन तुम तो सिदयो से िीख मागते आ रहे हो
इसिलए तुम वजीर केवचनो मे िवशास नही करते हो।
तुमहे संदेह होता है िकः "आतरमा ही परमातरमा है....? चलो, साईं कहते हैं तो ठीक है, लेिकन
मेरा पररमोशन हो जाए।"
"अरे ! चल, मैं तुझे सारे िव शर व का समरराट बनाये देता हूँ"।
"साँईं ! यह सब तो ठीक है, लेिकन मेरा यह इतना सा काम हो जाये।"
अरे ! कब तक ये कंकड़ और पतरथर माँगते रहोगे ? कब तक कौिड़याँ और ितनके
बटोरतेरहोगे?
ईशर केराजय केिसवाय और परमातमा केपद केिसवाय , आज तक तुमने जो बटोरा है और जो
बटोरोगे, आज तक तुमने जो जाना है और आज के बाद जो जानोगे, आज तक तुमने जो िमतरर
बनायेऔरआजकेबादिजनरहेंसंसार केिमतररबनाओगे , मृतरयु के एक झटके में सब के सब छूट जाएँगे।
दिरदररता के पातरर कब तक सजाए रखोगे? भीख की िीजेंकब तक अपनेपास रखोगे?
छोड़ो दिरदररता को.... उतार िेंको िटे पुराने िीथड़ों को..... िोड़ डालो िभकरिा के
पातररोंको......'िवोऽहं ' का गान गूँजने दो.... 'मैं आतरमा परमातरमा हूँ.... मैं अपने घर की ओर
कदम बढ़ाऊँगा.... हिर ॐ.... ॐ....ॐ....'
अपनी सरमृित को जगाओ......। दूसरा कुछनहींकरना है। परमातरमा को लाना नहींहै, सुख को लाना
नहीं है, सुख को पाना नहीं है, जनम मरण केचकर को िकसी हथौडे से तोडना नही है लेिकन तुम केवल अपनी
सरमृित को जगाओ। और कुछ तुमरहें नहीं करना है। तुम केवल परमातरमा की हाँ में हाँ
िमलाकर तो देखो.....! गुरू की हाँ में हाँ िमलाकर तो देखो िक तुम िकतने महान हो सकते
हो......!
गुरु तुमरहें कहते हैं िक 'तुम अमृतपुत हो' तो तुम कयो इनकार करते हो? गुरू तुमरहें कहते हैं
िक तुम देह नहीं हो तो तुम करयों अपने को देह मानते हो? गुरू कहते हैं िक तुम बरराहरमण,
करिितररय, वै श,र यूदरर नहीं, तुम तो परमातमावाले हो, गुरू की बात जरा मानकर तो देखो, भाई!

'हे अजुररन ! शरीर रूपी यनरतरर में आरूढ हुए समरपूणरर पररािणयों को अनरतयाररमी
े वर रअपनी माया सेउनकेकमोररंकेअनुसार भररमणकराता हुआ सब पररािणयोंकेहृदय मेंिसरथत है। '
परम
(गीताः 18.61)
सबके हृदय में मैं ई शर वर जरयों का तरयों िवराजमान हूँ लेिकन माया रूपी यंतरर से
सब भररिमत हो रहे हैं। माया का अथरर है धोखा। धोखे के कारण ही हम दीन हीन हुए जा रहे
हैं िक 'हे धन ! तू कृपा कर , सुख दे। हे कपड़े! तू सुख दे। हे गहने ! तू सुख दे।'
अरे ! ये जड़ िीजें तुमरहें कब सुख देंगी? कपड़े नहीं हैं? परवाह नहीं। गहनेनहीं
हैं। परवाह नहीं। अरे, खाने को नहीं हो तो भी परवाह नहीं करना। खाकर भी तो मरना ही है
औ र िब न ा खा य े ि ी इस शर ी र को म र न ा ह ी ह ै । तु म ह ा र े ह ृ द य म े प र म ा त म ा का आ र ा म
परमातरमा केगीत हो तो बस ... इतना िी पयापत है। इसकेिसवाय सब कुछ िी हो गया तो वयथथ है और यह हो गया तो सब
कुछ की भी आव शर यकता नहीं। वह सब कुछ तुमरहारा दास हो जाएगा।
एक बार गुरू की बात मानकर तो देखो। एक बार छलांग लगाकर तो देखो ! सौदा मंजूर
नहीं हो तो वापस कर देना भैया !....। ॐ.....ॐ.....ॐ....... अपने िर शर -ते नाते को कम से कम
बढ़ाओ।
,
, ।।
बहुत पसारा तुमरहारेिदल कोिबखेरदेताहै, तुमहारी गित को िविकपत कर देता है ििर यहा कब तक पसारा
करोगे.....? मरने वालों से कब तक िमतररता बनाते रहोगे? छूटने वालों को कब तक
संभालोगे? तुम अपनी बुिद मे यह जान अवशय ही िर देना िक 'मैं उनकी बात कभी नहीं मानूँगा जो
मुझे मौत से छुड़ा नहीं सकते। मैं उन िीजों को कभी जानने की को श ि नहीं ही करूँगा जो
मुझे गभाररवास में धकेल दें। वे कमरर मेरे िलए िवि हैं, जो मौत केबाद मुझे मािलक से िमलाने
में रूकावट देते हैं।
एक पौरािणक कथा हैः
शुकदेव जी जब सोलह विरर के हुए तो वे घर को छोड़कर जाने लगे। िपता वेदवरयास
जी उनकेपीछे पीछे आवाज लगाते हएु आ रहे है - "पुतरर....! सुनो.....रूको... कहाँ जाते हो....? मैं तुमरहारा
िपता हूँ.....। रू को.....! रूको.....! रूको.....!"

पुतररजा रहा हैलेिकन उसेधरयान आयािकिपता कोई साधारण पुरि ू नहींहैंअतः उनकी आ ि ि लेकरजानाही
उिित है।
शुकदेव जी वापस लौटे तो िपता ने उनरहें सरनेह से बाँहों में भर िलया। िपता
पूछतेहैं- "वतरस ! मुझे छोड़कर कहाँ जा रहे थे?"
शुकदेव जी कहते हैं- "िपताजी! मैं आपको एक कथा सुनाता हूँ। ििर यिद आपको उिित
लगे तो मुझे रोक लीिजएगा।
िपताजी! िकसी गाँव के बाहर नहीं के िकनारे एक बररहरमिारी रहता था। वह पररातःकाल
में उठकर संधरया-वंदन, आसन-परराणायाम-धरयान आिद कायम करता था। धरयान के बाद जब उसे
भूख लगती तो अपनािभकरिापातररलेकरवह गाँवमेंएक समय मधुकरी करता था ।
धीरे-धीरे उस बररहरमिारी का संयम, साधना, ओज, तेज बढता चला गया। उसी गाव मे दल ु न
बनकर कोई कुलटा सरतररीआईथी जो अपनेप ित केसाथ एक दुमंिजलेमकान केऊपरी भागमेंरहती थी ।
बररहमर िारी जब गाँवमेंिभकरिालेनेिनकला तो िखड़की सेउस कुलटा सरतररीकी नजर बररहमर िारी केतेजसरवी
मुखमंडल पर पड़ी। वह युवा बररहरमिारी पर अतरयंत कामातुर हो गई। उसका पित थोड़ा देर
पहलेही कुछकायररवश बाहर गाँवजानेकेिलए घर सेिनकल िुका था। अतः उसनेबररहमर िारी को ऊपर बुलातेहुए कहाः
"इिर आओ.... मैं तुमरहें िभकरिा देती हूँ।"
वह बररहरमिारी सहज सरवभाव से िभकरिा हेतु ऊपर पहुँि गया तो उस कुलटा सरतररी ने
दरवाजा बंद करके उसे भीतर घेर िदया और उसके साथ अनािधकृत िेिरटा करने की को िश श
की।
बररहमर िारी घबराया। उसनेमन ही मनपरमातरमा को पुकारािकः"पररभु ! मेरी साधना अधूरी न रह जाए !
हे मेरे नाथ ! यहाँ एक तू ही मेरा रकरिक है। काम तो वैसे भी तीर िलए खड़ा होता है।
ऊपर से यह कािमनी अपना पररयास कर रही है। हे राम ! तू कृपा करेगा , तो ही मै बचूँगा, अनरयथा तो
मारा जा रहा हूँ। तू कृपा कर, मेरे नाथ !"
उस बररहरमिारी की भीतरी परराथररना अनरतयाररमी परमातरमा ने सुन ली। बाहर गाँव जाने
के िलए िनकला हुआ कुलटा का पित साधन न िमलने के कारण एवं एकाएक शौि जाने का
दबाव आने के कारण वापस घर लौट आया और दरवार पर आकर दसरतक दी।
पतरनीआवाज सुनकर घबराईिक अब करया करू ? युवक को कहाँ छुपाऊँ? घर में शौिालय था। उस
शौिालय की मोरी (होद) में कुलटा ने उस युवक को धकरका देकर दबा िदया। उसके पित को
शौि जाना था। वह शौिालय में गया और उसने उसी होद में िविरठा, मलमूतरर तरयागा िजसमें
बररहमर िारी को धकेलागया था । ििर वह आदमी उस कुलटा को भी साथ लेकरबाहर गाँविला गया।
िपताजी! वहाँ से वह बररहरमिारी नवयुवक बेिारा, जैसे बालक गिावास मे ओंिा होता है, सा
औं ि ा औ र ब े ह ोश अ व स था म े लु ढ क त ा -िखसकता हुआ एक िदन के बाद उस शौिालय की नाली
में नीिे उतरा। जब सिाईवाले को उसमें िसर के बाल िदखे तो उसने उसे बाहर खींि
िलया।
वह सिाई वाला िनःसंतान था अतः उस मूिछररत बररहरमिारी को अपने घर ले गया और
उपिार िकया तब कहीं बररहरमिारी को होश आया। होश आया तो वहाँ से भागकर अपनी पुरानी
झोपड़ी में गया। अिरछी तरह रगड़-रगड़कर सरनान िकया। ििर सनरधरया पूजन, परराणायाम, धरयान,
जप आिद करकेअपन आ े पक ो श ु दव स व स थ ि क य ा । उसेििरसेिूखलगी।दोच
िभकरिामाँगनेआना ही पड़ा। तब तक वह कुलटा सरतररीभी अपनेघर पहुँिगई थी ।
अब वह बररहरमिारी उस मोहलरले से तो गुजरता भी नहीं था लेिकन िपताजी ! अनजाने
में वह मोहलरले से गुजरे और वह कुलटा सरतररी उसे पूड़ी पकवान आिद िखलाने के िलए
आमंितररत करे तो वह जाएगा करया? वह सरतररी उसे कई-कई बार बुलाए और सुनरदर वसरतरर-
आभूिण भी दे तो वह जाएगा करया?
कई पररलोभनों के बावजूद भी वह बररहरमिारी उस कुलटा के पास नहीं जाएग करयोंिक
उसे एक बार मोरी से गुजरने का अनुभव याद है.... उस नाली से पसार होने की उसको सरमृित
है।
िपताजी! एक बार नाली से गुजरा हुआ बररहरमिारी दोबारा हजार-हजार पररलोभनों पर भी
वापस नहीं जाता तो मैं तो हजारों नािलयों से घूमता घूमता आया हूँ। हजारों माताओं की
नािलयों से पसार होता होता आया हूँ। िपता जी! अब मुझे करिमा कीिजये। मुझे जाने
दीिजए। संसार की झंझटों से मुझे बिने दीिजये।
मुझे जनरमों-जनमो की उन मोिरयो का समरण है िक माता की मोरी कैसी होती है। उस कुलटा सती के
शौिालय की मोरी तो एक िदन की थी लेिकन यहाँ नौ महीने और तेरह िदन मोरी में औंधे
होकर लटकना पड़ता है। मल, मूतरर, िविरठा आिद सब कुछ इसमें बना रहता है। माँ तीखा-तेज
खाती है तो जलन पैदा होती है। मुँह से कीटाणु भी काटते रहते हैं कोमल िमड़ी को,
उससे जो पीड़ा होती है वह तो बिरिा ही जानता है। माँ की उस गंदी योिन स जनरम लेते
समय बिरिे को जो पीड़ा होती है, वह जनरम देने वाली माँ की पीड़ा से दस गुना अिधक
होती है। बिरिा बेिारा मूिछररत सा हो जाता है।
िपता जी! वह पीड़ा और लोग करया जानें? पररसूित की पीड़ाजैसेमाँही जानती है, वैसे ही जनरम
की पीड़ा तो बेिारा बिरिा ही जानता है। ऐसी पीड़ा से मैं एक बार नहीं, अनंत-अनंत बार
पसार होकर आयाहूँ। िपताजी ! अब मुझे करिमा कर दो। उन मोिरयों में मुझे वापस मत धकेलो।"
"बहुत पसारा मत करो" करयोंिक बहुत पसारा करने से ििर मोिरयों से पसार होना
पडे ़गा, नािलयों से पसार होना पड़ेगा। कभी दो पैरवाली माँ की नाली से पसार हुए हैं तो
कभी िार पैरवाली माँ की नाली से पसार हुए हैं तो कभी िार पैरवाली माँ की नाली में हम
पसार हुए हैं। कभी आठपैरवाली माँकी नाली सेपसार हुए हैंतो कभी सौ पैरवाली माँकी नाली सेभी हमपसार हुए हैं।
अब तक उन नािलयों से तुम पसार होओगे?
इन नािलयो से अब उपराम हो जाओ और उस यार से मुलाकात कर लो तािक ििर पसार न होना पडे। उस यार
से िमलो िजसकी मुलाकात के बाद ििर कभी नािलयों में औंधा लटकना न पड़े।
अपने िववेक और वैरागरय को सततर जागृत रखना। जरा सा भी वैरागरय कम हो
जायेगा तो नाली तैयार ही समझो। जरा-सी िवसरमृित हो जाए तो बररहरमिारी को वह कुलटा ििर से
बुलानेको उतरसुक है।
आप सदा ही याद रखनाः "आिखर करया? आिखर कब तक? इतना िमल गया, ििर करया? इतना खा
िलया, ििर करया? इतना अखबारो मे िोटो और नाम छपवा िदया, ििर करया? आिखर करया? आिखर करया
होगा?" इसिलए खूब सतकथ रहे।
संत एकनाथजी से एक सेठ ने कहाः "तुम िी गृहसथी, मैं भी गृहसरथी। तुम बिरिों वाले,
मैं भी बिरिों वाला। तुम सिेद कपड़ों वाले, मैं भी सिेद कपड़ों वाला लेिकन तुमरहें
लोग इतना पूजते है, तुमहारी इतनी पितषा है, तुम इतन ख े ु श और ि न ि ि ं तरहकरजीसकतेहोलेिकन
करयों? तुम इतन म े हा न औरमै ?"इतनातुचछकयो
एकनाथ जी ने देखा िक इसे सैदरधांितक उपदेश देने से काम नहीं िलेगा। कुछ
अलग ही पररयोग िकया जाय। एकनाथ जी ने उससे कहाः "बाबा ! सात िदन में तू मरने वाला
है, ििर मुझसे यह सब पूछकर तू करया करेगा?"
अब एकनाथ जी कहें और वह आदमी िव शर वास न करे , सा संभव ही नहीं था। एकनाथ
जी न त े ो क ह दीथीआिखरीबात।
वह आदमी दुकान पर आया। बेिैन होकर घूम रहा है करयोंिक सात िदन में तो मौत
है। उसके भीतर जो भी लोग था, हाय-हाय थी वह शांत हो गई। अपने पररारबरध का जो कुछ था
वह सहजता से उसे िमलने लगा। पैसे वसूल करने जाने वाला जो आदमी गरराहकों में
िबना लडे ़-िभडे
़वापस नहींलौटता था । वह आजपररेमसेउनसेपैसेिनकाल लाया।
शाम होने पर रोज शराब के घूँट लेने के अभरयसरत जीव के समरमुख आज शराब िीकी
हो गई।
एक िदन बीता.... दूसरा िदन बीता.... तीसरा िदन बीता....। रोज भोजन मेंिटनी-नमक, अिार आिद
चािहए था, अब कोई आगररह न रहा। जो जरा-जरा बात पर आग-बबूला हो जाता था उसेअब याद आता हैिक सात
िदन में से िार गये, तीन ही बाकी है। इतना खाकर आिखर कया?
इस तरह पाचवा िदन बीता। बहू पर िजसे कोि आ जाता था, बेटेिजसेनालायकिदखतेथे, वही अब मौत
को सामने देख रहा है िक तीन िदन बिे हैं। बेटों की नालायकी व गदरदारी वह भूल गया
औ र सोचन ल े गाः
"इस संसार मे ऐसा ही होता है। यह मेरा सौिागय है िक वे गदारी और नालायकी करते है तािक उनका
आसिकरतपूणरर ििनरतन नहीं होता। यिद उनका आसिकरतपूणरर ििनरतन होगा तो करया पता इस घर
में िूहा होकर आना पड़े िक कुतरता होकर आना पड़े साँप होकर आना पड़े िक िििड़या
होकर घोंसले में शबरद करने को आना पड़े.... कोई पता नहीं। अिरछा है.... पुतररऔरबहुएँगदरदार
हुई तो अिरछा ही है करयोंिक तीन िदन के बाद तो जाना ही है। अब जो समय बिा है उसमें
िवठोबा को याद कर लूँ- िवटरठलरला.... िवटरठलरला... करके वह िालू हो गया।
जीवन िर जो मंिदर नही गया, जो संतो को िी नही मानता था वह सेठ तेरा-मेरा भूलकर
'िवटरठलरला......िवटरठलरला....' रटने में मगन हो गया।
छठा िदन बीता। जरयों-जयो समय आगे बढता गया तयो-तयो सेठ मे ििकतिाव, सरवािभवकता,
सहनशिकरत आिद सदगुण सरवतः ही िवकिसत होने लगे। पिरजन भी िविसरमत हैं िक इनका जीवन
इतना पिरवितथत ! हम तो रोज मनौित मानते थे िक 'कब मरेगा? कब जान छूटेगी? हे देवी-
देवता ! इसका सवगथवास हो जाय तो हम िड ं ारा करेगे?'
िजन बचचो को तुम िरशत लेकर, अपना पेट काटकर पाल-पोसकर, पढ़ा-िलखाकर बडा करते हो,
उनरहें िमसेज (बहू) िमलने दो और तुमरहारा बुढ़ापा आने दो, ििर देखो िक करया होता है....
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चार-चार पुत होन प े र ि ी ब ू ढा प र े , परमा
शानहै कतर
योिकबू ेनपेंुत।ोपरआिाररखाहै
मा परढनही तुमने
परमातरमा का आधार छोड़कर पुतररपर, पैसेपर, राजरय पर, सतरता पर आधार रखा है तो अंत में रोना ही
पडे़गा।
िव शर व की सारी सुिवधाएँ िजसके पास थीं ऐसी इंिदरा को भी बेिारी को िववश होकर
अपने पुतरर की अकाल मौत की हालत देखनी पड़ी थी। मौत कहाँ आती है, कब आती है,
कैसे आती है, कोई पता-िठकाना नहीं। कई-कई दृिरटांत अपने सामने हैं िजनमें सामूिहक
मौते हुईं.... मोरबी कांड, भोपाल गैसकांड, मराठावाड़ा का भूकमरप कांड.... िजनमे हजारो आदमी देखते-
देखते िल बसे।
हमारा भी करया िठकाना िक यहाँ से घर पहुँि भी न पाएँ और रासरते में कुछ हो जाए...
दुकान से घर जाएँ और रासरते में ही खतरम हो जाएँ.... करया पता? इस नशर शरीर का कोई पता नही,
भैया!
सेठ का अब छठा िदन पूरा हो गया है। वह बड़ा उतरसुक हो रहा है िकः 'भगवान मैंकरया करूँ?
मेरे कमरर कैसे कटेंगे? िवटरठलरला...... िवटरठलरला....' धुन िालू है।
छठे िदन की राितरर आिखरी राितरर है। राितरर को नींद नहीं आई। रिवदास की बात याद
आ गई होगी शायद उसे। अनजाने में रिवदास उसके जीवन में िमका होगाः
,
,
उस सेठ की रात अब सोने में नहीं जाती, सतरय में जा रही है। 'िवटरठलरला...
िवटरठलरला.... िवटरठलरला.....' करते-करते पररभात हुई। कुटुिमरबयों को जगाया और कहाः
"मुझमें अभी तक जो भी गलितयाँ हुई हों या मैंने िकसी को कुछ गलत भी बोला हो तो
मुझे माि कर देना। मैं अब जा रहा हूँ।"
कुटुमरबी रो रहे हैं िकः "अब तो तुम बहुत अिरछे हो गये हो। तुम न जाते तो अिरछा
है।"
जो िगवान को पयारा होता है वह कुटुमब का िी पयारा होता है और समाज का िी पयारा होता है लेिकन जो िगवान
को िवसरमृत करके केवल कुटुिमरबयों के िलये ही जुटा रहता है उसे कुटुमरबी भी बाद में
गदरदारी से देखते हैं।
अब सेठ के िलए लोगों को िजजरञासा हो रही है िक ये करया कर रहे हैं !
सेठ बोल रहे हैं- "चौका लगाओ, तुलसी केपिे मेरे मुँह मे डालो। तुलसी का एकाि मनका गले मे
डालकर मरूँ तो ठीक है, कम से कम नरक और यमदूतों से तो बिूँगा।"
तुलसी केपिे लाये जा रहे है। एकाि तुलसी का मनका िी तलाशा जा रहा है।
सेठ को अब खिटया से उतारकर िलपे-पुतेिौकेमेंिलटािदया गया है। बस , अब कौन सी घड़ी
मौत आएगी... करया पता?
पररभात सेसातवाँिदन शु रू हो रहा है। सेठकहता हैपिरजनोंसेः "आप रोना मत। मुझे मरने देना
िवठोबा के ििंतन में।"
कुटुमरबी परेशान हैं। इतने में एकनाथजी महाराज उधर से िनकले। कुटुिमरबयों ने
पैरपकड़िलयेः"गुरूजी! आपका िेला है, भकरत है। हमभी आपको पूजतेहैं, कृपया पधािरये।"
एकनाथ जी आये और सेठ को देखकर बोलेः "करयों इस तरह िौके में लेटे हो?
करया बात है?"
वह बोलाः "गुरूजी ! आप ही ने तो कहा था िक 'सात िदन में तुमरहारी मौत है। एक
सपरताह में तुम मरोगे।' तो छः िदन तो मै जी िलया और आज आिखरी िदन है। संत का वचन किी िमथया नही
होता।
एकनाथ जी कहते हैं- "हाँ, मैंने कहा था िक एक सपरताह में ही मरोगे तुम।"
मैं भी तुमरहें कह देता हूँ िक तुम भी एक सपरताह में ही मरने वाले हो। आपकी मौत
का िदन सोमवार होगा या मंगलवार, मंगल नहीं तो बुध, बुध नहींतो गुरू , गुरू नहीं तो शुकरर....
िन... रिव.... इन सात िदनो केिीतर ही तो तुम मरोगे , इससे अलग िकसी नये िदन मे तुम थोडे ही मरन व े ालेहो।
ॐ..... ॐ..... ॐ.....
एकनाथ जी ने उसका जरञान बढ़ाने के िलए गुपरत संकेत कर िदया था िक तुम एक
सपरताह के अनरदर ही अनरदर मरोगे। बात तो सिरिी थी। संत झूठ करयों बोलेंगे? हम उनके
विनों के गूढ़ रहसरयों को अपनी मंदमित से जान नहीं पाते इसीिलए हम उलरटा संतों को
ही झूठा सािबत कर देते हैं?
एक आदमी आया और कहने लगाः बाबा जी ! मैं िलाने अपराध में िँस गया हूँ।"
बाबा जी बोलेः"तू िचनता मत कर। मुकत हो जाएगा।" औ र व ह छू ट ग य ा अ द ा ल त स े। िि र ग य ा ब ा ब ा ज ी क े
पासः "बाबाजी ! आपने कहा था तो मैं मुकरत तो हो गया लेिकन दस रूपये का जुमाररना देना
पड़ा।"
अरे, जुमाना देकर िी तू मुकत तो हो गया, ििर भले कैसे भी मुकरत हुआ। हमने तो िसिरर
इतना कहा था िक तू मुकत हो जायेगा। तेरी जब शदा बडी है तो इस जुमान स े ेकया, मौत के जुमाररने से भी तू
मुकरत हो जायेगा। तू डरता करयों है....?
ेर की दाढ़ में आया हुआ िकारकरविितर छटक सकता है लेिकन सिरिे सदगुरूओं
के हृदय में िजसका सरथान आ जाए वह कैसे छटक सकता है? संसार में वह कैसे भटक
सकता है? वह मुकरत होगा ही।
'एकनाथ जी ने कहा थाः 'सात िदन में तेरी मृतरयु है।' एकनाथ जी के विन उसने
सतरय माने इसिलए जीवन में पिरवतररन हो गया।
एकनाथ जी कहते हैं- "भाई ! तुमन प े ू छ ा था न ि ?कतुमुमझऐसे
मेवतुमहान् और मै है
ममेकयािकथ
सामानरय करयो ? तुम इतन प े ि व त औरमै ? तोऐसापापीकयो
मैन त े ु म ह े बत ा याथािकसातिदनमेतुमहारीमौत
तुमन म े ौ त क ो स ा त िदनहीदर , मेरी
ू समझाथा।अबबताओ
उस मुलाकात के बाद, सात िदन में
होने वाली मौत के बारे में सुनने के बाद, तुमन ि ?"
े क तनीबारशराबपी
वह बोलाः "एकबार भी नहीं, छुआ तक नहीं।"
"माँस िकतना खाया?"
"िबलरकुल नहींखाया। िवटरठलरला का नामही जपता रहा, औ र कु छ ि ी न ह ी िक य ा म ै न । े "
"िकतनी बार झगड़ा िकया?"
"नहीं, झगड़ा-वगड़ा मुझे कुछ याद ही नहीं रहा िसवाय तीन िदन..... दो िदन... एक
िदन..... मैं भला िकससे झगड़ा करता ? मैं अब केवल तुमरहारी शरण में हूँ।" सा
कहकर 'िवटरठलरला..... िवटरठलरला' करते हुए वह एकनाथ जी के िरणों में पड़ा।"
एकनाथ जी कहते हैं- "चलो ठीक है। अब एक बात समझ लो। तुमको छः िदन, पाँििदन, चार िदन,
तीन िदन मौत दरू िदखी, िजतनी-िजतनी मौत नजदीक आती गई, तुम उतन अ े ि ि क ई शरमयहोतेगयेऔरसंसारिी
होता गया। यह तुमरहारा अपना अनुभव है िक दूसरे िकसी का ?"
वह कहता हैः "सब मेरा अनुभव है गुरूजी ! कुछ रस नहीं िदखता, संसार में कहीं
कोई रस नहीं है।"
एकनाथ जीः "तुझे अब यह पता चला िक तेरी मौत केवल सात िदन दरू है तो तुझे कही रस नही िदखता
लेिकन मेरे गुरदेव न त े ो म ु झ े अप नस े ा म न हे, ीमौतिदखादीहै
इसिलए मुझे सं।समैाररोजमौतकोयादकरताह
मे ँू
आसिकरत नहीं और पररभु में पररीित है। पररभु में िजसकी पररीित है उसके साथ दुिनयादार
पररीितकरतेहैं, इसिलए मै बडा िदखता हूँ और तुम छोटे िदखते हो, वरना तुम और मैं दोनों एक ही तो है।

।।
'अपने दरवारा अपना संसार-समुदरर से उदरधार करे और अपने को अधोगित में न
डाले, करयोंिक यह मनुिरय आप ही अपना िमतरर है और आप ही अपना तररु है। िजस जीवातरमा
दरवारा मन और इिनरदररयों सिहत शरीर जीता हुआ है, उस जीवातरमा का तो वह आप ही िमतरर है
औ र िजस क े द ा र ा म न तथा इ िनि य ो स िह त शर ी र न ह ी ज ी त ा ग य ा ह ै , उसके िलए वह आप ही
शतररु के सदृश शतररुता में बतररता है।'
(गीताः 6.5.6)
यिद अनातरम वसरतुओं में िितरत लगाया, अनातरम पदाथोररं में मन लगाया तो आप
अपने आपके शतररु हो जाते हैं और छोटे हो जाते हैं लेिकन अनातरम वसरतुओं से मन
को हटाकर यिद आतरमा में लगाते हैं तो आप शररेिरठ हो जाते हैं। आप अपने आपके
िमतरर हो जाते हैं और बड़े हो जाते हैं।
नानक तुमसे बड़े नहीं थे, कबीर तुमसे बड़े नहीं थे, महावीर तुमसे बड़े नहीं
थे, बुदधतुमस
र ेबडे़नहींथे, करराईसरट तुमसे बड़े नहीं थे, शररीकृिरण भी तुमसे बड़े नहीं थे
अिपतु तुमरहारा ही रूप थे लेिकन वे सब इसिलए बड़े हो गये िक उनरहोंने अपने आप में
िसरथित की और हम लोग पराये में िसरथित करते हैं। इसिलये हम मारे गये और वे लोग
तर गये। बस, इतना ही िकथ है। जो हो गया सो हो गया, समय बीत गया सो बीत गया लेिकन अब बात
समझ में आ गई तो आप याद रखना िक सात िदन में ही आपको भी मरना है। उस सेठ को तो
सिमुि एकनाथ जी ने रहसरय खोलकर नहीं बताया इस कारण उसका कलरयाण हुआ। मैंने तो
तुमहे इसिलए रहसय खोलकर बताया िक तुम समझदार हो। इस रहसय को समझते हएु िी तुम सात िदन मे मौत को याद
रखोगे तो कलरयाण हो जाएगा।....औ र सच ब ो ल त ा हू ँ िक स ात िद न क े अ न द र ह ी अ न द र म ौ त
होने वाली है। उस मौत को सामने रखना िक आिखर कब तक....?
कल रिववार है.... छुटरटी मनाएँगे..... खेलेंगे......घूमेंगे... लेिकन एक रिववार ऐसा िी
हो तो हो सकता है िजस िदन हमें अथीरर पर सवार होकर जाना पड़े। सोमवार को हम िकसी
िमतरर से िमलने को जा रहे हैं..... हो सकता है िक कोई ऐसा सोमवार हो िक हमें शमशान
में ही जाना पड़े।
मंगल को हम इससे िमलेंगे, उससे िमलेंगे.... हो सकता है कोई मंगल ऐसा भी
आएगा िक हम अथीरर से िमलेंगे। बुध को हम यह करेंगे..... वह करेंगे..... हो सकता है
बुध को बुदधूर क ी नाई हमारा शव पड़ाहो।
गुरूवार को हम यह करेंगे..... वह करेंगे.... सा करेंगे..... लेिकन कया पता गुर को हम
गुरू के दरवार जाते हैं िक यम के दरवार जाते हैं, कोई पता नहीं। हाँ, ुकरर को हम यह
करेंगे......। अरे! शुकरर को शुकररिायरर जैसे जरञान को पाते हैं िक शूकर जैसी योिनयों की
तरि जाते है, कोई पता नहीं।
िनवार को भी वहीः यह करेंगे..... वह करेंगे..... अरे, उस मौत को भूलो मत। सुबह
उठो तो परमातरमा और मौत को याद करो िक करया पता कौन-से िदन िले जाएँगे। आज सोमवार
है तो करया पता इस देह का अंत िकस सोमवार को हो जाए। आज मंगल है तो करया पता िकस
मंगल को िले जाएँ।
आप तो ितुर हैं, समझदार हैं इसिलए मौत और परमातरमा दोनों को सामने रखोगे
तो ििर महान् होन म े े द े र न ह ी ह ो ग ी । म ौ त और परमातमाकोसामनरेखोगेत
उतरसाह होगा। अपने गाँव के नाम का बोडरर आ जाए तो ििर तुम सीधे िले ही जाना, पूछनेमत
लग जाना िक 'मेरा गाँव है या तेरा गाँव? तुम तो चले ही जाना अपन ग े ावमे।
अमुक भाई करया है िक नहीं? उसका इंतजार मत करना।
कई लोग आ शर ियररजनक बातें करता हैं। उस परमातरमा के वातावरण में बैठते ही
उनका िितरत शांत हो जाता है। िितरत जब शांत होता है तो खुली आँखों से भी आननरद आने
लगता है और जब िचि ही शात नही तो बनद आँखो से िी कुछ नही होता है।
जब-जब तुमहे आननद आन ल े ग ज ा य त ो स म झन ा ह ै िकअनजानमेेिचिशातहोगय
िबना, वातावरण की कृपा से, भगवान की, संतों की करुणा-कृपा से तुमरहारा मन अनजाने में ही
धरयानसरथ हो जाता है, धारणा में आ जाता है, तिी तुमहे आननद आता है।
कई लोग अजीब िकसरम के होते हैं जो कहते हैं-
"साँईं ! मुझ पर दया कर दो।"
मैंने पूछाः "करया बात है?"
"मेरा धरयान नहीं लगता, दया कर दो।" जबिक चेहरा खबर दे रहा था िक अमृत िपया है, एकाध
घूँट झेल िलया है।
मैंने ििर पूछाः "करया होता है?"
"आननरद तो बहुत आता है।"
"आननरद तो बहुत आता है और धरयान नहीं लगता? अरे, बडे ़िमयां! धरयान का िल करया
है? आनंद है िक दुःख? धरयान का िल करया है? ईशर पािपत का िल कया है?"

भगवान कहतेहैं– मेरेदररशन का िल अनुपम है, वह यह िक जीव अपना सरवरूप पा ले, अपने सहज
सुखसरवरूप की उसे अनुभूित होने लगे।
सुखसरवरूप की झलकें आने लगे इस हेतु यह जरूरी नहीं है िक गुरू दीकरिा लेंगे,
गुरूजी िूँक मारेंगे, िसर पर हाथ रखेंगे और हम नािरयल देंगे, पैसेदेंगे, ििर गुरू अपना
बररहमर जर
ञानदेंगेया अपनी करूणा कृपा देंगे। यह तो पंिडत गुरू का काम है, भैया!
सदगुरू तो िबना िलये ही दे देते हैं। ढूँढते रहते हैं िक कोई िमल जाए पाने
वाला। िविध-िवधान बने, हम ििरय बनें, तिी वे कुछ देगे , ऐसी बात नहीं। वे पहले ऐसे ही करूणा-
कृपा बरसा देते हैं, बाद मेंहमारी शररदरधाहोती हैतो हमउनरहेंगुरू मानतेहैंअनरयथा उनरहेंतो गुरू मनवानेकी इिरछा
नहीं होती करयोंिक वे तो गुरूओं के भी गुरू हैं, िव शर वातरमहैं। ा वे कोई दो , चार, दस, बीस,
पिास आदिमयोंकेगुरू नहींहैंअिपतु समरपूणररबररहमर ाणडर केगुरू हैं।िजनरहोंनेजगत केपदाथोररंकी आस भीतर सेछोड़रखी
है, वे तो सारे जगत के गुरू हैं, ििर िाहे हम उनरहें मानें या न मानें। उनरहें कोई
िकरर नहीं पड़ता।
,
,
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
अनुकररम
-
िजनकेजीवन मे आतमशाित पापत करन क े ी र , वे इस पृथरवी के देव ही हैं। देव दो
िचवततपरताहै
पररकार केमानेजातेहैं - एक तो सरवगरर में रहने वाले और दूसरे धरती पर के देव। इनमें भी
धरती पर के देव को शररेिरठ माना जाता है करयोंिक सरवगरर के देव तो सरवगरर के भोग
भोगकर अपना पुणरय निरटकर रहेहैंजबिक पृथरवी केदेवअपनेदान , पुणरय, सेवा, सुिमरन आिद के माधरयम से
पाप निरटकरतेहुए हृदयामृत का पान करतेहैं। सिरिेसतरसंगीमनुिरय को पृथरवी पर का देवकहा जाता है।
कबीर जी के पास ई शर वर का आदेश आया िक तुम वैकुणरठ में पधारो। कबीर जी की
आँखों में आँसू आ गये। इसिलए नहीं िक अब जाना पड़ता है, मरना पड़ता है.... बिलरक
इसिलए िक वहा सतसंग नही िमलेगा। कबीर जी िलखते है-
,
, -
ईशर का साकार दशथन करन क े े ब ा , काम, कररोध, कपट, बेईमानी रह सकती है। कैकेयी ,
दमोहहोसकताहै
मंथरा, प ू ररणखा, दुयोररधन, शकुिन आिद ई शर वर का दररशन करते थे ििर भी उनमें दुगुररण
मौजूद थे करयोंिक भगवान का दररशन आतरमरूप से कराने वाले सदगुरूओं का संग उनरहोंने
नहीं िकया।
शरीर की आँखों से भले ही िकतना भी दररशन करो, लेिकन जब तक जान की आँख नही खुलती
तब तक आदमी थपेडे खाता ही रहता है। दशथन तो अजुथन न ि े ी ि क ये,थपर ेशंतु
ीकृषजबे शररीकृिरण नेउपदेश देकर
णक
कृिरण ततरतरव का दररशन कराया तब अजुररन कहता हैः

'हे अिरयुत ! आपकी कृपा से मेरा मोह निरट हो गया है और सरमृित पररापरत हो गई है।
मैं सनरदेह रिहत होकर िसरथत हूँ। अब मैं आपकी आजरञा का पालन करूँगा।'
(गीताः 18.73)
िवजीका दररशन ह ो जाय , राम जी का हो जाय या शररी कृिरण का हो जाय लेिकन जब तक
सदगुरू आतरमा-परमातरमा का दररशन नहींकरातेतब तक काम, कररोध, लोि, मोह, पाखंड औरअहंकार रह सकता है।
सदगुरू के ततरतरवजरञान को पाये िबना इस जीव की, बेिारेकी साधना अधूरी ही रह जाती है। तब तक वह
मन के ही जगतर में ही रहता है और मन कभी खुश तो कभी नाराज। कभी मन में मजा आया तो
कभी नहीं आया। इसिलये कबीर जी ने कहा हैः

- ,
यह जीव िाहता है तो शांित, मुिकरत और अपने नाथ से िमलना। मृतरयु आकर शरीर छीन
ले और जीव अनाथ होकर मर जाय उसकेपहले अपन न े ा , परंतु मनभटका देताहैबाहर की, संसार
थसेिमलनाचािहए
की वासनाओं में। कोई-कोई भागरयशाली होते हैं वे ही दान-पुणरय करना समझ पातेहोंगे। उनसेकोई
ऊँिा होता होगा वह सतरसंग में आता है और उनसे भी ऊँिाई पर जब कोई बढ़ता है तब वह
सतरयसरवरूप आतरमा परमातरमा में पहुँिता, उसे परम शांित िमलती है, िजस परम शाित केआगे ,
इनि का वैिव िी कुछ नही।
, ।
।।
'जैसे जल दारा पिरपूणथ समुि मे समपूणथ निदयो का जल चारो ओर से आकर िमलता है पर समुि अपनी मयादा मे
अिल पररितििरठत रहता है, से ही समरपूणरर भोग-पदाथररिजस संयमीमनुिरय मेंिवकार उतरपनरनिकयेिबना ही
उसको पररापरत होते हैं, वही मनुिरय परम शांित को पररापरत होता है, भोगोंकी कामना वाला नहीं।'
(गीताः 2.70)
जैसे समुि मे सारी निदया चली जाती है ििर िी समुि अपनी मयादा नही छोडता, सबको समा लेता है,
से ही उस िनवाररसिनक पुरूि के पास सब कुछ आ जाय ििर भी वह परम ांित में िनमगरन
पुरि ू जरयोंका तरयोंरहता है। ऐसी अवसरथा का धरयान कर अगर साधन-भजनिकया जाय तो मनुिरय शीघररही अपनी उस
मंिजल पर पहुँि ही जाता है।
िनमरन तीन बातें सब लोगों को अपने जीवन में लानी ही िािहए। ये तीन बातें जो
नहीं जानता वह मनुिरय के वेश में प शु ही हैः
पहली बातः मृतरयु कभी भी, कहीं भी हो सकती है, यह बात पकरकी मानना िािहए।
दूसरी बातः बीता हुआ समय पुनः लौटता नहीं है। अतः सतरयसरवरूप ई शर वर को पाने के
िलए समय का सदपुयोग करो।
तीसरी बातः अपना लकय परम शाित यािन परमातमा होना चािहए।
यिद आप लकरिरय बना कर नहीं आते तो करया सतरसंग में पहुँि पाते? अतः पहले
लकय बनाना पडता है ििर याता शुर होती है। िगवान की ििकत का उचच लकय बनाते नही है इसिलये हम वषों तक
भटकते-भटकतेअंतमेंकंगलेकेकंगलेही रह जातेहैं।
आप पूछेंगेः "महाराज ! कंगले करयों? भिकरतकी तो धनिमला, यश िमला।"
भैया! यह तो िमला लेिकन मरे तो कंगले ही रह गये। सिरिा धन तो परमातरमा की
ा तहै। यह तो बाहर का धन हैजो यहींपड़ारह जायेगा। इस शरीर को भीिकतना हीिखलाओ-िपलाओ, यह भी
पररिपर
यहीं रह जायेगा। सिरिा धन तो आतरमधन है। कबीर जी ने ठीक ही कहा हैः
,
,
िजसकेजीवन मे रोम -रोम में रमने वाला परम शांित परम सुख व आनंदसरवरूप रामनाम का
धन नहीं है वह धनवान होते हुए भी कंगाल ही तो है।
मनुिरय में इतनी समरभावनाएँ हैं िक वह भगवान का भी माता-िपता बन सकता है। दशरथ-
कौशलरया ने भगवान राम को जनरम िदया और देवकी-वसुदेव भगवान ररीकृिरण के माता-िपता
बने। मनुिरय मेंइतनी समरभावनाएँहैंलेिकन यिद वह सदगुरू केिरणोंमेंनहींजाता औरसूकरिरमसाधना मेंरूिि नहींरखता
तो मनुषय िटकता रहता है।
आज भोगी भोग में भटक रहा है, तयागी तयाग मे िटक रहा है और िकत बेचारा िावनाओं मे िटक रहा
है। हालाँिक भोगी से और तरयाग के अहंकारी से तो भकरत अिरछा है लेिकन वह भी बेिारा
भटक रहा है। इसीिलएनानकजी नेकहाः
उिरि कोिट के महापुरूिों के िरणों में बैठकर हिरगुण गाओ, उनसे मागररदरर न
लेकर चलो। कबीर जी न क े हाहैः
,
,
संसार का छोटे-से-छोटा कायरर भी सीखने के िलए कोई न कोई तो गुरू िािहए और
ििर बात अगर जीवातरमा को परमातरमा का साकरिातरकार करने की आती है तो उसमें सदगुरू की
आव शर यकता करयों न होगी भैया?
मेरे आशररम में एक महंत रहता है। मुझे एक बार सतरसंग के िलए कहीं जाना था।
मैंने उस महंत से कहाः "रोटी तुम अपने हाथों से बना लेना, आटा-सामान यहाँ पड़ा
है।"
उसने कहाः "ठीक है।"
वह पहले एक सेठ था, बाद मेंमहंतबन गया। तीनिदन केबाद जब मैंकथा करकेलौटा तो महंतसेपूछाः
"कैसा रहा? भोजन बनाया था िक नहीं?"
महंतः "आटा भी खतरम और रोटी एक भी नहीं खाई।"
मैंने पूछाः "करयों, करया हुआ?"
महंतः "एक िदन आटा थाल में िलया और पानी डाला तो रबड़ा हो गया। ििर सोिाः
थोड़ा-थोड़ा पानी डालकर बनाऊँ तो बने ही नहीं। ििर सोिाः वैसे भी रोटी बनाते हैं तो
आटा ही िसकता है तो करयों न तपेली में डालकर जरा हलवा बना लें ? हलवा बनाने गया
तो आटे मे गाठे ही गाठे हो गई तो गाय को दे िदया। ििर सोचाः चलो मालपूआ जैसा कुछ बनावे लेिकन सवामी जी ! कुछ
जमा ही नही। आटा सब खतम हो गया और रोटी का एक गास िी नही खा पाया।"
जब आटा गूँथन औ े र सब ज ी बनानक , बहू
े ेिलएिीबे
को िकसी
टीको
निकसी सेसीखना पड़ता हैतो जीवातरमा
का भी यिद परमातरमा का साकरिातरकार करना है तो अव शर य ही सदगुरू से सीखना ही पड़ेगा।

गुरू की कृपा के िबना तो भवसागर से नहीं तरा जा सकता। ऐसे महापुरूिों को पाने के
िलए िगवान से मन ही मन बातचीत करो िकः "पररभु ! िजदंगी बीती जा रही है, अब तो तेरी भिकरत, तेरा धयान और
परम शांितका पररसाद लुटानेवालेिकसी सदगुरू की कृपा का दीदार करा दे।"
गुरु की कृपा के िबना तो भवसागर से नहीं तरा जा सकता है। ऐसे महापुरूिों को पाने
के िलए भगवान से मन ही मन बातिीत करो िकः "पररभु ! िजनदगी बीती जा रही है, अब तो तेरी भिकरत,
तेरा धयान और परम शाित का पसाद लुटानवेाले िकसी सदगुर की कृपा का दीदार करा दे। "
दुिनया भर की बातें तो तुमने बहुत सुनी, लाला ! बहुत कही.... बहुत कहोगे.... लेिकन अंत मे उससे
कुछ न िमलेगा, रोते रह जाओगे.... इसिलए किी किी उस दिुनया केसवामी केसाथ बातचीत िकया करो।
कभी रोना नहीं आता है तो इस बात पर रोओ िक पैसों के िलए रोता है, वाह-वाही के िलए
रोता है, लेिकन ऐ मेरे पापी मन ! परमातरमा केिलएतुझेरोना ही नहींआता ? कभी उसको परयार करते-करते
हँसो, ििर देखो िक धीरे-धीरे कैसे तुमरहारी िेतना जागृत होती है। कोई सिरिे सदगुरू
बररहमरवेतरतािमल जाएँगेऔरउनकी समरपररेकर
िणशिकरतका यिद थोड़ासा अंशशभीिमल गया तो आपलोगिजस तरह यहाँ ििवरों
में सहज ही धरयानमगरन हो जाते हो, सा अनुभव आप अपने घर में भी पूजनककरि में कर
सकते हो।
आप िजतनी अिधक अनरतरंग साधना उपासना करेंगे, अनरदर के देवता का दररशन
करने जाएँगे, उतनी ही आपकी लाईन लगानी पड़ेगी, पिीररकटवानेपर भी िाहेदररशन हो या न हो
लेिकन इस अंदर केदेव केदशथन एक बार ठीक से हो गये तो ििर बाहर केदेव केदशथन तुमन न े ह ी ि क येतोिीिचनताकी
बात नहीं। तुम जहाँभी हो, वहाँ देव ही देव है।
उस परमातरमा की कृपा पाने के िलए आप छटपटाओ, कभी यतरन करो। िजनरदगी का इतना
समय बीता िला जा रहा है, अब कुछ ही शेि बिा है...... डेढ़ साल..... दो साल..... पाँि....
दस..... बीस या तीस साल औरअंतमेंकरया....? यह जीवन बहती गंगा की तरह बह रहा है। उसमें से
अपना समय बिाकर काम कर लो भैया.....!
उस सतरयसरवरूप का संग करो। सुबह नींद से उठते ही संकलरप करोः "पररभु ! तेरा संग कैसे
हो?" कभी वरयवहार करते-करते बार-बार सोिोिकः "ऐ मेरे परमातरमा ! तू मेरे साथ है लेिकन मै अिी
तक तेरा संग नही कर रहा हूँ और िमटन व े ा ल ी च ी ज ो औ रम -अमर
र न वेालेदोसतोकेसंगमेपडाहूँलेिकनहेमेरेअ
मािलक ! तेरी दोसती का रगं मुझे कब लगेगा ? तू कया कर दे पिु !"
अगर आपने सिरिे हृदय से ऐसी परराथररना की है तो वह काम कर लेगी। यिद हृदय से
सिरिी परराथररना नहीं िनकल पाती है तो कम से कम ऐसे-वैसे ही परराथररना करो, धीरे-धीरे
वह भी सिरिी बन जाएगी।
हलरकी कामनाओं को िनकालने के िलए अिरछी कामना करनी िािहए। जैसे काँटे से
काँटा िनकलता है, वैसे ही हलरकी वासना और हलरके कमोररं से अपने िदल को पिवतरर
करने के िलए अपने िदल को अिरछे कमरर में लगा दो। हलरकी आदतें दूर करने के िलए
अिरछी आदतें, देवदररशन की आदतें डाल दो, अिरछा है। संसार आँखों और कानों से
भीतर पररवेश कर अशांितपैदाकरता है, इसकी अपेका िगवान केशीिवगह को देखकर उसी को िीतर पवेश कराओ ,
अिरछा है। भगवान के परयारे संतों के विन सुनकर उनका ििंतन-मनन करो तो जैसे
काँटे से काँटा िनकलता है ऐसे ही सतरसंग से कुसंग िनकलता है। सुदररशन से कुदररशन का
आकिररण िनवृतरत होता है। यिद कुदररशन हट गया तो सुदररशन तुमरहारा सरवभाव हो जाएगा।
भगवान केदरर न सेमोह हो सकता हैलेिकन भगवान केसतरसंगसेमोह दूर होता है। दरर न सेभी सतरसंगऊँिाहै।
सतरसंग मनुिरय को सतरयसरवरूप परमातरमा में पररितििरठत कर शांतसरवरूप परमातरमा का अनुभव
कराता है।

सतरसंग आनरतिरक आराम, आंतिरक सुख व आंतिरक जरञान की जरयोित जगाता है।
दीपक की जरयोित गमरर होती है जो वसरतुओं को जलाती है लेिकन भीतर के जरञान की जरयोित
जब सदगुर पजविलत कर देते है तो वह वसतुओं को नही वरन् पाप ताप को जलाकर अजान और आवरण को िमटाकर
जीवन मे पकाश लाती है, शांित और माधुयरर ले आती है।
िजनकेहृदय मे वह अचल शाित पगट हईु है उनकी आँखो मे जगमगाता आननद , संतपरत हृदयों को शांित
देने का सामथरयरर, अजरञान में उलझे हुए जीवों को आतरमजरञान देने की उनकी शैली
अपने-आप में अिदरवतीय होती है।
ऐसे पुरिू संसार में जीते हुए लाखों लोगों का अनरतःकरण भगवदाकार बना देते
हैं। आप भी ऐसा करने में सकरिम हो सकते हैं बशतेरर आप सतरसंग के सहारे िदलमंिदर
में जाने का पररयास करें तो। आपके जीवन में कोई सुखद घटना घटे या दुःखद, आप
अपने ही जरञान का सहारा लीिजये।
एक बहुत अमीर सेठ थे। एक िदन वे बैठे थे िक भागती-भागती नौकरानी उनकेपास आई
औ र कहन ल े गीः
"सेठ जी ! वह नौ लाख रूपयेवाला हार गुम हो गया।"
सेठ जी बोलेः "अिरछा हुआ..... भला हुआ।" उस समय सेठ जी के पास उनका
िर शर तेदार बैठा था। उसने सोिाः बड़ा बेपरवाह है!
आधा घंटा बीता होगा िक नौकरानी ििर आईः
"सेठ जी ! सेठ जी ! वह हार िमल गया।"
सेठ जी कहते हैं- "अिरछा हुआ.... भला हुआ।"
वह िर शर तेदार परर शर न
करता हैः"सेठजी ! जब नौ लाख का हार चला गया तब िी आपन क े हािक
'अिरछा हुआ.... भला हुआ' औ र ज ब िम ल ग य ा त ब ि ी आ प कह र ह े ह ै 'अिरछा हुआ.... भला हुआ।'
सा करयों?"
सेठ जीः "एक तो हार िला गया और ऊपर से करया अपनी शांित भी िली जानी िािहए ?
नहीं। जो हुआ अिरछा हुआ, भला हुआ। एकिदन सब कुछतो छोड़नापडे ़गाइसिलएअभी सेथोड़ा-थोड़ा छूट
रहा है तो आिखर में आसानी रहेगी।"
अंत समय में एकदम में छोड़ना पड़ेगा तो बड़ी मुसीबत होगी इसिलए दान-पुणरय करो
तािक छोडन क े ी आद त प ड े त ो मर न क े े ब ादइनचीजोकाआकषथणनरहेऔरिगवानक
दान से अनेकों लाभ होते हैं। धन तो शुदरध होता ही है। पुणरयवृिदरध भी होती है और
छोड़ने की भी आदत बन जाती है। छोड़ते-छोड़ते ऐसी आदत हो जाती है िक एक िदन जब
सब कुछ छोड़ना है तो उसमें अिधक परेशानी न हो ऐसा जरञान िमल जाता है जो दुःखों से
रकरिा करता है।
िर शर तेदार ििर पूछता हैः"लेिकन जब हार िमल गया तब आपने 'अिरछा हुआ.... भला हुआ' करयों
कहा ?"
सेठ जीः "नौकरानी खु थी, सेठानी खु थी, उसकी सहेिलयाँ खुश थीं, इतन स े ारेलोग
खुश हो रहे थे तो अिरछा है,..... भला है..... मैं करयों दुःखी होऊँ? वसरतुएँ आ जाएँ या िली
जाए ल ँ े ि क न म ? मैं
ैअपनिे दलकोकयोदः
तो यहु खीकर
जानता ँ हूँ िक जो भी होता है अिरछे के
िलए, भलेकेिलएहोता है।
,
,
मेरे पास मेरे सदगुरू का ऐसा जरञान है, इसिलए मै बाहर का सेठ नही, हृदय का भी सेठ
हूँ।"
हृदय का सेठ वह आदमी माना जाता है, जो दःुख न दःुखी न हो तथा सुख मे अहक ं ारी और लमपट न
हो। मौत आ जाए तब भी उसको अनुभव होता है िक मेरी मृतरयु नहीं। जो मरता है वह मैं नहीं
औ र ज ो म ै हू ँ उसकी किी म ौ त न ह ी ह ो त ी।
मान-अपमान आ जाए तो भी वह समझता है िक ये आने जाने वाली िीजें हैं, माया
की हैं, िदखावटी हैं, असरथाई हैं। सरथाई तो केवल परमातरमा है, जो एकमात सतय है, औ र व ह ी
मेरा आतरमा है। िजसकी समझ ऐसी है वह बड़ा सेठ है, महातरमा है, योगी है। वही बड़ा
बु
िदरधमानहैकरयोंिक उसमेंजरञानका दीपक जगमगा रहा है।
संसार में िजतने भी दुःख और िजतनी परेशािनयाँ हैं उन सबके मूल में बेवकूिी
भरी हुई है। सतरसंगसेवह बेवकूिी कटती एवंहटती जाती है। एकिदन वह आदमी पूरा जरञानीहो जाता है। अजुरनको र
जब पूणथ जान िमला तब ही वह पूणथ संतुष हआ ु । अपन ज े ी व न म ेिीवहीलकयहोनाचािहए।

श ि िरठ"जीकहतेहैः
हे राम जी! श सुमेरू पवररत के िखरतक गंगा का पररवाह िले और
ििर रूक जाए तो उसके बालू के कण तो शायद िगने जा सके लेिकन इस जीव ने िकतने
जनम िलये है, िकतनी माताओं के गभोररं से बेिारा भटका है उसकी कोई िगनती नहीं। अगर
उसे सदगुरू िमल जाएँ, परमातरमा मेंपररीितहो जाएऔरपरमपद की पररिपर ा तहो जाएतो यह जीव अिल शांितको,
परमातरमा को पा सकता है। इस पररकार यिद हमअपनेहृ दयमंिदर मेंपहुँिकर अनरतयाररमीई शरवरका जरञ-ान पररापतर कर लेंतोििर
माताओं के गभोररं में भटकना नहीं पड़ता।
सुख-शांित को खोजते-खोजते युग बीत गये हैं। तुम घर से उतरसािहत होकर
िनकलते हो िक इधर जाएँगे..... उधर जाएँगे लेिकन जब वापस लौटते हो तो थककर
सोिते हो िक कब घर पहुँिे.... कब घर पहुँिे ? हो गया, बहुत हो गया.....
आदमी अपने घर से िनकलता है तो बड़े उतरसाह से, परंतु लौटता हैतो थककर ही लौटता
है। कहीं भी जाये लेिकन अनरत में घर आना ही पड़ता है। ऐसे ही जीवातरमा िकतने ही
शरीर में िला जाय, अंत में जब तक आतरमा-परमातरमारूपी घर मेंनहींआएगातब तक उसेपूणररिवशररांित
पररापतर नहींहोगी।
होटल िाहे िकतनी भी बिढ़या हो, धमररशाला में िाहे मुिरत में रहने को िमले
परंतु अपनेघर तो पहुँिना ही पड़ता है। ऐसेही शरीररूपी होटल िाहेिकतनी भी बिढ़यािमल जायेअथवा शरीररूपी
सराय िकतनी भी सुनरदर और सुहावनी िमल जाए ििर भी इस जीवातरमा को अपने परमातरमारूपी
घर में पहुँिना ही पड़ेगा। इस जनरम में पहुँिे या दस जनरम के बाद पहुँिे, दस हजार
जनम केबाद पहँच ु े या दस लाख जनम केबाद , चाहे करोडो जनमो केबाद पहँच
ु े ..... पहुँिना तो वहींपडे़गा।
ॐ......ॐ......ॐ.......
कबीर जी रामानंद सरवामी के ििरय होना िाहते थे। उन िदनों काशीमें रामानंद
सरवामी अपने राम को सवररतरर देखनेवाले महापुरूि के रूप में िवखरयात थे।
ऐसा जरञान उन महापुरूि को था। ऐश से महापुरूि का ििरय होना बड़े सौभागरय की बात है।
िजसे आतमा-परमातरमा केएकतरव का जरञानहैऐसेसदगुरू की पररिपर
ा तसहज संभवनहींहै।
िजसकेहृदय मे ऐसा अनुिव पकट हआ ु है , से महापुरूि का ििर य होने का सौभागरय कबीर जी
चाहते थे परत ं ु उन िदनो जात-पाँत, छुआ-छूत का पररभाव अिधक था। कबीर जी ने एक रात को घास-िूस
की दीवार खड़ी कर उसमें दरवाजे जैसा थोड़ा-सा सरथान आने-जान क े े ि ल येछोडिदयाऔररात
में उसी सरथान से सटकर घाट की सीढ़ी पर लेट गये। बररहरममुहूतरर के समय रामानंद
सरवामी लकड़ी की खड़ाऊ पहने घाट की सीिढ़याँ उतरते हुए सरनान के िलए आने लगे।
जयो ही उनहोन द े र व ा ज ा प ा र ि क य ा उ न क े 'अरे
चरणले टेहएुकबीरजीकीछातीपर
राम.... राम....' कह बैठे।
कबीर जी को तो िरण सरपररश भी हो गया और राम नाम की दीकरिा भी िमल गई। कबीर जी
जुट गये राम-राम जपने में। मंतरर जाप से उनकी सुिुपरत शिकरतयाँ जागृत हुई और कबीर जी की
वाणी माधुयररयुकरत पररभावशश ाली होकर जरञान से पररका ि त ह ो ग ई ।होनाभीथीकरयोंिकिसदरध
पुरि
ू दरवारापररदतरतमंतररका जप कबीर जी नेलोभ विवकार छोड़करिकया था।
कबीर जी की वाणी सुनकर कई लोग आकििररत हुए। एक िदन उनरहें काशी के पंिडतों ने
घरे ही िलया िकः "तू िनगुरा है, उपदेश करने लायक नहीं है ििर करयों सतरसंग करता है ?
हमारे पास भीड़ नहीं और तेरे पास भीड़ बनी रहती है ! हमने िार-चार वेद रटे , 48 विरर हो
गये रटते-रटते, कौन-सा मंतरर, मंडल, बरराहरमणव ऋिि का उलरलेखिकस पृिठपर र हैऔरकौन सी ऋिा
कहाँ की है यह हम बता सकते हैं लेिकन हमारे पास कोई शररोता बैठता ही नहीं। हमारी
यह हालत हो रही है िक 11 लोग बोलनवेाले और मात 12 लोग सुनन व े ा ल े ह ो तेहैऔ, रतूसिेदकपडोवाला
तानाबुनी करन वेाला, बेटा-बेटीवाला, गृहसरथ आदमी और तेरे पास इतने लोग सतरसंग सुनने आते
हैं ! तुम िनगुरे आदमी कथा बनद करो तािक हमारी गाहकी चले।"
कबीर जी कहते हैं- "मैं िनगुरा नहीं हूँ, सगुरा हूँ। मेरे गुरूदेव हैं। गुरूदेव की
कृपा के िबना जरञान भला कैसे िमल सकता है ?"
पंिडतोंनेपूछाः"कौन है तुमरहारे गुरू ?"
कबीरजी कहते हैं- "पररातःसरमरणीय पूजरयपाद रामानंदभगवान मेरेगुरदू ेवहैं।"
पंिडत लोग 'ऐसा नहीं हो सकता' कहकर रामानंद सरवामी के पास पहुँिे और कहने लगेः
"गुरू महाराज ! आपने तो धमरर का नाश कर िदया। एक यवन को, कबीर जैसे िालतू आदमी को
मंतररदीकरिा दे आये !"
रामानंद जी को तो पता भी नहीं था। वह तो अकसरमात एक घटना घट गई थी। रामानंद जी
बोलेः"भाई ! कबीर कौन ? औ र क ै स ी द ी क ा ? हमने तो नहीं दी।"
अब तो पूरे काशी में िढंढोरा िपट गया िक गुरू सिरिा िक िेला सिरिा ?
रामानंदजी ने कहाः "बुलाओकबीर को । मेरेआमनेसामनेकरो। "
ितिथ तय हईु। नयायालय मे जैसी वयवसथा होती है उसी पकार एक कटघरा रखा गया, एक ऊँिा िसंहासन
बनाया गया। का ी केमूधररनरयिवदरवानपंिडत तथा तमा बीन लोगवहाँएकितररतहुए। न जानेिकतनी आँखेयह देखनेको
उतरसुक थीं िक गुरू सिरिा है या िेला ?
कबीर जी को कटघरे में खड़ा िकया गया। मूधररनरय पंिडतों ने कहाः "यह जलील
आदमी, जो मुसलमान है या जुलाहा यह िी पता नही। इसका कहना है िक मेरे गुर रामानदं सवामी है और रामानदं जी
कहते
श हैं िक मैंने इसे दीकरिा दी ही नहीं। अब गुरू और ििरय आपस में ही अपने सतरय
की वरयाखरया करें।" कबीर जी से पूछा गयाः "तुमहारे गुर कौन है ?"
कबीर जी कहते हैं- "सामने जो िसंहासन पर िवराजमान हैं, पररातःसरमरणीय पूजरयपाद
रामानंद भगवान, ये ही मेरे गुरूदेव हैं।"
रामानंद जी पूछते हैं- "करयों रे ! मैंने तुझे दीकरिा दी है ?"
कबीर जीः "जी हा, गुरूदेव !"
रामानंद जीः "अिरछा ! इिर तो आ तिनक।"
कबीर जी नजदीक आये तो रामानंद जी ने खड़ाऊ उठाकर उनके िसर पर तीन बार दे
मारी और कहने लगेः "राम... राम....राम..... मुझे झूठा बनाता है ! कब दी मैंने तुझे दीकरिा
? राम..... राम.... राम....। " (रामानंदी संतों का सरवभाव होता है बात-बात पर राम-राम कहना।)
कबीर जी रामानंदजी के िरणों में बैठ गये और बोलेः
"गुरूदेव ! गंगा िकनारे दीकरिा दी थी वह अगर झूठी है तो ििर यह तो तो सिरिी है न ?
अब तो हाथ से िसर पर खड़ाऊँ पड़ रहा है और राम..... राम....विन भी िमल रहा है। वह
अगर झूठी थी, यह तो सिरिी है ? वह अगर किरिी थी, यह तो पकरकी है ?"
रामानंदजी बड़े खुश हुए। उनरहोंने कहाः "पंिडतो ! तुम मुझे चाहे कैसा िी मानो लेिकन कबीर मेरा
श ििरय है और मैं इसका गुरू हूँ। तुम िाहे मेरे पास आओ, चाहे न आओ।"
ही

! ,

अब मेरा कबीर का पकरका नाता हो गया है।"


कबीर पंिडतों की ओर देखकर मुसरकराये। मार खाकर भी िसदरध पुरूिों की मांतररी
दीकरिा िमले तब भी बेड़ा पार हो जायेगा।
िकसी जेल में एक धमाररतरमा आदमी गया और देखा िक बेिारे कैिदयों को रूखी
सूखी रोटी िमलती है। सदा ही ये बैंगन-आलू की सबरजी व बाजरे की ही रोटी खाते हैं। उसे
दया आई तो उसने जेल में भंडारा कर िदया। कैदी बड़े खुश हुए की वाह !
कुछ िदन बाद एक दूसरा धमाररतरमा गया। उसने देखा िक इन बेिारों को गमरर पानी
पीना पड़ता है। गमीररकेिदन हैं। शकरकरव बिररकेपासररलमँगवाकर उसनेशबररत बनवाया औरसबको जी भरकर शबररत
िपलाया। कैदीबडे ़खुश हुए।
सिदररयों के िदन आये। तीसरा सेठ जेल में गया और देखा िक ठंड के मारे
बेिारेकैदीिठठुरतेरहतेहैं। उसनेिकसी को सरवेटरिदया, िकसी को कंबल, िकसी को शाल व िकसी को
जुराब िदये। कैदी खुश होकर आशीवाद देन ल े गे।
चौथा आदमी गया िजसन न े तो ं ारा िकया, न शबररत िपलाया और न कपड़े बाँटे। उसके हाथ
िड
में तो िाबी थी जेल की। उसने िाबी देकर कहाः "ताला खोलो और मुकत हो जाओ।"
अब बताओ, पहलेआदमी का भंडारा जोरदार हैया दूसरेआदमी का शबररतअथवा तीसरेआदमी केशाल -
कंबल या िक िौथे आदमी की कुँजी ? मानना पड़ेगा िक कुँजी ही सबसे बिढ़या िीज है।
ऐसे सदगुरू भी कुँजी देते हैं। जीवातरमा को 84 लाख जनमो से छुटी करकेपरमातमा से मुलाकात करा देने
की कुँजी का नाम दीकरिा है।
, ।
,
मनुिरय सिमुि में महान से भी महान हो सकता है करयोंिक उसका वासरतिवक संबंध
महान से महान अकाल पुरूि से जुड़ा है। जैसे कोई भी तरंग सड़क पर नहीं दौड़ती, पानी पर
ही तरंग दौड़ती है, ऐसे ही तुमरहारा मन िैतनरय अकाल पुरि ू की सतरता से ही दौड़ता है और
िविार करता है, इतन ि े न क टसथहोतुमपरमातमाके।
जो आद स ् ,त्यु है गों-युगों से सतर है, अब भी सतर है और बाद में भी सतर रहेगा। उस
सतरयसरवरूप का जरञान देने वाले सदगुरू िमल जाएँ..... उनसे पररेम हो जाये.... बस।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
अनुकररम

मनुिरय यिद अपने परराणों को खिरर न करते हुए उनरहें बिाने का उपाय सीख जावे तो
उसे अनेकानेक िमतरकारी लाभ होने लगेंगे। हमारे परराणों का पररवाह 12 अंगुल तक
चलता है। यिद इस पवाह को 11 अंगुल तक ही कर िदया जाय तो पररसनरनता, पटुता, सहजता आिद गुण
पररकट होतेहैं। यिद 10 अंगुल तक उसका पररवाह िले तो न पढ़े-िलखे शासतो का रहसय नजर मात से उस
वरयिकरत के सामने पररकट होने लगते हैं। वह जो बोलेगा, वह शासरतरर बन जायेगा। ऐसी
योगरयताएँ िजनमें िवकिसत हैं, उनरहें मैं जानता हूँ। आप लोगों ने भी ऐसे वरयिकरतयों
को देखा ही होगा। सरकूली िवदरया तो उनकी नहीं के बराबर है। तीन दजेरर या दो दजेरर तक ही
पढे -़बडे
़होनेकेबाद भी वेजब बोलतेहैंतो बडे ़िवदरवानउनकेसमरमुख नतमसरतक हो जातेहैं। यह मातररसाँसदो अंगुल तक
िनयंितररत होने से ही हो जाता है।
तीन अंगुल तक सास िनयिंतत हो जाए अथात् उसका पवाह 9 अंगुल तक ही िले तो किवतरव शिकरत
का परराकटरय होता है जो महामूखरर में से महाकिव कालीदास और वािलया लुटेरे में से
वालरमीिक ऋिि का पररादुभाररव कर सकती है।
यही पररवाह यिद िार अंगुल तक िनयंितररत होकर आठ अंगुल पर ही शरवासोिरछरवास की
िकररया िले तो पररकृित के रहसरय सरवतः खुलने लगते हैं। ऐसी-ऐसी िवदरयाएँ हैं भारत के
पास।
कुणरडिलनी योग की िवदरया भी आतरमवेतरता महापुरूिों दरवारा आिदकाल से अपने
स ि त र ि र य ो ं क ो प र श,र िविार
दानकीजातीरहीहैं।अपन
करने की शिकरत जहाँ से आती है, वह कुणरडिलनी शिकरत सुिुपरत पड़ी है। उसका थोड़ा सा ही
अंश हम उपयोग में ले पाते हैं। यिद उस कुणरडिलनी शिकरत को जगाने वाला कोई सदगुरू
िमल जाय तो हमारा सरवासरथरय तो सुधरेगा ही, बुरी आदतेंहमेंछोड़नीनहींपडे ़ंगी, छूट जाएँगी। हमें
अशांित िमटाने के िलए ििर कहीं जाना नहीं पड़ेगा। उस िवदरया का थोड़ा-सा पररसाद यिद
कोई सदगुरू धरयान कराते-कराते िनगाहों से बरसा दें तो भी हमारा काम बन जाय। उस
िनगाह को कहते हैं- नूरानी िनगाह।

ररीकृिरण के पास थी यह िवदरया। बंसी बजाते हुए वे तिनक सा आँखों से हँस देते
तो सामन व े ालेकेद,ःुशखोक व ििनरता गायब हो जाती थी। समथरर योिगयों में यह शिकरत िनिहत
होती है। एक बार जो उनकी नजर में आ जाता है ििर वह िाहे शरीर से बार-बार उनसेन भी
िमले लेिकन मन से बार-बार उन संतको यादिकयेिबना वह नहींरह सकता है।
रामकृिरण के पास भी थी वह िवदरया। िववेकानंद आये रामकृिरण के पासः "गुरूजी ! आप
मुझ पर कृपा कीिजये।"
रामकृिरण ने कहाः "अिरछा, चलो कमरे मे।" रामकृिरण ने हाथ पकड़े और छाती पर सरपरर
करते हुए उस िवदरया को संकलरप कर िदया तो नरेनरदरर में वह शिकरत जागृत होकर इतनी अिधक
िवकिसत हुई िक सुना है, खेतड़ी के महाराजा सरवागत करते समय रथ में से घोड़े
छोड़कर सरवयं रथ में जुतकर िववेकानंद का रथ खींिते थे। उस समय कैसा वातावरण
रहा होगा......।
सदगुरू की कृपा से यिद तुमरहें इस िवदरया का तिनक-सा भी अंश िमल जाए तो देर सवेर
आप अपने संकलरपानुसार अपनी मनिाही मंिजल पर पहुँि सकते हैं। इसे कुणरडिलनी
िवदरया अथवा संपररेकरिण िकरत िवदरया कहते हैं।
नरेनरदरर को रामकृिरण की यह िवदरया िमली तो नरेनरदरर इसी में लगे रहे। और कोई
होता तो नौकरी धंधे में लग जाता लेिकन नरेनरदरर उसी में लगे रहे और उस िवदरया की
वृिदरध का ही यह िमतरकार है िक खेतड़ी के महाराजा अपने हाथों से गुरू महाराज का
सरवागत करते हैं।
यह िवदरया कहीं पढ़ाई नहीं जाती है। बात-बात में, आँख के पलकारे में, वह दाता
सहज ही दे डालता है और लेने वाले को पता भी नहीं िलता। ऐसी है यह िवदरया।
यह िवदरया उतनी ही अिधक पनपती है िजतनी िकसी सतरपातरर को पररापरत होती है और
कुपातरर को तो िमलते ही िबखर जाती है। महापुरूि देते तो सबको खुलेआम हैं लेिकन
सतरपातरर के पास िटकती है और कुपातरर से िबखेर देता है, ठीक उसी तरह जैसे िक सरवाित
नकरितरर की बूँद सीप में पड़ती है तो मोती बन जाती है और डामर की काली सड़क पर पड़ती
है तो िबखर जाती है। ििर भी डीजल-गोबर के दाग धोती हुई वह सड़क को एकदम साि कर
देती है। ऐसा ही गुरूदेव की कृपा का भी है। सतरपातरर पर गुरूकृपा बरसेगी तो उसे ही हीरा
बना देगीलेिकन कुपातररपर भी वह कृपादृििरटपड़ती हैतो उसकेसारेपाप -ताप िुल जाते है तथा उसकेहृदय मे िी शाित
औ र आ न दं की झ लक े आ न ल े ग त ी ह ै । ऐ स ीह ै य ह आ त म िवद ा।य
िवदरया-पररितिवदरयाएँहोती हैं.....
जानश े र महाराज आतमिवदा मे िनपुण थे और चागदेव लौिकक िवदा पढकर योगिवदा सीखे। ििर उनहोन धेयान
लगाकर देखा िक इस समय िरती पर ऐसा कौन बहजानी संत है जो मुझे आतमिवदा का दान दे सके। आतमिवदा का दान
देने वाला महापुरूि कभी-कभी, कहीं-कहीं पर ही होते हैं। कभी-कभी तो सैंकड़ों विरर बीत
जाते है ििर िी समाज मे वे महापुरष नही िमल पाते है।
चागदेव योगबल से देखते िक िरती पर वे महापुरष अिी िी है िक नही, िजनसे मुझे बहिवदा िमलन व े ालीहै।
यिद िाँगदेव को ऐसा कोई महापुरूि नजर नहीं आता तो वे अपनी आयु 'िरनरयू' करवा लेते।
ऐसा करते-करते वे 1400 विरर िजये। ििर जरञाने शर वर महाराज अवतिरत हुए।
जानशे र महाराज अवतिरत हएु। जानश े र महाराज जब 22 विरर के हुए तब िाँगदेव महाराज 1400 विरर
के थे।
चागदेव न अ े ,व
पनसे श
ंकीकरण
लपशिकतसे
िवदरया के बल से शेर के ऊपर संकलरप कर िदयाः
"वश में हो जा" तो वह वश मे हो गया। वे बैठ गये शेर पर और िवषिर को पकड कर उसका चाबुक बनाया। वह
िविधर है, जहररपी अंगार उगल रहा है ििर िी उनकेआगे वह िवषिर पला हआ ु सा है। यह पाणशिकत का पिाव
है।
ं तहो तो देव, यकरि, गंधवरर, िकनरनर हाथ जोड़कर आपके आगे खड़े हो
परराणशिकरतिनयितरर
सकते हैं, यह ऐसी िवदरया है। कुणरडिलनी शिकरत जागृत हो जाए और मनुिरय इसमें लगा तो
सृििरट में ऐसी कोई िीज नहीं है जो उस योगी को अपररापरय हो। वह लाखों मील दूर अपने
भकरत को मदद कर सकता है। अपने ििरय की रकरिाकर सकता है। दूरदररशन , दूरशररवण उसका सहज साधरय हो
जाते है। पकृित केरहसय उसकेसमक खुले होन ल े ग त े ह ै । ि ज स कोकुणडिलनीयोगिवदामेतिनक
है वह देवताओं की िनिधयों को देख सकता है, दादूरी िसिदरध उसे पररापरत हो जाती है।
यकरििणयाँ आिद उसके िरणों की दासी बन जाती हैं। कामांगनाएँ उससे पररभािवत होकर
उसकी सेवा में लगने को ततरपर रहती हैं। मातरर मूलाधार और सरवािधिरठान केनरदरर ही
िवकिसत हो तो उस योगी की इतनी सारी योगरयता िवकिसत हो जाती है।
कहते हैं िाँगदेव महाराज शेर पर सवार होकर, िविधर का िाबुक बनाकर, अपने
हजार से भी अिधक िुने हुए ििरयोंको साथ में लेकर पूना के पास आलंदी की ओर

जानशे र महाराज से िमलन च े ल े । जानश 22
े रमहाराजकीउमअिी
विरर की ही है ििर भी वे गुरू हैं और
चागदेव महाराज 1400 विरर के हैं, श ििर भी उनके ििरय हैं। गुर22 ू विरर का और िेला 1400 विरर
का। यह आतरमिवदरया की मिहमा है। अिरटावकरर 12 विरर के हैं। िठंगना शरीर, काली काया,
शरीर में आठ मोड़ हैं ििर भी िवशाल काया, िवशश ाल राजरय के धनी राजा जनक ििरय बनकर
उनसे आतरमिवदरया का उपदेश पाते हैं।
अजुररन आजानुबाहु था। सरवगरर में जाने की िवदरया तो थी उसके पास लेिकन
आतरमिवदरया में वह ननरहा था। शररीकृिरण ने जब उसे उपदेश िदया और भगवदर गीता उसे
आतरमिवदरया के रूप में िमली तब अजुररन शोकरिहत हुआ, मोहरिहत हुआ और उसने कहाः

'हे अिरयुत ! आपकी कृपा से मेरा मोह निरट हो गया है और मैंने सरमृित पररापरत कर
ली है। अब मै संशय रिहत होकर िसथत हूँ। अतः आपकी आजा का पालन करँगा। '
(गीताः 18.73)
हनुमान जी के पास अिरटिसिदरध और नविनिध थी। वे छोटे भी बन जाते थे और बड़े
भी हो जातेथे। िकसी की परीकरिालेनीहो तो संकलरप मातररसेबरराहरमणका रू प भी बना लेतेथे। इतना सामथरयररहोनेकेबाद
भी उनरहेंरामजी का सेवक करयोंबनना पड़ा? इसिलए की रामजी केपास बहिवदा है। रामजी न व े ि श षजीकेचरणोमे
बैठकर 16 विरर की उमरर में ही बररहरमिवदरया पाकर बररहरमसरवरूप का साकरिातरकार कर िलया था।
यह िवदरया किठन नहीं है लेिकन िजनरहें किठन नहीं लगती, से महापुरूिों का
िमलना किठन है। ऐसे महापुरि ू िमल भी जायें तो ििर इस िवदरया को पाने की ततरपरता रखने
वाले ििरय की मुलाकात होना किठन है।

िकरितको मातररसातिदन मेंहीिमल गई थी यहिवदरया। सरकूलीिवदरयापूरी करना हो तो 10 विरर िािहये।
परी
सरनातक होना हो तो 14-15 विरर िािहए। अनुसरनातक होना हो तो 16-17 विरर िािहए। लेिकन इस
िवदरया में तो 17 विरर भी कम हो सकते हैं और 17 िदन भी अिधक हो सकते हैं। पाने की
तडप और िदलान व े ा ल े क े स ा मथयथ, महीनों
परयहिवदािनिथ
औररविोरर
करतीहैं।पर
िदननहीं। केवल
खाने
श वाले की भूख और िखलाने वाले के सामथरयरर पर आ ि र र तहैयहिवदरया।
िखलानेवाला दाता हो और भूखा खुद हो तो काम बन जाता है।
इस िवदा की पािपत केिलए जररी है सदगुर का सािनधय। जप , धरयान आिद उसमें सहायक हैं।
बररहमरमुहूतररमेंमनुिरय आतरमििनरतन करे, भजन करेऔरआतरमिवदरयापानेका संकलरप करेतो उसका मन शीघररही
उसके अिधकार को पा लेगा। आतरमिवदरया को पररापरत महापुरूिों के दररशन के संबंध में
कबीर जी ने कहा हैः

सपरताह में भी संतदररशन नहीं कर सकते तो पकरि-पकरिमेंकरें। पा िकरिकदरर न भी नहींकर सकते


हैं तो मास-मास में कर लें करयोंिक आतरमिवदरयापररापरत संतों के दररशन से हमें
आतरमिवदरया की पुणरयाई तो िमलती ही है, शांित भी िमलती है और हममें आतरमिवदरया की

योगरयता िवकिसत होती है। अिरटावकरर जैसे कोई गुरू और जनक जैसा कोई ििरय िमल जाए तो
यह िवदरया जलरदी पररकट हो जाती है। इस िवदरया को पाने के िलए िजतनी तड़प होगी, रीर
उतना ही संयमी होगा, मन संसार के आकिररणों की ओर उतना ही कम दौड़ेगा। िलतः मनुिरय
की मित उतनी ही िदवरय बनेगी।
कभी-कभी तो इस िवदरया के अिधकारी िपछले जनरम से कुछ यतरन िकये हुए भी होते
हैं और कभी-कभी इस िवदरया को आने वाले इसी जनरम के अिधकारी भी होते हैं, जैसे िगवान
बुदध।

किपलवसरतु के पड़ौसी राजा दंडपािण की कनरया गोपा के साथ िसदरधाथरर का िववाह हुआ
था। दस विरर तक गोपा ने अपने पित िसदरधाथरर के साथ, जो बाद मे बुद हएु, सुखमय जीवन वरयतीत
िकया। गरयारहवें विरर में वह गभररवती हुई और सगभाररवसरथा के दौरान उसे अलग-अलग
िदनों में तीन सरवपरन आये।
एक िदन पहला सरवपरन आया िक शरवेत सांड है िजसके मसरतक पर मिण है और वह
सांड नगर के दरवार की ओर मदमसरत हुआ जा रहा है। इनरदरर मंिदर से गोपा को धरविन िमली
औ र व ह घ ब र ा ई हईु स व प म े ह ी िसद ा थथ क े ग ल े िल पट ग ई। व ह स ा ड व ा पस िनकल ग य ा
औ र कहत ा ग य ा िक म ै ज ा र ह ा हू । ँ ग ो प ा को स व प म े ह ी अ नु िू ित हईु िक ऐश यथ औ र यश
मानो िला गया हो।
गोपा ने दूसरा सरवपरन देखा िक िार महापुरूि गणों के साथ नगर में आ रहे हैं।
चादी केतार और मिण से गूँथी हईु सुनहरी पताका है लेिकन वह पताका िगर पडी है। नि से सुमन की वृिष हो रही है।
गोपा ने तीसरा सरवपरन देखा िक िसदरधाथरर अिानक गायब हो गये हैं। अपनी माला
अब साँप बन गई है। उि ! पैरोंसेपायलिनकल पड़ीहै, सरवणरर कंगन िगर पड़े हैं, के के सुमन
धूिल में समा गये हैं।
शरवेत सांड, पताका आिदसब लकरिणइस बात का आभास करा रहेहैंिकिसदरधथरर ा गायब हो गयेहैं, पलायन हो
गये हैं। गोपा घबराई।
िसदरधाथरर जब पररातः उठे तो उनके समरमुख गोपा ने सरवपरन की बात कही। िसदरधाथरर
पूवररजनरमकेअभरयासी थे। भोग तो उनरहेंऐसेही मुिरत मेंिमलेथे।िपछलेजनरमोंका पुणरय था इसिलएइस जनरम मेंभी भोग
सुख जनरम से ही िमला लेिकन भगवान सदा अपने भकरतों को भोगों में पड़ा रहने देना
नहीं िाहते हैं बिलरक उनरहें ऊपर उठाकर सतरसंग और साधना की तरि ले जाते हैं।
िसदरधाथरर ने अपनी पतरनी को सांतरवना दी लेिकन सुिप ु रत वैरागरय जागृत हुआ और
िसदरधाथरर िल पड़े। पित के जाने के बाद गोपा भी तपसरया में लग गई और परराथररना करने
लगी िकः "हे पररभु ! मेरे पितदेव तपसरया करने गये हैं। उनकी तपसरया में अपरसराएँ दुिवधा
उतरपनरन न करें.... कािमिनयाँ उनकी तपसरया में िवघरन पैदा न करें। मैंने उनके साथ
पािणगररहणिकया है। मैंउनकी अदरध िंगनीहूँ। उनकेिवकास मेंमेराभीिवकास है। "
ारर
पित की भलाई केिलयेइस पररकार केसंकलरप करती हुई गोपा भी तपसरया मेंलग गई।
िसदरधाथरर के पास िजतना वैभव था, आपके पास तो उससे आधा भी नहीं होगा। वे जब
घर छोड़कर गये तब अपने एक मंतररी को साथ ले गये थे िजसका नाम था छनरन। छनरन
देखता है िक िसदरधाथरर वैरागरयवान हैं, वसरतररालंकार उतारकर अब िकीरी वेश में जाना
चाहते है, तब छन कहता हैः "आप सरवामी हैं, मैं सेवक हूँ। उपदेश देना मेरा अिधकार नहीं है
ििर भी उमरर में आपसे बड़ा होने के कारण मैं आपके िहताथरर िनवेदन कर रहा हूँ िक
राजकुमार ! आप जलरदी कर रहे हैं। इन महलों-अटरटािलकाओं, इन हीरे जवाहरातो व राज-वैभव
की तमाम सुख-सुिवधाओं को छोड़कर नंगे पैर आप कहाँ जा रहे हैं राजकुमार ! करया होगा
इससे ? गोपा जैसी सुनरदर, सेवाभावी तथा परछाई की नाईं तुमरहारे साथ िलने वाली पतरनी,
राजमहल, य आिद सुख-सामिगररयों को छोड़कर तुम िकीरी ले रहे हो ! कहीं तुम जलरदी तो
नहीं कर रहे हो ? अगर एक बार तुम सब छोड़कर िकीर हो गये तो दोबारा सुख-साधन की ये

वसरतुएँ जुटाना मु ि र क ल ह ो ज ा येगा।तु! म ऐसा
बहुवैभव
तजलरदसभी
ीकररहेहोराजकु
को मार
नहीं िमलता है। ये तुमरहारे भागरय की िीजें हैं। तुम इनरहें करयों ठुकरा रहे हो ?"
िसदरधाथरर कहते हैं- "छनरन ! ये महल, यह पतरनी, ये हीरे-मोती, ये जवाहरात, तूने
दूर से देखे हैं जबिक मैं इनरहें नजदीक से देख िुका हूँ और अिधकारपूणरर उनका
उपयोग भी कर िुका हूँ। तूने यशोधरा (गोपा) को दूर से देखा है और मैं उसके साथ 10-11
विरर तक जीवन वरयतीत कर िुका हूँ, लेिकन छन ! इन चीजो को हम िकतना समहाल पाएगँे। ये चीजे अपने
शरीर के साथ िकतनी भी जोड़ दो लेिकन जब शरीर ही अपना नहीं तो ये िीजें कब तक
रहेंगी ? मैं जलरदी नहीं कर रहा हूँ अिपतु सिमुि मुझे जलरदी करनी िािहए थी। दस विोररं
तक गृहसथ िमथ मे रहकर गयारहवे वषथ मे बाप बन गया हूँ। ििर ससुर बनूँगा, समधी बनूँगा और ये सब बनते-
बनतेएकिदनिबगड़जाऊँगाऔरमरजाऊँगा। अनाथ होकर मरजाऊँउसकेपहलेमुझेजीवन की सिरिाई का दररशन करने
के िलए िभकरिुक होना जरूरी है।"
छनरन को समझाकर िसदरधाथरर िनकल पड़े।
सात विोररं तक िसदरधाथरर िनरंतर लगे रहे तो बुदरधतरव को पररापरत हुए। जब बोध पररापरत
हुआ तो बुदरध कहलाये छनरन िजस रासरते से छोड़ गया था उससे नहीं, दूसरे रासरते से
बुदधवापस
र अपनेघर आये।
िपता कहतेहै-ं "हमारे खानदान में ऐसा कोई बिरिा पैदा नहीं हुआ जो भीख माँगकर खाय
औ र तू र ा ज प ाट ह ो त े हएु ि ी स ािु ब नक र िि क ा म ा ग क र खात ा ह ै !"
र ेः"राजन ! तुमहारा रासता अलग है और मेरा रासता अलग है। मै तुमहारे कुटुमब से गुजरा अवशय हूँ
बुदधबोल
लेिकन हकीकत मे मै तो अनतं जनमो से याता करन व े ा ल ा प ि थ क ह ू। े मोंकीयात
ँ पतयेकजीवअपनक
है। कुटुमरबी बीि में िमल जाते हैं और अनरत में ििर छूट जाते हैं लेिकन ििर जो नहीं
छूटता वह परमातरमा ही सार है, बाकी सबिखलवाड़है।"
बहुत सारेलोग बुदधक
र ेदररशन करनेआयेलेिकन गोपा नहींआई। उसनेसंदेशािभजवायािक मैंआपको
छोड़कर नहीं गई जो मैं आपसे िमलने आऊँ। आप मुझे छोड़कर गये हैं। भले ही आप
लोगो की दिृष मे चाहे िगवान बन गये, बुदधबन र गयेलेिकन मैंतो अभी भी आपको अपनेप ित की दृििरटसेदेखतेहुए
आपकी पतरनी ही हूँ इसिलए आप सरवयं ही मुझसे िमलने आइये।"
गोपा की तपसरया व शुभकामना से पररसनरन होकर बुदरध िभकरिुक-साधु होने के बाद भी
अपनी पतरनी से वाताररलाप करने, िमलने गये लेिकन संसारी पित-पतरनीकी तरहिमलनेनहीं,
जानयुकत वातालाप करन गेये।
पुतररराहुल को गोपा कहती हैः"िपता सेअपनीिवरासत माँगो।"
राहुल कहता हैः "िपता जी! मेरी िवरासत ?"
बुदधकहत
र ेहैः"तेरी िवरासत ! ले यह ििकापात। इससे बडी िवरासत कया हो सकती है ?" उस बिरिे को भी
बुदधन
र ेदीकरिादेदी।
बुदधजानत
र ेहैंिकीरी का माहातरमरय। बुदधजानत
र ेहैंआतरमा का माहातरमरय। बुदधजानत
र ेहैंकरिमा, करूणा व दया का
माहातरमरय। शरीर को िकतना ही िखलाया..... िपलाया.... घुमाया..... अंत में करया ? सारी िजनरदगी
इसकेपीछे लग गई ििर िी बेविा रहा। किी िसर मे ददथ है तो किी पेट मे ददथ है। किी बुढापे की कमजोरी है तो किी
मेले की धकरका-मुकरकी की थकान है।

यह शरीर िकतनी भी सुिवधाओं में रहा, अंत में तो इसका पिरणाम राख है। यह शरीर
राख में जल जाय उसके पहले जीव अगर अपने नाथ से िमल जाय तो उसका नाम है
पुरि
ू थ
ा रर। सा पुरि
ू थ
ा ररकरनेवाला भगवनरनामसेअपना मंगलकर सकता है।

भगवनरनामकेकीतररनमेंमांगलरय होता है। सुिुपरत कुणरडिलनी शिकरतभी एकिदन इससेही जगती है।
चैतनय महापिु बगंाल मे हिर बोल... हिर बोल...... करते हुए कीतररन करते तो कई बड़े-बडे ़
िदगरगज िवदरवानों ने उनरहें टोका िकः "तुम दशथनशासत और नयायशासत केइतन ब े ड े िुरनिरिवदानहोनक
े े
बाद भी बालकोंकी तरह हिरबोल.... हिर बोल... .कर रहे हो ? हमें देखो ! कैसे
महामंडले शर 1008 वर िव , जगदगु
र वगु रू र होकर बैठे है और तुम हो िक बचचो जैसी तािलया बजा रहे हो। जरा
अपनी इजरजत का तो खरयाल रखो ! इतन ब े डे ?"
ि व द ानहोििरिीऐसाकरते हो
गौरांग ने कहाः "मैंने ऐसा िवदरवान होकर देख िलया। नरयायशासरतरर का बड़े से
बड़ागररनरथ भी पढ़कर देखिलया लेिकन सारीिवदरवतातब तक अनरयाय ही हैजब तक िक मनुिरय नेअपनेआतरमरस को नहीं
जगाया। पृथवी का आिार जल है, जल का आिार तेज है , तेज का आिार वायु है, वायु का आधार आकाश है,
आकाश का आधार महतरततरव है, महतरततरव का आधार पररकृित है, पररकृित का आधार परमातरमा हैऔर
परमातरमा को जानना ही नरयाय है, बाकी सब अनरयाय है।"
गौरांग को िजन िदनों वैरागरय हुआ था उन िदनों िवदरयािथररयों को वे ऐसा ही बताते
थे। करलास के िवदरयाथीरर कहते िकः "यिद आप हमें सा ही पढ़ाएँगे तो परीकरिा में हमें
नंबर ही नहीं िमलेंगे।" तब गौराग कहतेः "परीकरिामेंभलेनंबरनिमलेंलेिकन यह बात समझ ली तो परमातरमा
पूरेनंबरदेगा।"
अपने परमातरमा को जानना नरयाय है, बाकी सब अनरयाय है। िकतना भी खािलया, घूम िलया,
िकतनी भी ितुराई कर ली.... अंत में करया ? तुलसीदास जी कहते है-
,
,
िवजीने
श पावररती से कहाः

'अजी ! हमारी तो िलानी-िलानी दुकान थी...... ििर हमारी िैकरटररी हो गई..... ििर
हमारी ये हो गई वह... वह हो गई....' लेिकन अंत मे देखो तो आँख बनद हो जाएगी िैया ! सब सपना हो
जाएगा।
,
,
इस शरीर की कहानी खतम हो जाए उसकेपहले तुमहारे और परमातमा केबीच का पदा खतम हो जाये , सी
आसाराम की आशा है।
यह पदारर ही हमें परेशान कर रहा है। यह कोई एक िदन में हटता भी नहीं है।
जैसे अनपढ बालक है तो उस पर से अिशका का पदा एक िदन मे हटता नही है। पढते -पढ़ते-पढ़तेवह इतनािवदरवानहो
जाता है िक ििर आप उसे अनपढ नही कह सकते हो। ऐसे ही आतमजानी महापुरषो का सतसंग सुनते -सुनते, सेवा-
सतरकमरर करते-करते, पाप-ताप काटते-काटते, अिवदरया का िहसरसा कटते-कटते जब साधक
बररहमिवदर तरमा का साकरिातरकार हो जाता है। जरञानहोता हैतोििर जीव अजरञानीनहींरहता है,
र यामेंपूणररहो जाता हैतो बररहमपरमा

बररहमर जर
ञानीहो जाता है।
बररहमर जर
श ञानीकी मिहमा व ि ि र ठजीतोकरत, कृिरण जी
ेहीहै
यु
ं दरध के मैदान में बररहरमजरञानी की
मिहमा िकये िबना नहीं रहते।

'जो योगी िनरत


ं र संतुष है, मन-इिनियो सिहत शरीर को वश मे िकये हएु है और मुझमे दढ
ृ िनिय वाला है वह
मुझमें अपररण िकये हुए मन-बु िदरधवाला मेराभकरत मुझकोिपररयहै।'
(गीताः 12.14)
अजुररन के आगे शररीकृिरण बररहरमजरञान की मिहमा गाते हैं। अजुररन पूछता हैः " सा
िसरथतपररजरञ कौन है िजसकी आप पररशंसा कर रहे हैं।"
शररीकृिरण कहते हैं-

'हे अजुररन ! िजस काल मे यह पुरष मन मे िसथत समपूणथ कामनाओं को िली िाित तयाग देता है और आतमा
से आतरमा में ही संतुिरट रहता है, उस काल में वह िसरथतपररजरञ कहा जाता है।'
(गीताः 2.55)
हमारे सनातन धमरर के गररनरथों में तीन पररकार के िसदरधों की मिहमा आती है। एक
जो ििकत से िसद हएु है उन पुरषो एव म ं ि ह ल ा ओं की म ि ह म ाआतीहै।दस
ू रेजोयोगसेिस
है। तीसरे जो जरञान से िसदरध हुए हैं अथाररतर भिकरत करते करते भेदभावरिहत अिभनरन
तततव को पाये है, से िसदरधों की मिहमा आती है।
भकरत औरभगवान मेंही दूरीिमट जाए..... भिकरतका अथररयही है। 'भकरत' अथाररतर जो ई शर वर से
िवभकरत न हो, उसको भकरत कहते हैं। योग का अथरर है जीव बररहरम की एकता। ततरतरवजरञान से
भी कोई आतरमजरञानपा लेताहै। ऐसेतीन पररकार केिसदरधोंकी मिहमा का वणररनहमारेधमररग
ररनरथोंमेंआता है।

'जो पुरष सब िूतो मे देषिाव से रिहत, सरवाथरररिहत, सबका पररेमी और हेतुरिहत दयालु है
तथा ममता से रिहत, अहंकार से रिहत, सुख-दुःखों की पररािपरत में सम और करिमावान है अथाररतर
अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है....'
(गीताः 12.13)
यह भिकरत मागरर के िसदरधों की मिहमा है। .... यह योग मागरर की
मिहमा है। .... आिद शरलोक जरञानमागरर की मिहमा का
बयान करतेहैं।

।।
'जो पुरष समपूणथ िूतो मे सबकेआतमरप मुझ वासुदेव को ही वयापक देखता है और समपूणथ िूतो को मुझ वासुदेव के
अनरतगररत देखता है, उसके िलए मैं अदृ शर य नहीं होता और मेरे िलए वह अदृ शर य नहीं
होता।'
(गीताः 6.30)
जो मुझमे सबमे और सब मुझमे देखता है उससे मै अलग नही और अजुथन ! वह मुझसे अलग नहीं। ऐसा
बररहमर जर
ञानीतो मेराही सरवरूप है। मैंअपनी बात काट लूँगालेिकन उसकी बात पूरी होनेदूँगा, सा वह मुझे परयारा
है।

-
-


।।

इन तीन पकार केिसदो की मिहमा गीता मे तथा अनय िमथगनथो मे आती है। वैसे तो और िी कई पकार केिसद
होते हैं। जैसे िुटकी बजाकर अंगूठी या अनरय कोई वसरतु िनकालने वाले। आम का मौसम
नहीं है ििर भी आम िनकालकर दे देंगे। यहाँ मौसम नहीं है तो करया हुआ, मदररास में तो
है। एक करिण में वहाँ से लाकर िदखा देंगे।
वृनरदावन वाले अखंडानंद सरसरवती जी महाराज अपने साथ नौ अनरय साधुओं को
लेकर िकसी ऐसे ही िसद की िसदाई देखन क े े ि ल ए ग ये थ े ज ो च ुटकीबजातेहीमनचाहीवसतुए
रात के दस बजे थे। उनरहोंने सोिा िक इससे ऐसी कोई िीज माँगे िजसे देने में इसको
जरा िवचार करना पडे।
िसदरध ने सरवागत िकयाः "अिरछा ! संत लोग आये हो। कैसे हो ?"
संतों ने कहाः "ठीक है, महाराज ! आपका नाम सुनकर आये हैं। भूखे हैं, भोजन करा
दो।"
िसदरध ने पूछाः "करया खाओगे ?"
संतजनः "मालपूए खाने की इिरछा है, महाराज !"
िसदरधः "अिरछा ! रात को दस बजे साधुओं को मालपूए खाना है ? चलो, ठीक है।" उसने
संतों को थोड़ा बातों में लगा िदया और अपनी ओर से भीतर जो भी संकलरप करना था, वह
कर िदया। उनरहोंने आका में हाथ घुमाया और दस लोग िजतने मालपूए खा सकें, इतने
मालपूए आ गये। दसों साधुओं ने मालपूए खाए, सरवाद भी आया, भूख भीिमटी औरनींदभी आई। यह
कोई सरवपरन या िहपरनोिटजरम नहीं था, उनरहोंने सिमुि में मालपूए खाये थे।
अखंडानंदजी के ही शबरदों में- "पररातः जब हम लोगमालपूए खाली करने, लोटा लेकर गाव केबाहर
की ओर गये तो देखा िक उधर दो मेहतरानी (हिरजन बाई) आपस में झगड़ा कर रही थीं। एक
बाई दूसरी सेकह रही थीः "तेरी नजर पडती है और मेरी चीजे चोरी हो जाती है। "
दूसरीः "मैं जानती ही नहीं की तेरे मालपूए कहाँ गये। मैंने तो देखे भी नहीं।"
पहलीः "तू झूठ बोलती है, रांड ! कल शादी थी और बाराितयों के जूठन में से तथा इधर
उधर से माँगकर बड़ी मेहनत से मैं दस आदमी भरपेट खा सके, इतनी बडी थाली िर केमालपूए
लाई थी और सारे केसारे मालपूए तसले सिहत गायब हो गये। एक िी नही बचा। तो कया िूत ले गये या डािकन ले गई ?
रांड ! तू ही ले गई होगी।"
साधू बाबा सोिते हैं- 'न यह रांड ले गई न कोई डािकन ले गई। मालपूए तो भूत
उठाकर लाया और हमने खाये। मालपूए तो खाली हो गये लेिकन गरलािन खाली करने में
बड़ापिरशररमलगा। धतरततेरीकी ! यह तो भूत िसिदरध है भाई !'
चुटकी बजाकर यूँ चीज आिद दे देना तो अलग िसिदया है, आतरमिसिदरध नहीं। इससे सामने वाला
पररभािवत तो होगा, थोड़ी देर वाह-वाही करेगा लेिकन िजसकी वाह-वाही हुई वह शरीर तो जल
जायेगा और जो वाह-वाही करेगा उसका भी कलरयाण नहीं होगा। उसे आतरमजरञान और आतरमशांित
भी नहींिमलेगी। आपदेव, यकरि, गंधवरर, िकनरनर, भूत आिदको पूजकर वश मेंकरकेभभूत , िरंग या मालपूए
मँगाकर दो यह तो ठीक है लेिकन इससे ई शर वर का साकरिातरकार नहीं होगा।
अिररीका में नैरोबी से करीब 350 िक.मी. दूर मोंबासा में पुनीत महाराज के भकरतों
का पुनीत भकरत मंडल िलता है। वे गुजराती लोग थे और सतरसंगी थे। उनरहोंने मुझे
बतायाः
"सरवामी जी ! दो-चार िदन पहले िारत का एक डुपलीकेट साईबाबा , भभूतिनकालनेवाला आया था। हमारे
समरमुख भभूत िनकालकर वह अपने िमतरकार का पररभाव िदखा रहा था।"
मैंने पूछाः "ििर करया हुआ ?"
वे बोलेः "बाबाजी ! हम तो सतरसंगी हैं। हमें इन िमतरकारों से, भभूत आिदसेकोई
पररभािवत नहींकर सकता।"
मैंने पूछाः "ििर तुमने करया कहा उसे ?"
वे बोलेः "हमने कहाः बाबा ! आप भभूत िनकालते हैं, ठीक है.... लेिकन इससे तो अचछा
यह है िक िहनरदुसरतान के किरछ में अकाल पड़ा है, वहाँ अपने िमतरकार से जरा गेहूँ
िनकालकर लोगों की भूख िमटाओ। इस भभूत से करया होगा ?"
कहने का तातरपयरर यह है िक भिकरत, योग और जरञान की िसिदरध के आगे अनरय सभी
िसिदरधयाँ छोटी हो जाती हैं। भिकरत भगवान से िमलाती है, योग भगवान में िबठाता है और
जान िगवान केसवरप का साकातकार करा देता है।
कीतररन करते-करते गौरांग (चैतनय महापिु) भगवान मेंइतनेओतपररोतहो गयेिक उनरहेंपता ही नहीं
चला िक मै पगडड ं ी िूल गया हूँ। िाविविोर होकर चलते चलते थे वे िकसी तालाब मे िगर पडे। उनकेपाण ऊपर चढ गये
औ र ि ा व स म ा िि म े त ा ल ा ब म े ह ी प ड े र ह े । दसू र े िद न प ा त ः ज ब म छु आ र ो क े ब च च ो न े
जाल िेका तो उनहोन स े म झ ा ि कक ो ई ब ड ी मछलीआईहै ! अरे, बड
लेिकनजबदे खातोदगंरहगये
़ीमछली-मछला
नहीं, यह तो अिरछा-खासा कोई साधु है !
गौरांग की जाल में से िनकाला, िहलाया-डुलाया तो उनकी भावसमािध उतरी लेिकन
गौरांग का सरपरर होने से उन मछुआरे बिरिों को गौरांग के सािनरनधरय से संकररामक
शिकरत का लाभ िमल गया। वे बिरिे सरवतः ही 'हिर बोल...... हिर बोल.....' करके भाविवभोर
होने लगे। उनके माँ-बाप नेसोिा िक शायद येलड़केबीमार हो गयेहैं। हकीम-डॉकरटरों ने दवाई भी दी
लेिकन कोई असर नही हआ ु । बीमारी होती तो िागती, उनरहें तो जनरम-मरण के पाप को दूर करने वाली,
भिकरतरस की मसरती िढ़ीथी। अनरततः कोई इलाज काम न आया तो उसी बाबा को खोजा गया। गौरांगिमला तो उन बिरिों
के माँ-बाप कहनेलगेः"बाबा ! इन बचचो न त े ु म क ो प ा न ी म े सेिनकाला।तुमहेतोजीवनिम
को बीमारी िमल गई। इनरहें िंगा कर दो, महाराज !"
महाराज ने कहाः "ये तो िंगे हैं और अिधक िंगे होंगे। इनरहें तो मुिरत में
खजाना िमल गया है। इनकी साधना िलने दो, कीतररन िलने दो।

इनको ऐसी चीज िमली है अब घाटा कया है ?" सा समझा बुझाकर उनरहें वापस भेज िदया
लेिकन िनगुरो का िागय िी तो वैसा ही होता है, नासमझों का भागरय मूखररता ही पैदा करता है। दो िदन
बाद वेही मछुआरेवापस आयेऔरकहनेलगेः
"महाराज ! ये भुिकरत-मुिकरत हम नहीं जानते। हमारे लड़के जैसे थे, वैसे कर
दो। 'हिर बोल.... हिर बोल....' करके बैठे रहते हैं। कभी हँसते हैं, कभी रोते हैं तो कभी
रोमांिित होते हैं।"
ये अिरटसाितरतरवक भाव कहलाते हैं। जब महापुरूि की कृपा बरसती है तो मनुिरय में
अिरटसाितरतरवक भाव में से कोई न कोई भाव आ जाता है। अपने आशश ररम में ििवरलगते
हैं तो कनाडा का वैजरञािनक भी आ जाता है, तो िहनदसुतान केसेठ , उदरयोगपित और छोटी मोटी
नौकरी
श िबजनैस करने वाले भी आ जाते हैं। जब उन सबको ििवरमें पररयोग कराते हैं
तो िकसी को पहले िदन रगं लगता है, िकसी को दूसरे िदन, िकसी को तीसरे िदन। िौथे िदन तक तो 95
पररितशत लोगरंगेजातेहैं। बाकी के 5 पररितशत इसिलएऊधरवररगामीनहींहोतेकरयोंिक वेया तो मंदबु
िदरधहोतेहैंअथवा उनके
शरीर में ओज-वीयरर नहीं होता। उनकी परराणशिकरत करिीण हो गई होती है।
मछुआरों से गौरांग ने कहाः "भैया! तुमहारा तो बेडा पार हो जाएगा।"
मछुआरेः "महाराज ! हमारे लड़के जैसे थे वैसे कर दो। 'हिर बोल.... हिर बोल....'
करते हुए िदन भर वे पागलों जैसे नािते-कूदते रहते हैं और आप हैं िक बेड़ा पार
होने की बात नािते कूदते रहते हैं और आप है िक बेड़ा पार होने की बात कर रहे हैं।
जैसे थे वैसे कर दो नही तो ठीक नही रहेगा।"
मछुआरे जो ठहरे !
,
जो जान समझते है उनकेआगे तो हम गुर है , लेिकन जो एकदम जडबुिद है, ठस हैं, उनके आगे तो
भाई ! दास होकर जान छुड़ाओ। कब तक मूखोररं से टकराते रहोगे ? कह दो उनसेः 'चल बाबा ! तू
जो कहता है, ठीक है। जा, मतरथा मत खपा।'
मछुआरे गुराररते हैं- "महाराज ! लडको को ठीक कर दो।"
गौरांग बोलेः "ठीक कर दूँ ? अिरछा, तो इनहे पािपयो केघर का अन िखलाओ। "
वे बोलेः "महाराज ! हम खुद मिरछीमार होने के कारण पापी हैं।"
गौरांगः "ििर भी पिरशररम करते हो, मेहनत करते हो। जो आदमी दान का खाय और
भजन न करे, बरराहरमणहो औरदान का लेताहो लेिकन भजन न करता हो, उसके घर का अनरन िखलाओ। िजसकी
माता मािसक धमरर में हो ििर भी भोजन बनाती हो तथा अतरयिधक पापी िविार की हो, उसके घर
का अनरन िखलाओ। जो अित पापी, अित कामी, कररोधी लोभी, मोही हों, ऐसे लोगों के समरपकरर
में इनरहें िबठाओ तािक भिकरत करिीण हो जाए। ििर ये जैसे थे वैसे हो जाएँगे।
कुछ लोगों के संग में अभकरत भी भकरत होने लगता है और कुछ लोगों के संग में
भकरत भी अभकरत हो जाता है। जैसेिसंहसरथ या कुंभकेवातावरण मेंिकतना ही अभकरत करयोंन हो , भिकरतका रंगउस पर
लग ही जाएगा। चाहे िकतना िी बडा नािसतक हो, दो िार बार सतरसंग के माहौल में आ जाए तो
आिसरतक बन ही जाएगा। लेिकन 25 नािसरतकों के बीि यिद कोई एकाध आिसरतक रहेगा तो
उसे नािसरतक के संसरकार घेर लेंगे।
इसीिलए सािक को जब तक साधय नही िमलता तब तक वह संग करन क े े ि ल ए िवचारकरे, ।कुसग
ं सेबचे
सतरसंग ही करे और सजातीय संग करे। िवजातीय संग करने से साधक की साधना िगरने
लगती है।
साधक जरयों-जयो अचछा संग करेगा तयो-तयो अचछे मे परमातमा का रगं लगेगा। अचछा संग नही िमलता है तो
एकानरत में रहो। एकानरत में नहीं रह सकते हो तो अिरछे अिरछे महापुरूिों के विनों का
ररवण, मनन व ििनरतन करो।
आजकल तो बड़ा सुिवधापूणरर नायलोन युग है। हम लोगों ने तो बहुत पिरशररम िकया तब
गुरू के विन सुनाई पड़ते थे। बहुत मेहनत करते तब कहीं जाकर थोड़ा-बहुत सतरसंगिमलता
था। आजकल तो आप पलंग पर पड़े हैं और अंगूठा दबा िदया तो कैसेट िल पड़ी.... बाबाजी
का सतरसंग िमल रहा है। बाबाजी बोल रहे हैं और आप सो रहे हैं। अिेतन मन में
सतरसंग के संसरकार सरवतः िनिमररत हो रहे हैं। जब जरूरत पड़ी, अंगुली दबाई िक 'बाबा बोलो'
औ र ज ब जररत पड ी , बाबा को िुप कर दो। आजकल केमैकेिनक युग मेंबाबाओंको अपनी अंगुली पर बुलवानेकी
वरयवसरथा हो गई है।
पहलेकेजमानेमेंतो महापुरि ू ोंकेहसरतिलिखत विन बड़ीकिठनाइयोंकेबाद उपलबरध होतेथे। आजकल तो
बाबाजी बोले.... गया पररेस में और सुबह तक तो अखबार बनकर, पुसरतक बनकर आपकेहाथोंमेंआगया ...
जब चाहो तब खोलो पने।
गांधी जी कहते थेः "मुझे दूध िपलाने वाली माँ तो छोड़कर सरवगररवासी हो गई
लेिकन जब मै थकता हूँ, हारता हूँ, संसार की झंझटों में उलझता हूँ तो मैं शांित के िलए
अपनी माँ की गोद खोजता हूँ और वह कोई और माँ नहीं, गीतारूपी माता है िजसका पृिरठ
खोलते ही मुझे ऐसा जरञान िमल जाता है िक मैं उससे सरवसरथ रहता हूँ और इतनी टकरकर
झेलते हुए भी मैं आराम की नींद ले रहा हूँ। यह गीता का जरञान ही तो है।"
......औ र व ह ी ग ी त ा का ज ा न स त सं ग म े स िव स त ा र स ब ल ो ग स म झ सक े तथा िव न ो द ,
आनंद, जान, धरयान लगे ऐसा आप लोगों को भी िमल रहा है। इस युग में जैसे पतन के
साधन आसानी से िमलते हैं, ऐसे ही उनरनित के साधन भी आराम से िमल रहे हैं। उस युग
में राजा-महाराजा राजपाट छोड़कर बररहरमजरञानी गुरूओं को खोजते थे। हमने सात-सात
विरर तक गुरूदेव की आजरञानुसार अमुक-अमुक सरथान पर जीवन-यापन िकया। आप लोगों को तो
इतना कुछ नही करना पड रहा है।
हमारे गुरूजी को जो किरट सहना पड़ा उसका सौवाँ िहसरसा भी मुझे नहीं सहना पड़ा
औ र ह ज ा र व ा िह स स ा ि ी आ पक ो न ह ी सह न ा पड त ा ह ै । िश िव र ो म े आ त े ह ो त ो र स, पूड़ी, हलुवा,
मालपूए आिद खाने को िमलता है। आपका िबगड़ता करया है ? हम तो भाई ! थोड़े से गेहूँ
के दाने, थोड़े से मूँग के दाने िभगोकर रखते और िबा िबाकर खाते। हमारे गुरूजी
छटांग भर कुछ िभगाकर रखते और िबा िबाकर खाते। विोररं तक उसी में लगे रहे तब
उनरहें कहीं साकरिातरकार हुआ। आपको तो िलते-चलते दशथन, सतरसंग आिद िमल रहा है।
"ससरता, अिरछा, अिधक और उधार..... ऐसा भी नहीं बिलरक अिधक मुिरत में और ऊपर से

सब मंगलों से भी अिधक मंगल करने वाला भगवान का कीतररन है। भगवान के नाम
का कीतररन सब मंगलों का भी मंगल है, वरयािधना क , िदवरय और भोग-मोकरि देने वाला
है। यह 'िविरणु धमोररतरतर' गररनरथ का शरलोक है।
भगवान मेंमनलग जाता हैतो ठीक है, अनरयथा भगवान के िलए िल पड़ो। जैसे िक िसदरधाथरर,
उनकी पतरनी दंडपािण की कनरया गोपा जो बाद में यशोधरा के नाम से पररिसदरध हुई। दस विोररं
तक िसदाथथ उसकेसाथ रहे और गयारहवे वषथ मे िपता बन औ े र च ल ि द य े । स ा तवषथतकतपसयामेलगेरह
देखा वह भी सपना हो गया, सात विरर की तपसरया भी सपना हो गया और बुदरध का आतरमा अपना
हो गया।
आपने आजतक जो कुछ सतरसंग में सुना पढ़ा उसका िविार करते-करते उन विनों
को अपने अिधकार में ले आओ अथवा तो परमातरमा के धरयान में तलरलीन हो जाओ....
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

संसार के दुःखों की मार लगने पर साधुताई का जीवन िबताए या ििर िववेक जागृत
होने पर ऐसा जीवन िबताए यह मनुिरय के पररारबरध की बात है। जो पुणरयातरमा है वे िववेक
से जाग जाते हैं और िजसके पुणरय कम हों उसे ठोकरें लगा-लगाकर िी परमातमा उसे जगान क े ी
वरयवसरथा करता है। मरकर तो सभी ने छोड़ा है लेिकन जीते-जी आसिकत छोडनवेाला जीवनदाता के
अनुभव को पा लेता है।
'नारदपंिरातरर' गररंथ में एक शरलोक आता हैः

'राजा को देश तरयागना पड़े, वरयिकरत को अपना घर, गाँव, नगर, दे छोड़ना पड़े,
महारोग हो, बनरधुओंकी ओरसेिवरोध हो, धन की हािन हो, अपमान हो, यह सब अगर एक साथ भी िकसी
वरयिकरत को होने लग जाये तो भी हे नारद ! यह समझ लेना िक उस पर यह भी मेरी कृपा है।
ये मेरे अनुगररह के लकरिण हैं।'
बंगालमेंखुदीराम नामक एक कृिक रहतेथे। वेिजस गाँवमेंरहतेथेवहाँका मुिखया (जागीरदार) ोिक
पररकृित का वरयिकरतथा। िकसी का खेतिगरवी रखकर पैसेदेतातोििर वह खेतही हड़पकर लेताथा।
ऐसे ही िकसी जरूरतमंद आदमी ने अपना खेत उसके पास िगरवी रखकर कुछ पैसे
ले रखे थे। मुिखया न क े ु छ स म य बा द उ सक े ब य ा जऔरमूलिनकेयोगदसहजार
के एक लाख रूपये कर िदये। जब वह आदमी उधार िुकाने आया तो अपने खाते में एक
लाख की रािश देखकर हैरान हो गया।
बात राजदरबार तक पहुँिी। मुिखया नेकहाः
"महाराज ! मैंने तो यह खेत एक लाख रूपये में ही रखा है।"
उस आदमी ने कहाः "नहीं महाराज ! मैंने तो दस हजार में ही िगरवी रखा था।"
राजा ने दोनों को अपने अपने गवाह पेश करने को कहा। खुदीराम के पास वह
मुिखया आया और कहने लगाः
"तुमहारी बात राजा साहब मानते है इसिलए तुम मेरे िलए गवाही दे देना िक अमुक िकसान न म े ु झसे"पैसेिलएहै।
खुदीरामः "पैसेिलयेहै, यह मैंने सुना है, लेिकन िकतन ि े ल य े " नदेेखानही।
हैयहमै
मुिखयाः "लाख रपये िलए है।"
खुदीरामः "इतना तो नही हो सकता।"
मुिखयाः "तुमहे इससे कया मतलब है ? तुमहे तो िसिथ इतना कहना है िक पैसे िलये है , बाकी म
ितरर
ं योंको तो मैं
पटा लूँगा।"
खुदीरामः "मैं जानता हूँ िक मंतररी तुमरहारे घर आते हैं, खाना-पीना करतेहैं। पुिलस के
आदिमयों को भी तुम अंगुली पर निाते हो, मैं जानता हूँ लेिकन परमातरमा के नाम पर झूठी
गवाई देने का पापकमरर तो मैं नहीं करूँगा।"
मुिखयाः "झूठी गवाही कैसे ? उसने पैसे िलए हैं तो बाद में हो जाएगा।"
खुदीरामः "नहीं, मुझसे सा नहीं होगा।"
मुिखयाः "मुझे जानता है मैं गाँव का पटेल हूँ.... आगेवान हूँ.... सवेरर-सवारर हूँ ?
मेरी पहुँि कहाँ तक है तू जानता है ? मुझे इनरकार कर तू कैसे िजयेगा ? कहाँ रहेगा ?"
खुदीरामः "मैं जानता हूँ िक आपसे दु शर मनी मोल लेना याने मौत का आमंतररण
देना लेिकन मौत शरीर को मार डालेगी, मुझ िैतनरय को नहीं। मैं अपने िदल को खराब
नहीं करूँगा। मैं झूठ नहीं बोलूँगा। तुम िाहे कुछ भी कर लो।"
मुिखयाः "देख ! अब उसके पैसे तो मैं बाद में वसूल करूँगा लेिकन पहले तेरी
जमीन और तेरे सारे पैसे वसूल करँगा। "
उस दुजररन ने अपने िडयंतरर को आजमाकर खुदीराम को अपनी सौ बीघा से अिधक
जमीन, जागीरी, गाँव का मकान आिद छोड़कर नानाड़े गाँव जाने पर मजबूर कर िदया।
बाहर सेतो खुदीरामको दुःखिमला लेिकन ई शरवरकी कृपा का िल देिखयेःउसी खुदीरामकेघर रामकृिरण परमहंस
जैसी आतमा अवतिरत हईु और िववेकानदं जैसा िशषय रामकृषण केचरणो मे पहँच ु ा।
मुिखया के दरवारा तो जुलरम ढाया गया था लेिकन करूणािनिध ने खुदीराम पर िकतनी
करूणा कर दी। खुदीराम सरवयं तर गये, औ र उ न ह ो न क े इ य ो कोत ा र न क े ाम ा गथ द शथ न
देनेवाले एक महानर योगी को अपने घर में जनरम िदया। पाप के धन से मुिखया के बेटे-
बेिटयाँकुमागररगामीहुए, जीते-जी वह अशाित की आग मे जल मरा। अब कौन-से नरक में पड़ा होगा, यह
भगवान ही जानतेहोंगे।
इससे सपष है िक ईशरकृपा की किी पतीका नही करनी पडती है िक वह कब कृपा करेगा। वह जो कुछ िी कर
रहा है, उसकी कृपा ही है। केवल उसकी कृपा की समीकरिा कीिजये। मान हो िाहे अपमान,
मनिाहा कायरर हो या न हो, चाहे ििर जुलम िी हो, समीकरिा कीिजये। मेरा तातरपयरर यह नहीं िक
आप समीकरिा के नाम पर जुलरम सहते रहें, कंगाल हो जाएँ..... नहीं। अपनी ओर से आप
यथायोगरय पुरूिाथरर करो लेिकन पुरूिाथरर के पीछे परमातरमा का हाथ देखना िािहए। अपनी
वासना, दरवेि, अहंकार या पलायनवादी सरवभाव का सहारा न लो। अपने वरयवहार के पीछे
परमे वर रकी करूणा को आम ितरर
ं तकरो। परम े वर रकी कृपा अनवरत बरस रही है, उसकी समीकरिा करोगे तो
आपके जीवन में िनभरररता व िनदरवररनरदव र ता का पररसाद आ जाएगा।
चाहे हजारो मंिदरो मे जाओ, हजारों मिसरजदों-िगरजाघरों या गुरद ू रवारे में जाओ परंतु जब
तक तुम हृदयमंिदर मे आकर हृदयेशर की कृपा की समीका नही करोगे तब तक मंिदर -मिसरजदों की, तीथों की याता
पूरी न होगी। हृदयमंिदरहृदय े वर रकेजब तुम करीब आनेलगोगेतब ही काबा-काशी की यातररा पूरी होगी।
ईशर की कृपा को सबमे देखना यह ईशर की कृपा की समीका है। कृपा तो न जान िेकस -िकस रूप में बरस
रही है.... ििर िाहे वह औििध के रूप में बरसे या िमठाई के रूप में, मान के रूप में
बरसेया अपमान केरू प में, सतरसंग में जाने की पररेरणा के रूप में बरसे या सतरसंग में
िकनरहीं संकेतों के रूप में। हम अगर सावधान रहें तो िदन भर उस परमे शर वर की कृपा की
वृििरट ही वृििरट िदखेगी और आपका मन परमे शर वरमयहो जाएगा। ििर पररारबरधवेग से
आपके पुणरय, पाप, सुख-दुःख वरयतीत होते जाएँगे। समीकरिा करते-करते िजसके िविय में
समीकरिा कर रहे हैं, उस कृपालु के साथ आपके िितरत का तादातरमरय हो जाएगा।
िकतना सरल.... िकतना मधुर उपाय है ! तुमहारा मन धयान मे लगता है तो बहत ु अचछा है। नही लगता है
तो देखो िक "मन नहीं लगता है।" पररथरर ा नाकरोः "भगवान ! मेरा मन धरयान में नहीं लगता, मैं करया
करूँ ? तू जान।" तुम रोओः "तेरी कृपा बरस रही है ििर िी मन नही लगता। "
ििर भी मन नहीं लगता तो नहीं सही। 'तेरी कृपा होगी तब लगेगा , हम बैठे हैं'। ऐसािविार
करो। ििर तो उसी समय लग जाएगा मन। देखो मजा ! देखो िमतरकार !! शतरर है िक तुम
ईमानदारी से उसकेहो जाओ। समीका करो उसकी कृपा की।
कलकतरता में जयदयाल कसेरा नामक एक सेठ थे। उनरहोंने अपने गुरूदेव से
कहाः "बाबाजी ! मुझे बररहरमजरञान तो हो गया है परनरतु आधा।"
बाबा िौंकेः "आधा कैसे ? सूरज आधा कैसे िदखेगा पागल ! िदखेगा तो पूरा िदखेगा।"
सेठः "महाराज ! मुझे तो आधा ही िदखता है।"
बाबाः "कैसे ?"
सेठः "सबमें भगवान है और सब वसरतुएँ भगवान की वसरतुएँ हैं। जो सबकी वसरतु है
वह भगवान की वसरतु है, यह जरञान तो मुझे समझ में आ गया। सबकी वसरतु भी भगवान की है,
सबकी है, यह जरञान अभी गले उतरता नहीं।"
बड़ासजरजन सेठथा वह। वह समीकरिाकर रहा था अपनेिितरतकी ।
एक िदन उसके यहाँ पुिलस इंसरपेकरटर का िोन आयाः
"आपके इकलौते लड़के का भयानकर एकरसीडैंट हो गया है।"
सेठ उससे पूछते हैं- "लडका िजनदा है या मर गया ?"
थानेदार िौंक कर बोलाः "आप िपता होकर इतने कठोर विन बोल रहे हैं ?"
सेठः "नहीं भाई ! मैं इसिलए पूछ रहा हूँ िक यिद मर गया है तो हम उसकी शरमशान
यातररा की वरयवसरथा करें और िजनरदा हो तो इलाज की वरयवसरथा करें।"
थानेदारः "आप सिमुि के िपता हो या गोद िलया था लड़के को ?"
सेठ जी बोलेः "थानेदार साहब। मैं सगा बाप हूँ इसिलए उसकी अिरछी उनरनित हो
ऐसा कह रहा हूँ। उसे िोट लगी हो और मैं अपने िदल को िोट पहुँिाकर उसका उपिार
करवाऊँगा तो वह ठीक न होगा और अगर वह मर गया है और मैं रोता रहूँगा तो भी उसकी
यातररा ठीक नहीं होगी। अगर वह मर गया है तो मैं शरमशान यातररा की तैयारी करूँ, िमतररों
को िोन करूँ और बुलवाऊँ। अगर िजनरदा है तो उिित उपिार के िलए अिरछे िििकतरसालय
में दािखल करवाऊँ। इसमें रोने या दुःखी होने की करया बात है ? उस परमातरमा को जो
अिरछा लगता है वही तो वह करता है और शायद इसी में मेरा और मेरे बिरिे का कलरयाण
होगा। वह मेरा मोह तोड़ना िाहता होगा और मेरे बेटे को अभी आगे की यातररा करना
बाकी रहा होगा तो मैंििरयाद करनेवाला कौन होता हूँ, थानेदार साहब !"
हमारा परमातरमा कोई कंगाल थोड़े ही है जो िक हमें एक ही अवसरथा में, एक ही
शरीर में और एक ही पिरिसरथित में रख दें। उसके पास तो िौरासी-चौरासी लाख चोले है अपने
परयारेबिरिोंकेिलएतथा करोड़ों-करोड़ों अवसरथाएँ भी हैं िजनसे वह गुजारता-गुजारता अनरत में
जीवातमा को परमातमसविाव मे जागृत करता ही है।
हमें उसकी कृपा की पररतीकरिा नहीं करनी िािहए िक वह कब कृपा करेगा। पररतीकरिा तो
उस वसरतु वरयिकरत की होती है जो वतरतररमान में नहीं है, िजसका अिाव है, जो बाद मे हो सकती है, जो
िमलेगी या िमलने वाली है लेिकन समीकरिा उसकी होती है जो वतरतररमान में है, जो सदा से
हमारे साथ है, अभी-भी हैऔरअनरत तक साथ नहींछोडे ़गी, ऐसी परमातरमा की करूणा-कृपा को िसिरर
देखना है।
हमारे पास देखने की, समीकरिा करने की कला नहीं है। हममें 'बनने' की आदत है।
'देखने' में आननरद है और 'बनने' में परेशानी है। िकसी सेठ को देखो तो सोिो िक सब
सेठों का सेठ परमातरमा उसमें िमक रहा है। वाह ! 'ऐसा सोिकर आननरद लो। लेिकन सेठ
बननेका िविार िकया औरसेठबनेतो इनरकम टैकरस की वरयवसरथा खोपड़ीमेंरखनी पडे 'होने'
़गी। गरीब बनेगातो गरीब
में भी मजा नहीं..... अमीर 'होने' में भी मजा नहीं...... माई 'होने' में भी मजा नहीं..... भाई
'होने' में भी मजा नहीं। तू जो 'है' उसका केवल पाटरर अदा कर। तू 'देखने' वाला हो.....
'होने' वाला मत बन।
नरिसंह मेहता के पुतरर शामलशाह की मृतरयु हुई तो वे िपता नहीं हो रहे हैं, िपता
'होने' को देख रहे हैं। वे रोते भी नहीं हैं। वे तो कह रहे हैं-

"उसको जो अिरछा लगता है, ठीक है। मैं ििरयाद करने वाला कौन होता हूँ ?"
,
, ।।
हम कहते रहते हैं िकः "भगवान ! यह कर..... वह कर..... हम जैसा िाहें वैसा तू कर।"
हम अलरप मित के लोग यह समीकरिा ही नहीं कर पाते िक उसे हमारा िकतना खरयाल है ! माता
के गभरर से जब हमारा जनरम हुआ तो दूध करया हमने बनाया था या हमारे बाप-दादा ने ?
िकतना पौििरटक.... िकतना शुदरध दूध ! िजतना चाहा, िपया। ििर मुँहघुमािदया। ििर भी सदैवएकदम ताजा और

ु धर । वह झूठा-अ शु दरध भी नहीं माना जाता। शुदरध ही रहता है। अिधक मीठा होता तो
डायािबटीज हो जाती बिरिों को, िीका होता तो भाता नहीं। अिधक गरम होता तो मुँह जल जाता
औ र ठं ड ा ि ी ह ो त ा त ो व ा यु करत ा। न अ ििक म ी ठ ा न िीका, न अिधक ठंडा न गरम। जब िजतना
चाहा, पीिलया। यह वरयवसरथािकसकी है?
तुमहारे इस िरती पर आन क े े प ह ल े ह ी उ स नत े ु म हारेखानपेीनके ीवयवसथाज
तुमहारे लोक लोकातर की वयवसथा जमा रखी है। तुमहारे चाहन प े र इ सइ ि न ि यगतजगत्कनशरसुखसेऊप े
की मित भी वह देता है एवं इस मित को बढ़ाने वाला सतरसंग भी इस समय वही पररदान कर
रहा है।
अगर तुमरहारा धन में मोह होता है तो इनरकमटैकरस की समसरया आ जाती है। यिद
पिरवार मेंमोह होता हैतो पिरवार मेंकुछ-न-कुछ गड़बड़ी आ जाती है तािक तुम आगे बढ़ो। यिद तुम
अहंकार से गररसरत हो तो िकसी शतररु दरवारा संघिरर करवाकर तुमरहारा बेलेनरस ठीक करता है।
अगर तुमरहें िविाद, थकान या हताशा होती है तो िकसी सरनेही या िमतरर के दरवारा मदद भी
िदलवा देता है। तुम सास हो तो बहू के दरवारा और बहू हो तो सास के दरवारा भी वह तुमरहें
ठीक करवा रहा है। तुम िपता हो तो पुतरर के दरवारा अथवा पुतरर हो तो िपता या िमतरर के दरवारा
वह तुमरहें ठीक कर रहा है।
बिरिा मैलाहोता हैऔरउसेसरनान कराओ, मलो तो उसे बुरा लगता लेिकन माँ की नजर में यह
िहतकर होता है। माँ िाहे बिरिे को डाँटे, कड़वी दवा िपलावे, पकवानिखलावे,
वसरतररालंकारों से सुसजरज करे या काले काजल का टीका लगावे, सबमें माँ का िहतकर
भाव व करूणा होती है। बिरिा अगर समीकरिाकरेतो माँकी हर िेिरटामेंमाँकी करूणा हीिदखेगी। ऐसेही हमसमीकरिाकरें
तो परमातमा की करणा-कृ श पा ही िदखेगी। हजारों माताओं का हृदय िमलाओ तब कहीं मु ि रकलसे
संत-भगवंतकेहृदय की कलरपना कर सकतेहो। हो सकता हैमाँअलरपजरञ, अलरपशिकरत और अलरपमित की हो
इसिलए वह 'भिविरय मेंबेटासुख देगा' इस मोह से पालन-पोिण करे। माता की मार या डाँटमेंवरयिकरतगत दाह या सरवाथररहो
सकता है लेिकन परमातरमा को वरयिकरतगत डाह या सरवाथरर नहीं होता। वह जो कुछ करता है
अिरछा ही करता है।
,
,
भैया! ििरयाद मत कर, धनरयवाद देना सीख। समीकरिा करना सीख तो मेरे जीवन में
चार चाद लग जाएगँे, जीवन चमक जाएगा.... महक जाएगा।
एक
श मंतररी का सरवभाव था हर हाल में मसरत रहने का। िकसी वेदानरती गुरू का ििरय
होने के कारण उसकी आदत हो गई थी यह सुवाकरय कहने कीः 'भगवान जो करता हैअिरछाही करता है।'
पररतरयेकघिटत होनेपर उसकेमुख सेउकरत शबरद सरवतः ही पररसरिुिटत होनेलगतेथे।
एक बार राजदरबार में पड़ौसी देश के राजा ने तलवार भेंट सरवरूप िभजवाई।
मंतररी ने उसे राजा को दी तो राजा उँगली ििराते-ििराते उस तलवार की धार का परीकरिण
कर रहे थे। धरयान अनरयतरर कहीं िले जाने से राजा की उँगली का अगला िहसरसा तलवार
की तेज धार से कट गया और रकरत की धारा बह िनकली। सभी कमररिारी हाय-हाय करने लगे
लेिकन िनयवाद और समीका से िरा हआ ु मंती बोल उठाः "वाह ! जो िी हआ ु , अिरछा ही हुआ है।"
राजा पूछता हैः " ! करया बोलता है ?"
मंतररी कहता हैः "महाराज जो भी हुआ, अिरछा ही हुआ। अिरछा हुआ, भला हुआ।"
राजा पूछता हैः " ! करया बोलता है ?"
मंतररी कहता हैः "महाराज ! जो िी हआ ु , अिरछा ही हुआ। अिरछा हुआ, भला हुआ।
राजा सुनते ही आग-बबूला हो उठा। उसनेकहाः"मेरी उँगली कट गई और तू कहता है
अिरछा हुआ ? ठहर ! अभी िदखाता हूँ तुझे।" राजा ने िसपािहयों को आदेश देकर हथकिड़याँ
पहनकर मंतररीको जेलमेंबनरद करवािदया। राजा जेलमेंजाकर मंतररीसेपूछता हैः"मंतररी ! बोल, अब कैसा हुआ
?"
मंतररीः "महाराज ! यह भी अिरछा हुआ, भला हुआ।"
मंतररी की यही बात पुनः सुनते ही राजा पैर पटकता हुआ वापस लौट गया। समय बीता।
राजा की उँगली िजतनी कटनी थी, कटकर शेि ठीक हो गई।
एक बार राजा जंगल में िकारखेलने गया और रासरता भूलकर जंगल में उलझ

गया। उधर जंगली लोगों के मुिखया ने पुतररेििरट यजरञ करवाया था िजसकी पूणाररहूित के
िलए उसकेयािजक न ए े क आ द म ी ला न क े ो क ह ा त ा िकपूणाहूितमेबिलदीजासके।यहउ
समाज में मनुिरय तक की बिल दी जाती थी। मनुिरय इस हेतु वैसे ही पकड़कर बेि िदये
जाते थे जैसे िक इस युग मे जगंली लोग पशु आिद पकडकर बेच देते है।
मुिखया के यजरञ की बिल के िलए आदमी की तलाश में गये जंगली लोगों ने रासरता
भटकेराजा को पकड़िलया औरअपनेकबीलेमेंलाकर उसेसरनान करवाया, माला पहनाई और ठीक उसी तरह
अिरछा-अिरछा माल िखलाया जैसे िक मुसलमान लोग बकरा-ईद केपहले बकरे को िखलाते है। राजा की
िदन भर की भूख तो उस भोजन से िमटी लेिकन अब तलवार की तैयािरयाँ हो रही थीं।
यािजरञक ने आजरञा दीः "बिलिढ़नेवालेपुरि ू को लाया जाये।" राजा को पकड़कर बिल सरथल
की ओर लाया गया। यािजरञक ने सोिा िक कहीं यह आदमी खंिडत तो नहीं है। अनरयथा खंिडत
आदमी की बिल से यजरञ भी खंिडत हो जाएगा।"
जाच करन प े र र ा ज ा की उ ँ "धतरु त
ग लीकटीहई तेरी ! हमारी िगािदयाः
पाईतोखपपडमारकरउसे
िमठाइयाँ िालतू गई।"
राजा सोिता हैः "अिरछा हुआ। यिद उँगली कटी हुई न होती तो अभी मेरा िसररूपी
नािरयल ही सरवाहा हो जाता।" उसे मंतररी की बात का यहाँ अनुभव हुआ। मन ही मन मंतररी को
धनरयवाद देते हुए वह जंगलों में उलझता-सुलझता अनरत में अपने राजरय में पहुँिा और
तुरनत आदेश िदयाः "उस मंतररी को बाइजरजत बरी कर वसरतररालंकारों से सुसजरज कर शाही ठाठ से
रथ में िबठाकर मेरे सामने पे िकया जाय।"
मंतररी को लाया गया तो राजा कहता हैः "मंतररी जी ! तुमन म े े र ी उ ँगलीकटतेसमयकहाथाि
अिरछा हुआ, भला हुआ। वह बात मुझेअब समझ मेंआई। यिद उँगली नहींकटती तो मेरािसर ही कट जाता। लेिकन
मैंने तुमरहें जेल में डलवाया तब भी तुमने यही कहा था यह मेरी समझ में नही आया।
जेल मे इतना दड ं िोगन क े ो त ुमनअ ?"
े चछाकयोबताया
मंतररीः "राजन ! आपकी कहानी सुनकर िसदरध हुआ िक जेल में रहना अिरछा ही हुआ
करयोंिक मैं आपका खास आदमी हूँ। आप जंगल में उलझ गये तो मैं भी आपके साथ होता
या आपकी तलाश में पीछे-पीछेआता। आपतो अपनी कटी हुई उँगली केकारण बि गयेलेिकन मेरातोिसर वे
काट ही देते।"
कहने का तातरपयरर यह है िक जीवन में िकतनी भी बड़ी समसरया खड़ी हो जाये,
धैयरर नहीं छोड़ें। उस समसरया की गहराई में परमे शर वर की कृपा की समीकरिा करें।
दुःखों में भी ई शर वर की कृपा का दररशन करें। वे लोग कायर हैं , उनकी यह नासमझी और
कायरता की पराकािरठा है िक जो दुःख-बाधा आनेपर आतरमहतरया की सोितेहैंया आतरमहतरया करतेहैं।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
र ेदौरान जब नागपाश मेंबँधगयेतो नारदजी 'नारायण-नारायण' करते हुए
भगवान शररीरामिनरदररजीयुदधक
वैकुणरठ में गरूड़जी के पास पहुँिे और कहाः "तुम कैसे सेवक हो ? सरवामी तो नागपाश में
बँधेहुए हैंऔरतुम इधर घूम रहेहो ! जाओ, पररभु की सेवाकरो।"
िजनकेपख ं ो की आवाज से सामवेद की ऋचाए ि ँ न, ऐकलतीहै
से गरूड़ देवता पंख िड़िड़ाते हुए
आये तो कई नाग तो उनकी ऋिाओं के आनरदोलनों से डरकर भाग गये। शेि रहे नागों को
गरूड़ जी ने अपनी िोंि से रवाना कर िदया। पररभु बँधनमुकरत हुए।
पररभु तो लीला कर रहेथेलेिकन सेवक केभीतर अहंकार घुस गयािक अगर मैंनहींआता तो शररीरामजी को
नागपाश से कौन छुड़ाता ? अपने इिरट, अपने उदरधारक के पररित अहोभाव होता है तो
उनरनित होती है लेिकन तकरर-िवतकरर से अहोभाव यिद घटता है अथवा दोि-दररशन होता है तो
पतन होता है, ििर िाहे गरूड़जी भी करयों न हों।
वैकुणरठािधपित के िनतरय दररशन करने वाले गरूड़जी भी मोहगररसरत होकर अशांित का
िकारहुए हैं और अशांित क ा उपिार िकसी वैदरय , हकीम या डॉकरटर के पास नहीं होता।
सरवगरर के राजा इनरदरर भी अशांत होने पर आतरमशांित की तलाश में बररहरमवेतरताओं के
चरणो मे जाते है। गरडजी बहवेिाओं केिशरोमिण िगवान शंकर केचरणो पहँच ु े है - "पररभु ! मुझे बड़ी अशांित हो
रही है।"
िवजीपू
श छते हैं - "अशांित का कारण करया है ? यह कब से हुई ?"
गरूड़जीः "जबसे राम जी को नागपाश से छुडाया तब से। मुझे संदेह हआ ु िक ये साकात् नारायण कैसे हो
सकते हैं ? मैं न आता तो उनरहें कौन छुड़ाता ?"
िवजीः "तेरी अशाित की दवा मै नही दँगूा। तून अ
श े , अपने
प नइेषक ेपित उदरधारक के पररित
अशररदरधा की है। आिखर तू पकरिी जो ठहरा ! तू पकपात करता है, अपने अहं की तरि आता है।
अरे ! तेरे िीतर जो समतततव काम कर रहा है उस पर तेरी नजर नही गई ? तू सोचता है 'मैंने अपनी िोंिों
से काम िकया।" अरे.... तेरी चोच िकसकी सिा से चलती है पागल ! तुझे पता नही ? तेरे पख ं िकसकी सिा से
िड़िड़ाते हैं ? उसे तू नहीं जानता ?

रोम रोम में रमने वाले िजस िैतनरय आतरमा में योगी लोग रमण करते हैं, वह
राम है। ......औ र उनका न ा ग प ाश तू न त े ोड ा? राम की सतरता से तेरे पंख िल रहे हैं और
तून र े ा ?"
मकीमददकी
हम लोग भी तो यही कर रहे हैं। "हमने भगवान की सेवा की.... हमने बेटे की सेवा
की।" िकसकी सतरता से की यह सेवा ? "हमने गुरू की सेवा की.... हमने साधकों की सेवा की....
हमने भकरतों की सेवा की....। " साधक बोलेंगेः "हमने िलानों की सेवा की....." लेिकन तुम
िजसकी िनरनतर सेवा ले रहे हो उसका तो खयाल करो, भाई !
जब हम िवराट सवरप को नही देखते है तो कुि अहकं ार आ जाता है। जब उसकी करणा और कृपा की तरि
नजर नहीं होती तो अपनी वासना और अहंकार में हम बँध जाते हैं। ििर िाहे वह धन का
अहंकार हो, कुसीरर का हो, सौनरदयरर का हो िाहे बल का अहंकार हो लेिकन उस िवराट के
आगे यह गौण है।
कई लोग शराब का सेवन करते हैं िजसमें िनिहत अलरकोहल से मनुिरयों की मित
इतनी आकानत हो जाती है िक वे कह उठते है -
"भगवान-वगवान को हम नहीं मानते। भगवान होते तो संसारी इतने दुःखी करयों होते ?
"
अरे नादानों ! दुःख भगवान के कारण नहीं, तुमहारी वासना और सवाथथ केकारण बना है। िजसने
वासना और सरवाथरर को िजतने अंशों में िमटाया है उतना ही भगवान का पररसाद और आननरद
उसने पाया है। तुम भी पा सकते हो।
आज के नािसरतकवाद ने, अहंकारवाद ने, वासनावाद ने, मनुिरय को इतना उलझा िदया
है िक वह भगवान की सतरता को असरवीकार कर अपनी सतरता थोप रहा है करयोंिक वह यह भूल
चुका है िक पानी की एक बूँद से उसकेशरीर का िनमाण हआ ु है और राख की मुटी िर ढेर मे उसकी लीला समापत हो जाती
है। इसका आिद देखो और अनरत में देखो, बीि का तुम कब समरहालोगे, भैया!
िकसी धनवान ने कहीं दान िकया तो वह िढंढोरा पीटेगा िक मैंने इतना िदया है।
अरे भैया ! तू यह सब लाया कहा से है ? जरा िवचार तो कर ! यह तो उसकी कृपा है िक तेरे माधरयम
से वह यह सतरकमरर करवा रहा है। ििर करयों तू अहंकार सजा रहा है ? भगवान की इस कृपा को भी
तू अहकं ार पोसन क े ? अहंकार
े उ प योगमे लारहाहै िमटाने की बात कर और ईमानदारी से खोज....
कलरयाण हो जायेगा।
हम वाह-वाही व िवकारी सुखों को िजतना कम महतरतरव देंगे उतना अिधक हम भगवान
की अननरत कृपा का, अननरत पररसाद का, अननरत सुख का, अननरत जीवन का दररशन करने के
अिधकारी हो जाएँगे।
सुनरदर नाक बनाई है, सुनरदर िेहरा िमला है तो बार-बार देखतेरहतेहैंकाँिमेंिक मैंकैसालग
रहा हूँ ! उस समय मन में कह दो िकः "पानी की एक बूँदका ही रू पानरतर हैयह शरीर। अब सोिः तू कैसालग
रहा है ? शरमशान की संपितरत है यह शरीर। अब सोिः तू कैसा लग रहा है ?"
मनुिरय अगर थोड़ा-सा भी िववेक से सोि ले तो ििर न तो सौनरदयरर का अहंकार िटक
सकता है न सतरता का, न धन का अहंकार िटक सकता है और न ही बुिदरधमतरता का। इस अहंकार
ने हमको िवराट से अलग कर िदया है। जैसे िक गंगा की धारा से अलग हुआ पानी िकसी
गडरडे में पड़ा रहे तो कुछ िदन बाद वह बदबू मारने लगता है। िजस पर मिरछर भी
मंडराते रहते हैं। भले ही वह गंगाजल हो लेिकन वैिदक कमररकांड के उपयुकरत नहीं
माना जाता। ऐसे ही उस िवराट परमे शर वर की धारा से छूटकर अंतःकरण में , रीर में व
िकररयाओं में आबदरध होकर मनुिरय इिरछा-वासना का गुलाम बनकर तुिरछ हो गया है। तुम
जहा से सिुरे हो उिर का अनुसंिान कर लो तो तुम अिी ही महान् हो जाओगे।
! ? ।
एक बुलबुला अपने को बड़ा मानता है दूसरे बुलबुले के आगे। एक तरंग दूसरी
तरगं केआगे अपना महततव पितपािदत करन म े े ल ग ी ह ै ।द ो न ो े ेबड
ब ेवकूिहै।दोनोअपनस
बड़ाबुलबुला अपनेसेबडे ़बुलबुलेकेआगेिसकुड़ता है। बड़ीतरंगअपनेसेबड़ीतरंगकेआगेिसकुड़ती है। िसकुड़ना भी
बेवकूिी है, अकड़ना भी बेवकूिी है। दोनों की िजगरी जान तो जल ही जल है। वासरतव में सब
परमातरमा ही परमातरमा है, चैतनय ही चैतनय है। उसका अनुसंिान कीिजये, उसकी करूणा-कृपा का एहसास
कीिजये।
जब तुम िकसी वसतु, वरयिकरत या पद के अहंकार से आबदरध होते हो तो तब उन वसरत,ु
वरयिकरत या पद से पररकृित तुमरहें परे हटाती है। जो पररेम परमातरमा से करना िािहए.... .जो
भरोसा परमातरमा पर करना िािहएवह पररेमऔरभरोसा जब तुम इन ऐिहक िीजोंसेकरनेलगतेहो तो ठुकरायेजातेहो,
िगराये जाते हो, हटाये जाते हो या धोखा खाते हो। जैसे िकसी वरयिकरत से आपकी पररीित
अिधक है तो आपके और उसके बीि खटपट हो ही जाती है। होनी ही िािहए करयोंिक इसी में
आपका मंगल है। परमातरमा के इस मंगलमय िवधान को हम नहीं जानते इसिलए दुःखी होते
हैं। परमातरमा कभी अनुकूलता, सुिवधा और यश िदलाकर हमारा िविाद दूर करता है – यह भी
उसका मंगलमय िवधान है और कभी पररितकूलता या वरयवधान उतरपनरन कर हमारी आसिकरत और
अहंकार दूर करता है लेिकन हमें इसका जरञान नहीं है इसिलए हम परेशान हो रहे हैं
िक भगवान ने सा करयों िकया?
िवजीने
श गरूड़जी की बात सुनकर इनरकार कर िदयाः "मैं तुझे आतरमशांित का उपदेश
नहीं दे सकता करयोंिक िजसके यहाँ सदा िसर झुकाया, उस अपने इिरट के पररित तू गलत भाव
लाया। मै तुझे उपदेश नही देता। जा काकिुशुिणडजी केपास जा। "
िवजीने
श िकतनी सुनरदर सजा दी है ! कहाँ तो पिकरियों का राजा गरूड़, िजसकेपख ं ो से
सामवेद की ऋिाएँ िनकलती हैं और कहाँ पिकरियों में अतरयनरत िनमरन जाित कौआ ! उस
कौए की योिन में काक भु ु िणरडजीका परराकटय हुआ है। गरूड़ जी को काक भु ु िणरडजीके पास
भेजागया है। जैसेिकररवतीररसमरराट को िपरासी केिरणोंमेंभेजिदया जायेतो उसकेिलयेयह सजा पयाररपरत है। ऐसे
िवजीने
श आजरञा दीः "काकभु शु िणरडजी
के पास जाकर अनुरोध करो। उनके उपदेशों से
तुमहारा मोह दरू होगा।"
मोह यािन जो वसरतु जैसी है वैसी न जानकर उलरटा जानना। संसरकृत में इसे मोह
कहा जाता है।

संसरकृत में हृदय की शुिदरध को, अंतःकरण की शुिदरध के पररसाद कहा जाता है। उस
पररसाद सेसारेदुःख दूर हो जातेहैं।

।।
'पररसनरनता होनेपर साधक केसमरपूणरर दुःखोंका नाश हो जाता हैऔर ऐसेपररसनरनिितरतवालेसाधक की बु िदरध
िनःसनरदेह बहुत जलरदी परमातरमा में िसरथर हो जाती है।'
(शररीमदर भगवदगीताः 2.65)
आपका आहार, वरयवहार, परराणायाम, जप, तप, धरयान, पुणरय आिदसबकेसब अनरतःकरण को शुदधकरन र ेके
िलए हो। अनतःकरण शुद होन स े े पस ा , पररसनरनता
दहोताहै औरपसादसे
सेसारेदुःख सदा केिलएिमट जातेहैं। इसीिलए
सदैव पररसनरन रहना ई शर वर की सवोररपिर भिकरत मानी जाती है।
सुख की आशा से और वसरतुओं पर अिधकार जमाने से अपना अनरतःकरण अ शु दरध होता
है लेिकन सुख की लालि तरयागने से तथा वसरतु िजसकी है उसकी मानकर, उसका सदुपयोग
करने से अनरतःकरण शुदरध होता है। इसी पररकार पररेम तथा मोह में भी अनरतर है। पररेम
िदया जाता है, बदलेमेंकुछइिरछानहींहोती जबिक मोहिबना बदलेकेकरवट नहींबदलता। जैसेमाँबिरिेका
पालन-पोिण पररेमसेकरती हैतो वह मोह नहींहै। 'बिरिा बड़ाहोकर, पढ़-िलखकर मुझे बहत ु सुख देगा....' सा मोह
रखकर अगर बिरिे का पालन-पोिणिकया जाता हैतोििर बिरिेसेजो आशाएँकी जाती है ,ंवे पूणरर नहीं
होतीं। यिद मोहरिहत पररेम से बिरिे का पालन-पोिणिकया गया हैतो वह बिरिा बड़ाहोकर उमरमीद से
अिधक सेवा कर सकता है। कदािितर न भी करे तो भी दुःख नहीं होगा।
िनज सरवाथरर में िलपरत होकर िकया जानेवाला कायरर मोह है और सेवा समझकर,
िनयित समझकर िकया जाने वाला कायरर पररेम है। इसी पररेम से परमातरमा पररसनरन होते
हैं और पररकट भी होते हैं जबिक मोह के कारण परमातरमसुख, परमातरमशांितसेहमपरेहो जातेहैं
औ र िवक ा र , अशांित आिद पररकट होते हैं।
सरतररी के शरीर से मोह करोगे तो उसमें मौजूद अनरतरातरमा नहीं िदखेगा, बिलरकहाड़-
माँस िदखेगा और उससे सरतररीसुख लेने की इिरछा पररबल होगी। यिद पुरूि ऐसा करता है तो
वह सरतररी का गहरा शतररु है। दोनों भले ही आपस में िमतरर हों लेिकन वासरतव में एक-
दूसरे के खतरनाक शतररु होते हैं।
खूंखार शतररु तो िाकू िदखाकर एक बार हािन करेगा लेिकन ऐसे िमतरर तो िबना िाकू
िदखाए अनिगनत बार हािन करते रहते हैं। ऐसे ही खुशामद-चाटुकार िकसम केलोग - 'वाह भाई
वाह ! वाह सेठ वाह !' करते हैं और सेठ भी भररिमत हो जाता है िक मैं सेठ हूँ करयोंिक
असली सेठ को वह भूला हुआ है। इसिलए अहंकार करता है िक 'मैं सेठ हूँ।' ऐसा िवपरीत
देखना मोह है। इसी कारण राजा-महाराजा यशोगान आिद सब करवाकर भी पुणरय कमोररं से जब
थोड़ी बहुत बुिदरध खुलती तो देखते थे िक कुछ भी नहीं है। ििर राजपाट से िनवृतरत होकर
वे भी महापुरूिों के िरणों में पहुँि जाते थे और बुहारी करते, िलपाई करते और अनय सेवाओं
से माधरयम से उनकी करूणा-कृपा धीरे-धीर पिाकर परम पद का, परमातरमशांितका अनुभव कर लेते
थे।
आज का आदमी आता है गुरूओं के पासः
"बाबाजी ! मैं बहुत दूर से आया हूँ। मुझे अमुक-अमुक काम करना है, बता दीिजए, 'छू.......'
कर दीिजये, तािक जलदी काम िनपटाकर जलदी वापस पहँच ु जाऊँ। " अरे, अपने को कुछ िघस तो सही
भाई ! वासना के संसरकार और अहं को तिनक िमटने तो दे !
'सांई ! मुलाकात दो.... यह करो.... वह करो.....। ' छूमंतर के िलए तो िकसी जादूगर के
पास जाना पडे ़गा। जादूगर सरवयंही िँसा हुआ हैऔरआपको भी पूरी तरह सेअपनेजाल मेंिँसाहो सकता हैलेिकन
यिद
श बररहरमवेतरता के दरवार जाना है तो राम जी की तरह जाओ। रामजी गये थे व ििरठजीके
चरणो मे, एकनाथजी गये थे अपने गुरू जनादररन सरवामी के िरणों में, पूरणपोड़ारहा था एकनाथ
जी केचरणो मे , िववेकानंद रहे थे रामकृिरण परमहंस के िरणों में।
पूणररको पाना हैतो पूरा अहंकार छोड़नापडे़गा।
आज कल तो लोग िलती गाड़ी में ही पूछते रहते हैं िकः "बाबाजी ! मैं साधना
कैसे करूँ ? आप बता दीिजये मैं करया करूँ ?"
ऐसी िसरथित में कहना पड़ता है िक योग वेदानरत शश िकरतपात साधना ििवरमें आओ।
ऐश
सा कहना तो मु ि र क ल ह ो त ा ....
हैिकतु
शा शमर बड़ीगलतीकररहेहो
वत
का खजाना छोड़कर
न शर वर िीजों की ओर भागे जा रहे हो।
आज सब कुछ िवपरीत िदख रहा है। िजसके िलए जीवन िमला है उसके िलए हमारे
पास तिनक सा भी समय नहींऔरिजसेछोड़कर एकिदन मरजाना हैउससेउपरामता नहीं। इससेबड़ामोह औरकरया हो
सकता है ? यह कैसी ममता है जो छूटती भी नहीं ? इससे बडा नशा या बडी शराब कया हो सकती है ?
शराबी की शराब तो दो-चार घट ं ो मे उतर जाती है लेिकन हमारी मोह-ममता की शराब अभी तक नहीं उतर
रही है।

इस मोहमयी मिदरा को पीकर सारा संसार उनमत हो रहा है। आप दो चार पाच पचचीस हजार ही नही, सब लोग
पी-पीकर मतवालेहो रहेहैं.....सारे कुएँ में भाँग पड़ी है। कोई िवरला ही होगा जो खटरटी दही और
घी का घूँट भरकर वमन दरवारा न ा उतार देता होगा। से ही कोई िवरला है जो दृढ़ िनयम की
दही व जरञानमयी साधना का घी लेकर नशा उतार लेता है। संसारी सुख-साधनों को पकड़ने
की आशा ने परमातरमा को पकड़ने की योगरयता और परमातरमासुख पाने की योगरयता, दोनों ही
निरट कर दी हैं। अभी-भी संसारीिवकारी सुखोंसेिजतना-िजतना आप खुद को बचाते है उतना-उतना आितरमक
सुख आपको धरयान में िमलता ही है।
धरयान योग साधना ििवरोंमें तुम सुबह से बैठे रहते हो। अगर िवकारी सुखों में
तीवरता होती तो तुम देर तक सतसंग या धयान-साधना में बैठकर आननरद नहीं ले सकते थे और यह
आननरद लडरडू-पेडे ़-बििररयोंका नहीं, यह आननरद ऐिहक वसरतुओं का नहीं, यह आनंद तो अधरामृत है,
िदवरयामृत है।

गरवाल-गोिपयाँ कहते हैं- "कनरहैया ! हमें धरती के िविय-सुख नहीं िािहए। धरा
का सुख नहीं, हमें तो अब 'अधरामृत का पान कराओ।" तब शीकृषण अपन प े य ारोपरबरसतेहै।
"मैं बांसुरी बजाऊँगा, जो अििकारी होगे वे गवाल-गोिपयाँ ही सुन पाएँगे और आएँगे।"
िजनहोन श े ी क ृ ष ण -बु
केपितसवाथथ
िदरधसेनाता
बुिदसेजोड़ाहै, पेमररदरधा-भिकरतसेनाता जोड़ाहै,
नहीअिपतु
वे ही लोग बंशी की आवाज सुन पाते हैं।

,
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
-
बालक पैदाहोता हैतब सेसात विररकी आयु तक उसकेसरथूल शरीर की नीँवबनती है। सात सेिौदह विररकी
आयु तक भावना केनरदरर िवकिसत होता है। िौदह से इकरकीस विरर की आयु तक उसका अनाहत
केनरदरर िवकिसत होता है।
अगर धरयान-धारणा के माधरयम से ये केनरदरर रूपानरतिरत कर िवकिसत िकये जावें
तो घृणा पेम मे, भयिनभररयता मे,ं अशांित शांित में, सरपधारर समता में व अहंकार सरलता व
सजरजनता में पिरवितररत होने पर जीवन रसमय बन जाता है।
यिद उस रससरवरूप का अनुभव करने के िलए केवल एक घंटा ही पररितिदन धरयान का
अभरयास िकया जाय तो मातरर िनरद िदनों में ही भीतरी शिकरतयों का अनुभव िकया जा सकता
है। आप िाहे िकसी भी जाित, धमरर या मजहब के हों लेिकन आपकी सुिुपरत शिकरतयों को
जागृत करोगे तो आपका जीवन सवय क ं ेिलए , दूसरों के िलए, समाज, देश एवं िव शर व के िलए िहतकर
हो जाएगा।
िवजरञान के साथ यिद मानवजरञान नहीं िमला तो िवजरञान संसार को सुनरदर बनाने के
बजाएभयानक बना देगा। मनुिरय यानेकरया? जो मन से उस चैतनय केसाथ संबिं
जोड सके, अनरतर-आराम, अनरतर-सुख एवं आनरतर-जयाित को पा सकेउसे मनुषय कहते है।
,
िननरदा-निरत से न अपना भला होगा न ही जगत का भला होगा। सहानुभूित व सरनेह,
सिरििरतरर व सदािार, सतरसंग और साधनायुकरत जीवन से सरवयं का एवं देश व समाज का भी
भला होगा।
जो घोडा लगाम न डालन द े े उ स घ ो ड े क , उससे गाड़ी
ी क ोईकीमतनही।जोवाषपबाइलरमे संयतनही
चल सकती नही। जो तार वीणा से कसी न जाएगी, उससे गीत िनकलेंगे नहीं। जो नदी िकनारों को
लाघ जायेगी वह ियानक हो जायेगी। जो नदी िकनारो से बिँ ी हईु चलती है वह गावो को सीचती है और देर सवेर सागर से
िमलती है। ऐसे ही हमारी मित साधना और संयम से जुड़ी होगी तो रूपानरतिरत होगी, िवकिसत
होगी। वे ही वृकरि िूलते हैं, िलते हैं, रस देते हैं जो धरती से जुड़े होते हैं। जो
वृकरि धरती से जुड़ना नहीं िाहते, धरती से अपना संबंध तोड़कर उछलना कूदना िाहते
हैं वे असंयमी वृकरि िूलहीन, िलहीन व रसहीन हो जाएँगे।
ऐसे ही जो मन अपने आतरमा से व िैतनरय से जुड़कर जीता है वह रसीला होता है,
सामथरयररवान होता है, सदािारी होता है लेिकन जो मन केवल िहंसा के बल से, आतंक के
बल सेसुखी होना या ऊँिाई को छूना िाहता हैउसकािवनाश हो जाता है।
, ।
,
!

सरनेह और सहानुभूित, सतरसंग और साधना, मानव जीवन के सवाररंगीण िवकास में


सहायक साधन हैं। भगवान शररीकृिरण ने गीता में कहा हैः

'सतरतरवगुण से जरञान उतरपनरन होता है और रजोगुण से लोभ आिद ही उतरपनरन होते


हैं। तमोगुण से पररमाद एवं मोह उतरपनरन होते हैं एवं अजरञान भी होता है।'
(गीताः 14.17)
पररमाद, मोह और अजरञान तमस की उपज है। इससे अजरञान और बढ़ता है। जैसे
नािवक नाव को ले जाता है और नाव नािवक को ले भागती है वैसे ही सदािार से
सतरतरवगुण बढ़ता है और सतरतरवगुण से सदािार बढ़ता है। तमोगुण से दुरािार और दुःख
बढ़ता हैएवंदु ःख सेदुरािार औरतमोगुण बढ़ता है। इसीिलएअिरछीसंगत करो। अिरछेगररनरथोंव शासरतररोंका पठन
करो। अिरछे में अिरछा परमातरमा है। उस परमातरमा से परयार करो। ििर उस परमातरमा को
चाहे राम कहो, रेहमान कहो, ईशर कहो, अलरलाह कहो। वही परराणीमातरर के िदल की धड़कन को
चलान व े ा ल ा ि द लबरहै।उसेहृदयपूवथकपयारकरतेरहो।
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उसे पररगट करने की शैली सरल है, किठन नहीं। िजनरहें किठन नहीं लगती ऐसों का
िमलना किठन है लेिकन अगर ऐसे महापुरूि िमल जाएँ और उनके मागररदररशन में थोड़ा
अभरयास करो तो आप भी उसके अनुभव में समा सकते हो, अनोखा अनुभव पा सकते हो। संत
चाहे िकसी िी जाित केहो , यिद उनरहोंने ऊँिाई को छुआ है तो उन सबका अनुभव तो एक ही है।
गीता में िार मुखरय िवदरयाएँ विणररत हैं-
एक है अभय िवदरयाः हर आदमी को मृतरयु का भय लगता है लेिकन
वाला उपदेश देते हुए भगवान ने मृतरयु के भय से पार करने का पररसाद
गीता में भर िदया है। दूसरी िवदरया है सामरय िवदरयाः राग-दरवेि से रंिजत होकर िितरत
अनथरर पैदा करता है अतः िितरत की समता एव राग-दरवेिरिहत अवसरथा को पाने का उपदेश
गीता में है।
तीसरी िवदा है ईशर िवदाः ईशर केअिसततव का जान। ईशर की सिा -सरिूितरर को सरवीकार करके
आदमी िनरहंकार होता है। अनरयथा अहंकार के बोझ से तो बड़ा दुःख पैदा होता है।
चौथी िवदा है बहतमैकय बोि िवदा।
गीता की ये िार िवदरयाएँ िजसने समझ लीं, वह िनभाररर हो जाएगा, िनरहंकार हो
जाएगा, राग-दरवेि रिहत होकर, वह मृतरयु के भय से भयभीत नहीं होगा। मौत िजसकी होती है
वह 'मैं' नहीं..... जो मरता है वह आतमा नही। ऐसी बहिवदा से वह मुकत हो जाएगा। वासतव मे िवदा वही है जो
मुिकरत का अनुभव करा दे।

धरयान करने से वरयिकरत का तीसरा केनरदरर िवकिसत होता है। उससे जो योगरयता
िमलती है उसे ििर वह या तो जगत के अनुसंधान में लगाये जैसे आईनरसरटीन ने
लगाया, या जगदी शर वर की खोज में लगाये। आदमी इससे उनरनत हो ही जाता है। भाव केनरदरर
िवकिसत होने से कायररकरिमताएँ बढ़ती हैं, आतरमिविार िवकिसत होने से मनुिरय आतरमा-
परमातरमा केसरवाद मेंिसरथतरहता है। यह मातररयोिगयोंका ही अनुभव नहींहै, आप भी कर सकते हैं। आपके
शरीर में सात केनरदरर हैं- मूलाधार, सरवािधिरठान, मिणपुर, अनाहत, िव ु , आजर
दरध ञािकरर,
औ र स हस ा र।
आपका मन िजस समय िजस केनरदरर में होता है, आपके िविार और कमरर भी उस समय
उस पररकार के होते हैं। अिरछे से अिरछा आदमी भी कभी-कभी दुिरकमरर या कुिविार कर
लेता है और दज ु थन मनुषय िी किी-कभी इतना अिरछा िविार सुना देता है अथवा सतरकमरर कर देता है
िक आ शर ियरर होता है। इसका कारण यही है िक दुजररन मनुिरय भी जब उिरि केनरदररों में
आता है तो उसमें सदिविार व सतरकमरर होने लगते हैं। इन केनरदररों में िसरथित पररापरत
महापुरूिों का यिद सािनरनधरय व समरपररेकरिण िकरत पररापरत हो जाए तो अनेकानेक जादुई
अनुभव होते हैं। यह बाहर के जादू की नहीं, भीतर केजादू की बात है।
ऐसी िसरथित िनिमररत होने पर घृणा पररेम में, अशांित शांित में, अहंकार सरलता
में और अजरञान जरञान के रूप में पिरवितररत हो जाता है। यिद मूलाधार केनरदरर ही िवकिसत
करने की कला आ जाए तो साधक को दादूरी िसिदरध पररापरत होती है। दूसरा केनरदरर रूपानरतिरत
होने पर पढ़े िबना ही वेद, वेदानरत, उपिनिद और अनरय शासरतररों का अथरर पररकट होने
लगता है। िकसी िी शासत को पल िर देखकर ही वह पूरा रहसय समझ लेगा। वह योगी ििर देवपूजय हो जाता है ,
देवता लोग उसकी पूजा करते हैं और यकरि-गंधवरर-िकनरनर उसकी आजरञा में रहते हैं।
लोकलोकातर की बाते जानना िी उसकेिलए किठन नही है। मात तीन माह तक िनरत ं र एक -एक घंटा सुबह- ाम
को िनयिमत धरयान करो तो अदभुत अनुभूितयाँ होंगी। मैं यह सब कुछ मातरर पढ़-सुनकर नहीं
कह रहा हूँ िकनरतु मेरे हजारों-हजारों साधकों का अनुभव भी इसके साथ है।
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मूखररता से वह गररंिथ खुलती नहीं और कमीरर बाहर के ही कमोररं में कंगाल हो रहा
है। भीतर का खजाना उसे पता ही नहीं है और िजनरहें उस खजाने का पता है उन महापुरूिों
के िरणों में तो बड़े-बडे ़समरराट भीिसर झुकानेको आतुर रहतेहैं। उन महापुरि
ू ोंकेदर की तो बात ही
िनराली है !
िजनहोन आ , उन महापुरूिों के दरर न से हमारा िसर ररदरधा से झुक जाता
े त मदारकोपायाहै
है लेिकन जहाँ-तहा, रे-गैरे हर आदमी के आगे झुककर घुटने टेकते रहना यह दुबररल
आदमी का काम है। आतरमवेतरता बररहरमजरञानी महापुरूिों के आगे मतरथा टेकने में तो
शररीराम व शररीकृिरण जैसे, जनक और एकनाथ जैसे, समरराट अशोक जैसे वरयिकरततरव भी अपना
अहोभागरय मानते हैं।
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आपके जीवन में मनोबल की आव शर यकता , ठीक है.... लेिकन ििकत केसाथ
है। भिकरत करो
यह बात अव शर य ही धरयान में रखनी है िक भिकरत करना कोई पलायनवादी का काम नहीं है।
भकरत आलसी नहींहोता है, वह पररमादी, कायर व पलायनवादी नहीं होता है। हनुमानजी का जीवन
देखो..... िकतना पराकररम ! िकतना बल ! देखो मीरा के जीवन में, िकतनी िनभीररकता और
सहनशिकरत है ! लकमणजी का जीवन देखो, िकतना अनुशासन व सेवा भिकरत है !
गुरू गोिबनरद िसंह के दोनों बेटे मुगल ासक दरवारा दीवार में िुने जा रहे हैं।
छोटा भाई कहता हैः "पहलेमुझेिुन लो। हमारािसर जाए, परराणजाएँतो जाएँलेिकन धमररनहींछोडे़ंगे।"
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अपने सनातन िहनरदू धमरर में मर जाना भी अिरछा है, पराया धमररभय देनेवाला है।

ऐसा बल... ऐसी दृढ़ता जीवन में होनी िािहए।


धमरर मुखरयतः दो पररकार के होते हैं। एक होता है देह को 'मैं' मानकर वरयवहार
करने वाला सामािजक धमरर और दूसरा होता है अपने ततरतरव सरवरूप में िसरथत होने का जीव
का वासरतिवक आतरमधमरर, सरवधमरर। उदाहरणाथररः कोई माई है, भाई है, बररहमर िारी है, वानपररसरथी है,
इनका अपना-अपना बाहरया वरयवहार का धमरर है। आमजनता िजसका पालन कर सके, वह बाहरया
धमरर है। अिहंसा, सदािार, बररहमर ि यरर, संयम – ये आतरमधमरर हैं, सरवधमरर हैं।
'जीव का वासतिवक सवरप कया है ?' यह ििनरतन करके अपने सरव में िटकना। इसे सरवधमरर
कहते हैं। यिद आप भकरत हैं तो अपनी भगवदाकार वृितरत कीिजये। रामजी का भकरत होगा तो
रामाकार वृितरत होगी, जगदाकार वृिि बािित होगी, वह रामरस को पायेगा। ररीकृिरण का भकरत होगा
तो वृिि कृषणाकार बनाएगा। काम , कररोध आिद का पररभाव घटता जाएगा, वृितरत कृिरणभगवदाकार बनेगी
एवं उसे अंदर का रस िमलेगा। यिद कोई बररहरमवेतरता सदगुरू िमल जाएँ तो वे वृितरत को
बररहमर ाकार बना देतेहैं। वृितरतयाँजहाँसेउठती हैंवह ततरतरव परराणीमातररकी नींवहै, ऐसा बररहरमजरञान जानकर वह सरव
में िसरथत हो जाएगा, साधक मुकरत हो जाएगा।
साधक का सरवधमरर होता है अपने सतर-िचत्-आनंद सरवरूप में िटकना। भकरत का सरवधमरर
भगवदाकार वृ ितरतकरना होता हैऔरसंसारी का सरवधमररहोता हैअपनेकु लधमररकेअनुसार गृहसरथी का यथोिित पालन
करना। उदाहरणाथररः तुम गृहसरथी हो और तुमरहारा पड़ौसी आ जाय, चाहे वह तुमहारा शतु ही कयो न हो,
लेिकन घर आ गया तो वह अितिथ है, उसे सतरकार दो, मान दो। शतररु को मान देने वाले
शररीरामिंदररजी थे। आपको कदािितर याद होगा िक जब मेघनाद मारा गया तो शररीरामिंदररजी
ने अपने अंग का वसरतरर उतारकर िदया िक 'इसको ढँककर ले जाओ और वीरोिचत गित करो, उसकी
उतरतर िकररया करो।'
गृहसरथी को िािहए िक वह अपनी आय का कुछ िहसरसा सतरकमरर में लगाये, अपने समय
का कुछ िहसरसा धरयान-भजन मेंलगाये। हो सकेतो विररमेंएकाध माह एकांतमेंरहे। विररकेपवरर -तयौहार आनदं-
उतरसाह से मनाये। सरवासरथरय के िनयम जानकर संयम से तेजसरवी संतानों को जनरम दे
एवं उनरहें गीता के तेजसरवी जरञान से अवगत कराये। वानपररसरथी है तो अपनी पतरनी के
साथ एकांत में संयम से रहे।
इस पकार अपने -अपने सरवधमरर के पालन में रत रहने से मनुिरय का कलरयाण संभव
है।
अनुकररम
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..... .....
हम लोग भगवान की कृपा का एहसास नहीं करते जबिक हमारे कदम-कदम पर उनकी
कृपा ही काम कर रही है। ऐसा कोई करिण नहीं िक िजसमें उनकी अहैतुकी कृपा न बरसती हो।
अगर उस कृपा का सरवीकार हो जाए तो ििर आप उसका और उसकी कृपा का अनुभव कदम-कदम पर
कर पाओगे।
हमारा हृदय ईमानदारी से िजतना अिधक सेवापरायण और तरयागपररधान होता है, उतना
ही भगवान की कृपा का पररसाद हमारे जीवन में िव ेिरूप से आने लगता है।
सनर 1931 की घटना है। गोलमेज समरमेलन में भाग लेने भारत से गांधीजी लंदन
गये थे। वहाँ आईनरसरटीन भी आये थे। वहाँ इन दोनों में आपस में वाताररलाप हुआ।
आईनरसरटीन ने कहाः "नकरितररों, तारो, गररहों और गररहमंडलों को देखते हुए इस बात
को सरवीकारना ही पड़ता है िक ई शर वर जैसा कोई ततरतरव है। इस पृथरवी पर जो सबका िनयमन
कर, तालबदता देते हएु सबको आकिषथत कर रहा है , वह कोई वरयिकरत या वसरतु नहीं लेिकन इनके बीि का
कोई ऐसा ततरतरव है, िजसका वणथन करना िवजान की ताकत नही। वह अवणथनीय है, िजसे कोई God कहता है,
कोई सतरय कहता है लेिकन उसको सरवीकारना सबको पड़ता है।"
पररतरयुततर रमेंभारत केसजरजन , हर काम में ई शर वर
का हाथ महसूस करने वाले , ईमानदार मोहनलाल
करमिनरद गांधी ने कहाः
"िमसरटर आईनरसरटीन ! मैं तुमरहारे और मेरे बीि की वातरतारर को एवं तुमरहारे और
मेरे शरीर को भी उसी की लीला समझता हूँ। मैं तो यह मानने को तैयार हूँ िक तुम और हम
नहीं हैं लेिकन वह तो है ही। 'मैं-मैं... तुम-तुम' करके हमारे संसरकार ऐसे उलझ गये िक
िजसकी सिा से और िजससे यह सब हो रहा है यह छुप गया है। 'मैं हूँ' यह िजससे हो रहा है, 'तुम हो' यह
िजससे िदख रहा है, वासरतव में वही है। बाकी 'मैं..... तू.....' तो मन की अविारणा है। शरीर केढाचे है और वे
'नहीं' हो जाएँगे। ये नहीं थे तब भी वह था, ये बोल रहे हैं तब भी वह है तथा ये 'नहीं'
हो जाएँगे तब भी वह रहेगा, ऐसा मेरा िव शर वास , ऐसी मेरा शररदरधा है। परंतु अभी मैंने
है
उसका पूरा पता नहीं आया है।"
गांधी जी ने अपने अंितम िदनों में भी अपने िनकटवितररयों से कहा थाः "वह है।
गोलमेज समरमेलन में मैंने जो पररविन िदया था वह िवरोिधयों को भी अिरछा लगा था।
उसमें उस परम े र वरका ही हाथ था।'अरिवनरद गाँधी समझौता' में भी जो भािण हुआ था,
उसमें उसी का हाथ था। उदरदणरड नीित अपनाकर पररजा का ोिण करने वाले िबररिट ों को
भगानेमेंअगरकोई सिलतािमली हैतो वह मेरीसिलता नही,ंउसी का संकलरप और उसी की कृपा का पररसाद
है, वरना मैं एक लकड़ीधारी दुबला पतला वरयिकरत कर भी करया सकता हूँ ?
मेरी बोलने की शैली से पररभािवत होकर हजारों लोग जुड़ जाते हैं तो यह करया
मेरी ितुराई है ? नहीं। यह तो उसी की करूणा का पररसाद है लेिकन हम नादानी से मान
लेते है िक 'मैंने िकया है.... मैं करता हूँ.... अहं करोिम।' हमारा जरञान बहुत अलरप है, इसिलए
जगत् केजान केिवषयो को िी हम पूणथरप से नही जान सकते।
आप बीज को भी पूणरररूप से नहीं जान सकते, इतना अलप है आपका जान। बीज मे िकतन वेृक
िछपे हैं यह आप कलरपना भी नहीं कर सकते। एक बीज से िकतने बीज..... औ र िकत न े
बीजोंसेिकतनेवृकरि.... औ र उनस े िकत न ब े ी ज औ र ि क तन वे ृक ह ो ग े इसकीआ
लगा सकते। हम दशृय की गणना िी पूरी नही कर सकते जो िक इिनियगत जान केएक कोन म े े प ड ा है।मनकेएककोने
में इिनरदररयों का जरञान छुपा है। मन बुिदरध के एक कोने में है और बुिदरध उस अननरत के
एक साधारण से कोने में है तो वह कैसा होगा ?
वही जब पररकट होकर अपने आपको िदखा देता है तो यह जीव ििदाकाश सरवरूप हो
जाता है, अदरवैत बररहरम में पररितििरठत हो जाता है। यह िसरथित अभी मैंने नहीं पाई है। मैं
एकांत िाहता हूँ लेिकन लोकसंपकरर बढ़ने के कारण, मेरी बुिदरध उस अननरत में
पररितििरठतहो जाए ऐसी सुिवधा मुझेनहींिमलती। इस हेतुकई बार मैंवधाररगया लेिकन पररिस िदरधकेकारण लोगवहाँभी आ
जाते थे। अतः अनतमुथख होकर एकातयाता करन क े े ि ल ए त था अ द ै तिनषादढ े ेिलएमुझेजोसम
ृ करनक
था वह िमल नहीं पाया। ििर भी जो कुछ िमला वह उसका ही पररसाद है, उसकी करूणा का ही
चमतकार है िक लोग इस 'मोहनलाल' को महातरमा गाँधी कह रहे हैं। अनरयथा मुझमें महातरमापन
है ही कहाँ ?"
शेख मेहताब के साथ वे शर या के घर जाने वाला वरयिकरत िपता की मृतरयु के समय भी
पतरनीकेसाथ सोया रहनेवाला वरयिकरतभी'बापू-बापू' करके पूजा जाता है, यह बापूओं के बापू परमातरमा की
लीला नही तो और कया है ?
एक साधारण दासी का पुतरर, िजसकी मा हमेशा एक दो िदन की इिर-उधर की िाकरी िकया करती
थी। बेटा भी माँ के साथ काम पर जाता था। इस बार माँ को िाकरी िमली थी सतरसंग-सभा में
सेवा करने की। बेटा भी वहाँ साथ जाता है। छोटी जाित, छोटा कुल और छोटा जीवन है

उसका। वह अ ि ि क र ि त ह ै । ि प त ाकीछायाभीबालरयावसरथ
है। ऐसे अनाथ दासीपुतरर को सतरसंग िमलता है और नाथ से िमलाने वाले कोई संत िमलते
हैं तो वही दासीपुतरर देवििरर नारद हो जाता है, जो िगवान को िी सलाह देन क े ी योगयतारखतेहएु
देवताओं की सभा में पहुँिने पर सदा आदर और समरमान के साथ उिित आसन पाता है।
ईशर न इ े सज ी ! िकतनी करिँमताएँ
व म ेिकतनीयोगयताएर खदीहै भर दी हैं। बीज में जैसे
वृकरि िछपा है ऐसे ही जीव में बररहरम िछपा है। उसको पा लो, जान लो।
इसिलए किी-भी अपनेसरवाथरर मेंआसकरत नहींहोना िािहए। वरयावहािरक वासनाएँपोसनेका सरवाथररवयिकर र तकी
शिकरतयों को कुंिठत कर देता है। िविय-िवकारी सुख का अिभलािी कभी सिरिी सेवा नहीं कर
सकता। सांसािरक कामनाओं का गुलाम मनुिरय अपना ठीक से िवकास नहीं कर सकता। अपने
सरवाथरर का गुलाम आदमी अपना कलरयाण नहीं कर सकता।
िजतना-िजतना तुमहारा हृदय िनःसवाथथ होता है उतनी ही तुमहारी िौितक उनित होती है। िजतना-िजतना तुमहारा
हृदय िनरंजन को पररेम करता है उतनी ही तुमरहारी आधरयाितरमक उनरनित होती है। वरयापारी
िजतना अििक सवाथी होता है गाहक उससे उतन द े रू,िागते
ऊबते है हैं। लेिकन वरयापारी िजतने अंशों
में िनःसरवाथररता से भरा है, उतने ही गरराहक उसके अपने हो जाते हैं। कथाकार िजतना
सरवाथरर से भरकर सतरसंग करेगा, शररोता उससे उतने ही दूर भागेंगे लेिकन अपने हृदय
में िनःसरवाथररता भरकर सतरसंग करने वालों के िरणों में तो िदन-पररितिदनिवशाल जन-समुदाय
लोट-पोट होनेलगता है।
िनःसरवाथररता के िबना िवकास संभव नहीं और पररेम के िबना पररभु का अनुभव संभव
नहीं। अतः इन दोनों को अपने जीवन में उतारो। सरवाथरर से अपनी सेवाओं को तुिरछ मत
करो और वासनाओं से अपने जीवन को निरट मत करो। करोड़ों जनरमों के मार खाते आये
औ र अ ि ी ि ी ह ज ा र ो ब ा र अ नु ि व िक य ा ह ै िक ब ा ह र क े सुख ो क े प ी छ े ज य ो अ प न क े ो
धकेलते हैं, घड़ी भर में ही योगरयताएँ और सुख करिीण हो जाता है। अतः सुख के लालि
से की हुई पररवृितरत नहीं, सुख बाँटने के भाव से की हुई पररवृितरत आधरयाितरमक िवकास का मूल
है।
जो सुख लेन क े े ि -पतरनीएक
लए शादीकरते ेपितेकेशतररह
हैवदूसर ु ो जातेहैं। ऋििऋण िुकानेकेिलएसंयम
से शादी का उपयोग िकया और पित पतरनी के भीतर छुपे हुए परमातरमा के पररागटरय के िलए
एक दूसरे को िगिरजाबाई व एकनाथ अथवा कबीर व लोईमाता की तरह सहयोग िदया तब ही कहीं
कमाल एवं कमाली जैसी संतानें आ सकती हैं अनरयथा घर में मुगीरर व बंदरछाप बिरिे
आ जाते हैं जो माँ-बाप को तो परेशान करतेही हैं, देश और समाज के िलए भी वे परेशानी खड़ी
कर सकते हैं। अपना शरीर और अपना िवकार ही सरवयं को परेशान करता है। मनुिरय की यह
कैसी दुदररशा है ? मनुिरय के बिरिे का िकतना अपमान है िक वह अपना संयम भूलकर सुख की
दासता में सुख-सरवरूप हिर को, सिरिे सुख को िवसरमृत कर िवकारी सुख में अपने को
धकेलता जा रहा है।
जयो-जयो सासािरक सुख की ओर गित होगी तयो-तयो सवाथथ बढेगा और जयो-जयो सवाथथ बढेगा तयो-तयो संसार मे
संघिरर बढ़ेगा। िजतनी अिधक वासनाएँ उतरतेिजत करने वाली ििलरमें बढ़ेंगी, उतना ही
अिधक जाित, समाज, देश और संसार का िवनाश होगा और िजतना अिधक संयम-सदािार का
पररिारहोगा, अनरतसुररख लेने का पररिार होगा उतना ही अिधक वरयिकरत, जाित, समाज, दे व
संसार का कलरयाण होगा, उतरथान होगा।
सुख की दासता सतरयसरवरूप परमातरमसुख से दूर रखती है। अतः सुख लेने की िीज
नहीं है। यह बात सदैव सरमरण होनी िािहए। यिद पिरवार का पररतरयेक सदसरय सुख लेना
चाहता है तो पिरवार मे कलह रहेगा, समरमान लेना िाहता है तो भी कलह रहेगा।
राम जी के सेवक हनुमानजी इतने कैसे िमक उठे ? उनमें वाह-वाही की इिरछा
नहीं थी। बस अहिनरर सेवा....। िबना सेवािकयेरह नहींसकतेथेहनुमानजी। इसी सेवा-भिकरतकेकारण ही
हनुमानजी की जय बोलते हैं भारतवासी।

जो वयिकत अपनी वाह-वाही तरयाग कर िनःसरवाथरर कमरर करता है उसकी भौितक, मानिसक और
आधरयाितरमक उनरनित एक साथ होने लगती है।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सतरसंग और सेवा का िल करया है ? तीथथसनान, दान, पुणरय तप, ितितका आिद का िल कया है ? जैसे
दही िबलोने का िल मकरखन िदखने लग जाये, से ही सरनान, तीथथ, दान, पुणरय, तप, ितितका आिद का
िल यही है िक मन परमातरमा में लग जाए तथा परमातरमा की शांित रूपी मकरखन िमल जाए।
सतरसंग, सेवा और साधन-भजन का िल यही हैिक ई शरवरका रस आनेलग जाए , धरयान का पररसाद
उभरने लग जाए।
िजसकेजीवन मे वह धयान का पसाद , सेवा का पररसाद, सतरसंग का पररसाद पररगट होता है
उसका िितरत छोटी-मोटी बातों से तो करया, सरवगरर के सुख से भी ििलत नहीं होता। अगर
आदमी की सेवा िल गई है, सतरसंग ििलत हो गया है, धरयान ििलत हो गया है, परमातरमा की
भिकरतऔरजरञानििलत हो गया हैतो उसकेअनरतःकरण मेंजो शांितऔरआनंदिलता है, उसके आगे सरवगरर का
सुख भी कुछ नहीं लगता है।
शुकदेव जी महाराज परीिकरित को सतरसंग सुनाने जा रहे हैं तो देवता लोग
पररथरर
ा नाकरतेहैंिक सतरसंग-सुधा हमें ही िपला दो। बदले में हम परीिकरित को सरवगाररमृत दे
देंगे। लेिकन शुकदेव जी ने यह कहते हुए देवताओं को सतरसंग सुधा िपलाने से इनरकार
कर िदया िक सरवगाररमृत पीने से अपरसराएँ िमलती हैं और पुणरय निरट होते हैं, जबिक सतसंग
का अमृत पीने से पाप निरट होते हैं और परमातरमशांित की पररािपरत होती है।
वे महापुरूि ररीमदर भागवत कथा करते-श करते बरसते जा रहे थे अपने परयारे ििरय
परी िकरितको सातिदन मेंजोिमला है..... वाह.....! वाह....!! धनरय हैं ऐसे गुरू और धनरय हैं
िकरितपर। परी
से ििरय! परीिकरितको मातररसातिदन मेंपूणररबररहमका
र साकरिातकार
र हो गया।
िजन-िजन पर गुर बरसे है और जो-जो गुरओं को झेलन व े ा ल े स त ् ि े ोइसिरतीपर
श षयहएुहैउनहोनत
आ शर ियरर को आ शर ियररििकत कर िदया है।
आ शर ियरर को भी आ शर ियररहो जाए , दुिनया के सब धमररगररनरथ रसातल में िले जाएँ,
सारे मठ-मंिदर पाताल में िले जाएँ ििर भी यिद मातरर एक भी बररहरमजरञानी संत धरती पर
हैं और एक ही स य़ि त र
श ि र ह ै ऐत ोधमररििरसेपनपेगाकरयोंिक सेबररहरम
महापुरूि की वाणी ासर तरर होती है। से पुरूिों ने ही ासर तरर बनाये और उनरहीं ासर तररों को
पढ़सुनकर आ िटररसरटोंनेकलरपना की औरभगवान की तसरवीर बनाई। उनरही तसरवीरोंको देखकर ि लरपयोंनेभगवान की
पररितमाएँबनाई िजनरहेंहमलोग पूजकर अपना मनपावन कर सकतेहैं।
िजनकेहदृ य मे िमथ पकट हआ ु है , हृदये शर वर
पररकट हुआ है ऐसे पुरूि आतरम-ापरमातरमा को छूकर
बोलतेहुए अपने ििरयोंको अथवा समाज को जो धमररका अमृतिपलातेह
श ,ैंवह शासरतरर बन जाता है। मीरा ने
जो पद गाये थे, वे ही पद अभी लता मंगेशकर गा रही है। मीरा से वह कुछ अिधक मधुर कंठ से
गा सकती है और उसके पास आधुिनक साज की वरयवसरथा भी है, इसिलए वह अििक मनोरज ं न दे सकती
है लेिकन मीरा के गाये पदों से मन की शांित िमलती थी और यहाँ लता के गाने से तो
मनोरंजन िमलेगा।
कबीर खास पढ़े िलखे नहीं थे लेिकन अभी भी लोग कबीर पर शोध िलखकर
डॉकरटरेट की िडगररी पा लेते हैं। उनको बदले में तीन िार हजार रूपये पगार िमलने की
संभावना हो जाती है। आज यिद कबीर जी खुद आ जाएँ तो उनरहें िपरासी की नौकरी भी नहीं
िमल सकती करयोंिक वे पाँिवी ककरिा तक भी नहीं पढ़े थे लेिकन कबीर जी पर जो शोध
िलखते है वे पी. एि. डी. माने जाते हैं, डॉकरटर माने जाते हैं और उनको बड़ी-बड़ीनौकिरयाँ
िमलती हैं।
अतः िजस-िजसन ि े ी अ प नप े र म ा त मप स ा दकोपायाहैऐसेपुरषोक
बता रहेहैं। हमउसका शररवणकरकेअपनेिितरतको ऐसा बनाकर जलरदी ही ऊँिाई का अनुभव करकेकुछहीिदनोंमेंवहाँ
पहुँिसकतेहैंजहाँपहुँिकर कबीरजी बोलतेहैं।िजस-िजसन ि े ी , ििर भले ही उसे झलक
ग हरीयाताकीहै
िमली या अिधक, वह ऐिहक दुिनया से तो कुछ िवलकरिण ही हो गया है।
कबीरजी उस आतरमा परमातरमा में पहुँिकर बोलते हैं तो उनकी वाणी शासरतरर बन
जाती है। नानकजी जो बोले वह गुरगनथ सािहब बन गया है। शीकृषण जी जो बोले वह िगवद ग ् ी त ाबनगई।वयासजी
जो बोले, रामकृिरण और रमण महििरर जो बोले वह भी शासरतरर बन गया है। सतरयसरवरूप परमातरमा
में िजनरहोंने भी िवशररांित पाई है, उनकी वाणी और शासरतरर लोगों के पाप-ताप दरू करन मेे
सकरिम हुए हैं।
भगवान शररीकृिरण कहतेहैं-

।।
'िजस पकार समपूणथ निदयो का जल चारो ओर से पिरपूणथ समुि मे आकर िमलता है परनतु समुि अपनी पितषा मे
अिल रहता है, से ही समरपूणरर भोग-पदाथररिजस संयमीिसरथतपररजर ञपुरिू मेंिवकार उतरपनरनिकयेिबना ही उसको
पररापतर होतेहैं, वही पुरूि परम शांित को पररापरत होते हैं, भोगोंकी कामना वाला नहीं।'
(गीताः 2.70)
िजसन व े हपदाथथ , वह आतरमपद पा िलया है उसकी इिरछाएँ-वासनाएँ खतरम हुईं। ििर भी
संसार की िीजें उसके पीछे घूमती हैं। भले ही संसार की सुिवधाएँ, सरवगरर और अतल
िवतल के रहसरय उसके सामने पररगट हो जाएँ ििर भी उस महापुरूि को, उस उतरतम पररकार के
योगी और साधक को इतना सब कुछ होते हुए भी िितरत में िवकार पैदा नहीं होता। मनुिरय को
ऐसी ऊँिी अवसरथा पररापरत हो सकती है।
परम शांितपरमातरमा केअनुभव सेही आती है।िजतनी -िजतनी संसार की तुचछ कामनाए ि ँ म, उतना
टतीहै ही
मनुिरय परम शांित का अिधकारी होता है। जैसे, सूयोररदय होते ही सारा काम अपने-आप
होने लगता है वैसे ही परम शांितपररापरत पुरूि के मन, बु िदरध, शरीर सरवतः ही सुिारू रूप से
वरयवहार करते हैं। वरयवहार की आसिकरत, बोझ औरकतरत ाररपनको वह नहींछूता। वह अपने-आप में
पूणररपररितििरठतहोकर पूणररशांितपाता है।
संसारी शांितयाँ तीन पररकार की होती हैं। वे आती है थपरपड़ें मारती रहती हैं
औ र च ल ी ज ा त ी ह ै । िू ख ल ग ी , बड़ीअशांितहै। रोटी खा ली तो शांितहो गई। लेिकन िार-छः घंटे बाद
वह शांित ििर भाग जाएगी। लड़के को नौकरी नहीं िमल रही है तो बड़ी अशांित है। नौकरी
िमल गयी तो शांित है। ििर उसकी शादी करने की अशांित और शादी हो गई तो शांित। ििर...
उसके यहाँ संतान नहीं हो रही है तो अशांित। इस पररकार ये शांितयाँ तो बेिारी आती
जाती रहती है और इसमे ही जीवन पूरा हो जाता है।
अगर सतरसंग और सतरपुरूि की कृपा का पररसाद िमल जाये तो आदमी परम शांित पा
लेता है। परम शाित पाया हआ ु पुरष अचल हो जाता है अथात् उसका िचि और मन ििर सुख -दुःख के थपेड़ों
में ििलत नहीं होता। संसार की वसरतुएँ उसके िरणों में ठीक उसी तरह खींिी िली आती
हैं जैसे िक निदयाँ सागर की ओर दौड़ी िली जाती हैं। ििर भी वह अपने िितरत में
जयो का तयो रहता है।
वह बहुत ही ऊँिी बात है िक भगवान कृिरण का दररशन हो जाए, राम जी का दररशन हो
जाये, काली माता का दररशन हो जाए लेिकन आतरमदररशन यिद नहीं हुआ तो काम बाकी ही रह
जाएगा। राम जी का दशथन मंथरा, प ू ररणखा, रावण और कुंभकणरर ने िकया था लेिकन रामततरतरव का
साकरिातरकार न होने से वे जीवनरमुकरत नहीं हुए। शररीकृिरण के दररशन कंस, श कु िन और
दुयोररधन ने भी िकये थे, िजसस केदशथन उनकेकई िमतो और िकतो न ि े क य े थ े औरिजससजबकॉसपरच
थे तो हजारों आदिमयों ने तािलयाँ बजाई थीं।
जब तक जीव को अपना आतमदशथन नही होता, तब तक िगवान कृषणऔर मा काली का िी दशथन हो जाए ििर िी
जीव बेचारा परम शाित नही पाता है।
तीन पकार का िगवत दशथन माना गया हैः सवप मे िगवान केकृपा पसाद से िगवान का दशथन और बातचीत हो।
दूसरा, जैसे हम तुम बाते करते है , िमलते हैं, देखते हैं ऐसा दररशन मधरयम दररशन कहलाता है।
तीसरा, भगवानिजस ततरतरव को पाकर भगवान बनेऔर यह जीव िजसकेअिसरततरतरव केकारण जीव हैउस भगवतर ततरतरव
में जीव िवलीन हो जाए, परम शांितको पा ले, इसे परम दशथन कहते है, उतरतम दररशन कहते हैं।
तोतापुरी गुर न र े ा मकृष"णसे काली
कहाथाः
से बातिीत कर लेता है, काली का दररशन कर
लेता है लेिकन काली आती है तो तुझ शाित िमलती है और काली केजाते ही तुझे ििर रोना पडता है। तू मुझसे बहजान ले

ले तािक तुझे अचल शाित पापत हो जाये।"
रामकृिरण कहते हैः "ठहरो, बाबाजी ! मैं माता जी से पूछ कर आता हूँ।" मंिदर में
जाकर उनहोन म े ा त ा ज ी को प ुक-ारा।माताजीपकटहईुतोरामकृषणकहतेहै
"माताजी ! गुरू महाराज कहते हैं िक मुझसे बररहरमजरञान का पररसाद ले ले। तो करया
अभी मुझे उनका ििर य बनना पड़ेगा?"
माताजीः "हाँ।"
रामकृिरणः "तो माताजी ! आपके दररशन का िल करया ?"
माताजीः "मेरे दरर न का, सेवा का, दान का िल यह है िक बररहरमजरञानी गुरू तुझे
आतरमा-परमातरमा का पररसाद देनेघर बैठेतेरेपास आयेहैं। यह मेरेदररशन का ही िल है।"
भगवान कहतेहैं-

तीथथ केसनान का िल कहो , जप का िल कहो, धरयान का िल कहो या दान का िल कहो, अगर कोई
सतरकमरर िवशेि रूप से ििलत हुआ है तो वह तुमरहारे हृदय में परम शांित देने के िलए
पररेरक बनकर परम शांितपानेका अवसर उपलबरध करायेगा। तब तुम समझ जानािक तुमरहारेकमोररंका परमिलिमल रहा
है।
अनुकररम
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भारत केपररथमरािटर ररपितडॉ . राजेनरदरर पररसाद बाबू जब रािरटररपित नहीं बने थे, वकालत ही
करते थे, तब की बात है। उनकेपास कोई सेठ आया और कहन ल े गाः "हमारे इस केस में सारे
कागजात हमारे पकरि के हैं। आप हमें कुड़की िदलवाकर अमुक िवधवा माई की समरपितरत
हमें िदलवा दीिजए।
डॉ. राजेनरदरर बाबू ने सारे कागजात देखे। वे कुछ धािमररक पररवृितरत के आदमी थे
अतः कागजात देखने के बाद उनरहोंने सेठ को कहाः "तुमन ह े स त ा क रऔरअँगूठेऐसेकरवािलय
औ र ग व ा ह ो की ग व ा ह ी ि ी ऐसी ल ी ह ै िक द ो प ा च सु न व ा इ य ो म े स ा र ा क े स तु म ह ा र े प क म े
हो जाएगा लेिकन उस िवधवा माई का सवररनाश हो जाएगा। उसका पित मर गया है इसिलए
तुमन ि े ो ख े स ेउ, ससे
ऐसायहसबकरवायाहै
मेरा िदल कहता है। मैं तुमरहें यह केस जीतकर दूँगा
तो मुझे अचछी िीस िी िमलेगी, मेरा नाम भी होगा और खोटा पैसा मेरे बिरिों की बुिदरध खराब
करेगा, मेरी बुिदरध को भी खराब करेगा। हक का होगा तो जीवन सुखी रहेगा, ना हक का होगा
तो देर सवेर ना हक कर देगा। िागय मे िजतना होगा उतना ही िटकेगा , ििर िाहे बेईमानी करो या ईमानदारी
करो। लेिकन ईमानदारी वाला पैसा सुख-शांित देगा और बेईमानीवाला नरकों में ले
जाएगा।
इसिलए सेठ ! मैं तो तुमरहें सलाह दूँगा िक तुम ये जाली कागजात िाड़ दो। जो आदमी
मर गया है उसने थोड़ा सा िलया होगा और तुमने बढ़ा-चढाकर बयाज और एक शूनय जयादा लगा दी।
तुम उस िविवा माई की रोटी छीनते हो। उसकेछोटे मासूम बचचे है। तुमहारे बचचो को तो बहतु सारा खाने -पीनेका है
ििर भी यिद तुम उसके बिरिों को खाने से मोहताज रखोगे या वे अनपढ़ ही रह जाएँगे तो
तुमहारे बचचे पढकर िी तुमहारा शोषण करेगे। यह कुदरत का िनयम है। "
,
, ।।
यह संसार का िनयम है िक जैसी धरविन वैसी ही पररितधरविन। आप जैसा िैंकते हैं
वैसा ही घूम-ििरकर आपके पास वापस आता है। आप अपमानयुकरत बोलेंगे तो आपका भी
अपमान होने लगेगा। आप दूसरों का शोिण करेंगे तो आपका भी शोिण होने लगेगा।
दूसरों का भला सोिेंगे तो आपका भी भला होने लगेगा और दूसरों का बुरा सोिेंगे तो
आपका भी बुरा होने लगेगा। दूसरों के िलए पिवतररता सोििए, मंगल सोििये ििर भले ही
आप दूसरों का मंगल कर सकें या न कर सकें लेिकन िजस अनरतःकरण में मंगल सोिा
जाता है उस अंतःकरण का मंगल तो अिी से होन ल े ग त ा ह ै । द सू रेकाबुरासोिचएऔरआपकेसोच
चाहे हो या न हो लेिकन बुरा सोचन स े े आ प का अ न त ः क र ण क ोअिीसेबुराहोनल े गताहै।य
औ र ि मथ आ द म ी क े स ा व ि ा न करत े ह ै िक च ौ र ास ी -चौरासी लाख जनमो मे िटकन क े ी दवुासनािीतेरे
पास है, औ र इ न ज न म ो क े कम ों को काटन क े ीक ै च 'मित'
ी भी तेरेपास है, अब तू िनबररनरध हो
अथवा उसी कैंिी से अपने हाथ काट, पैरकाट, आँखें काट, तेरी मजी।
जैसे तलवार का उपयोग रका केिलए िी होता है और अपन प े ै र ो प र ल ग ाओतोवहिवनाशकाकामिीकरत
है। ऐसे ही तू अपने सतरकमोररं के कमोररं को काटकर िनिरकमरर-िसिदरध को पा ले अथवा
अपने कुकमोररं से कमोररं को बढाकर भैंसा, कुतरता, घोड़ा बनने का काम कर। यह तेरे हाथ
की बात है।
इसिलए मनुषय जनम मे करन म े े स ा व ि ा न औ र ह ो न मेेपसनरहनाचािहए।जोकुछक
बरतो, जो पहले केकमों का िल िोगना पड रहा है उसे पसन िचि से गुजर जान द े ो । मन ुषययिदकरनमेेसाविानऔर
होने में पररसनरन रहा तो उसका जीवन धनरय हो जाएगा।
हम लोग अभी करया करते हैं ? करने में सावधान और होने में पररसनरन नहीं
रहते। पररारबरध वेग से जो हो रहा है उसमें ििरयाद करते हैं और जो िकये जा रहे हैं
उसमें दीकरिा नहीं है, िदशा नहीं है। जो िकये जा रहे हैं उसमें िदशा हो और जो पहले
का भोग रहे हैं उसमें समता हो तो पहले का पररारबरध गुजर जाएगा और नया बहुत
आनंदमयी हो जायेगा। भिविरय कलरयाणमय हो जाएगा और वतरतररमान भी िनभीररक रहेगा।
राजेनरदरर बाबू ने कहाः "सेठ जी। अगर तुम मेरी यह सलाह नहीं मानते हो तो मैं
इन कागजातो मे उस माई का पता तुमहारे सामन ह े ी ि लख र ह ा ह ू ँ । म ैउसमाईकीओरसेहीवकालत
पास यिद पैसेनहींहोंगेतो मैंआिथररकसहायता भी करूँगातािक उसकेबिरिोंको भूखोंन मरना पडे ़ । अभी भी समय हैसेठ
! मान जाओ या ििर जैसी आपकी इिरछा।"
सेठ के ऊपर राजेनरदरर बाबू की सिरिाई का ऐसा असर पड़ा िक उसने वे सारे जाली
कागजात
श िाड़ िदये और ऋण सरवरूप जो रा (50000 ि रूपये) उसके पित को िदये थे वह भी दान
का भाव रखकर माि कर दी। सेठ के हृदय में उस समय िजस ांित और आनंद का उलरलास
हुआ वह 50000 रूपयों के िमल जाने से नहीं होता। राजेनरदरर बाबू को तो बदले में
रािरटररपित का भी पद िमला। राजेनरदरर बाबू को तो पता ही नहीं होगा िक मेरे इस सिरिाई के
आिरण का पररभाव ऐसा पड़ेगा िक िसंहसरथ के अवसर पर संतजन भी मेरी कथा करेंगे।
भगवान की कथा मेंउन सजरजन की कथा आरही है, यह सिरिाई व दीकरिा का ही तो पररभाव है !
ऐिहक वसरतुओं का पिरवधररन व पिरमाजररन करके उपयोग में लाने की कला देने का
नाम है िकरिालेिकन अनरतःकरण को सुसजरज कर श ऐिहक वसरतुओं के सदुपयोग से सतरय को
पानेकी वरयवसरथा का नामहैदीकरिा।
जीवन मे यिद दीका नही है तो मनुषय पशु से िी बदतर हो जाएगा। िशिकत आदमी केजीवन मे यिद दीका की लगाम
नहीं होगी तो वह भयानक हो जायेगा। तुमने देखा और सुना होगा िक शेर जंगल में जाता
है तो बार-बार मुड़कर देखता हैिक पीछेसेआकर कोई मुझेखा न जाए। उसको कौन खाता है? शेर ने तो
हाथी के भी मसरतक का खून िपया है ििर भी वह डर रहा है करयोंिक उसका िहंसक मन ही उसे
भयभीत कर रहा है। ऐश ि ितहै, दीिकरित नहीं है वह अपनी मित, वाणी और वरयवहार
सेही मनुिरय केवल िकर
से िकसी की िहंसा करते हुए भी सुख के साधन जुटाएगा। सुख के साधन जुट जाना और सुख
होना, दोनों में परसरपर भेद है।
जीवन मे यिद िदशा नही है तो सुख केसािन अनिगनत हो ििर िी मनुषय को हृदय मे सुख नही िमलेगा। सुख की
तलाश मे वह ििर शराब िपयेगा, जुआ खेलेगा और कलबो मे नगंा होकर सुख केिलये नाचेगा लेिकन सुख उसे दो कदम दरू
ही िदखाई देगा। जीवन में यिद िदशा (दीकरिा) नहीं है तो भले ही हजार-हजार सुिवधा के
साधन आ जाएँ लेिकन हृदय में कुछ खटका बना ही रहेगा। दीकरिा ही एक मातरर ऐसी िदशा है
जो हृदय केखटकेको हटा देती है। सुख केसािन कम हो या अििक ििर िकसी पकार की िचनता या आसिकत नही
होती।

सुख आ जाए िाहे दुःख आ जाए, योगी की तो परम गित होती है। आने जानेवाली
चीजो मे वह आसकत नही होता है अिपतु अनासकत िाव से उनका उपयोग कर लेता है।
उपयोग तथा उपभोग, परसरपरिभनरनअथररवालेशबरद हैं। आपभोजन करतेहैं, यिद सरवासरथरय का धरयान
रखते हुए भोजन कर रहे हैं तो आप भोजन का उपयोग करते हैं लेिकन मजा लेने के
िलए ठूँस-ठूँसकर खा रहे हैं तो आप भोजन का उपभोग कर रहे हैं। यिद आप िकसी वसरतु का
उपभोग करने के आदी हैं तो वह वसरतु भी आपका उपभोग कर लेगी। उदाहरणाथररः शराबी
शराब को करया पीता है, शराब ही शराबी को पी जाती है। ऐसे ही भोकरता भोगों का करया भोगता
है, भोग ही भोकरता को कमजोर कर देतेहैं।

हम भोगों को भोग न सके लेिकन भोगों ने हमें भोग िलया। आव शर यकता से अिधक
कुछ भी भोगा तो शरीर कमजोर पड़ता ही है। आपकी शिकरत में वृिदरध हो ऐसी एक बात आप
समझ लीिजएः शरीर की िवशररांित से, बाहरी भोगोंकोिवसरमृत करनेसेआपबाहर का सब कुछभूलकरिनदररा
में िले जाते हैं और पररातःकाल में आप एकदम तरोताजा व ताकतवाले बनकर उठते
हैं अथाररतर शरीर के आराम से, नींद से आपकी थकान िमटती है व शरीर का सरवासरथरय
अिरछा रहता है। यह सबका अनुभव है। ऐसे ही मन के िालतू संकलरप-िवकलरप छोड़ देने
से मन सरवसरथ व सामथरवाररन होता है तथा बुिदरध में दीकरिा का पररभाव आने से बौिदरधक
िवशररांित िमलती है िजससे बौिदरधक बल बढ़ जाता है।
शरीर की िवशररांित से शरीर सरवसरथ होता है, मन की िवशररांित से मन सरवसरथ होता है
बु
िदरधमेंसमता आनेसेमित मेंसामथरयररआता है। मितका सामथरयररपरमातरमा का साकरिातकार
र करा देताहै।
सरल उपाय यह है िक तुमरहारी मित में समता भर दो। ॐ...ॐ....ॐ.... सबमें एक.....
ॐ.....ॐ.....ॐ.... सब परमातरमा का सरवरूप.....। थोडे़िदन ईमानदारी सेअभरयास करो। मितमेंसमता आने
लगेगी। समता का पिाव ऐसा होगा िक आपकेशतु िी आपकी शतुता मे सिल नही होगे। िमत तो आपकेिमत होगे ही
लेिकन शतु का हदृ य िी आपकेिलए सदा झुका रहेगा।
ॐ.... नारायण.... नारायण..... नारायण....
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
िबररिटश शासनकाल की बात है। गुजरात केसौरािटर ररकिेर तररमेंिसरथतिगरनार पवररतपर एक योगी योगसाधना करते
हुए अपने योगधमरर में िनमगरन थे। उनकी सेवा में एक कोली मिहला लगी थी जो बाबा को
रोटी सबरजी दे जाती थी। उसका पित आजीिवका के िलए कोई वरयवसाय करता होगा। एक िदन
अिानक पित का िनधन हो गया। ििर वह माई अपनी मेहनत से अथवा कहीं िभकरिा माँगकर भी
भोजन लाती औरउन योगी की योगसाधना मेंसहयोग करती थी।
उन योगी ने 12 विरर तक अपना योगधमरर िनभाया। िलतः उनमें अनेक िसिदरधयाँ व
शिकरतयाँ िवकिसत हुईं। मनुिरय िजतना जप, तप, िनयम, सतरसंग एकांतवास करता है उसकी
उतनी ही आतरमशिकरत िवकिसत होती है, यह सरवाभािवक है। लेिकन व अकेला ही जप-तप करता
रहे और सतरसंग न करे तो इससे उनका अजरञान दूर नहीं होता। आतरमवेतरता बररहरमजरञानी
महापुरूिों के िरणों में बैठने से ही अजरञान दूर होता है। अकेले वररत, उपवास, जप तप
करना ठीक है लेिकन सतरसंग में आकर भगवदाकार वृितरत करना और अपनी गलितयों को
ढूँढकर उनरहें िनकालकर अपने शुदरध सरवरूप को पा लेना, सवोररिरि िविय है।
उन योगी ने कुछ यौिगक शिकरतयाँ पररापरत कर ली थी। 12 विरर पूणरर होने पर जाने
लगे तो कोली माई न ि े व "तनीकीः
बाबाजी ! मैंने आपकी अथक सेवा की, न िदन देखा न रात, न तूिान
देखा न बािरश। आप जा रहे हैं तो मुझे कुछ दे जाइये।"
बाबा नेकहाः"माँग, करया िािहए ?"
मिहलाः "बाबा ! आपको जो अिरछा लगे, वह दे जाइये।"
बाबाः "अिरछा, बैठऔरभगवान का नामले।"
वह भगवान का नाम लेती गई और बाबा ने अपनी िनगाहों दरवारा शांभवी दीकरिा देते
हुए उस पर संपररेकरिण शिकरत बरसाई तो उस माई की थोड़ी परराणशिकरत-कुंडिलनी शिकरत जागृत
हुई। बाबा ने देखा िक बीज बो िदया है और वह बीज िूट िनकला है। उनरहोंने कहाः "अब तू
िसंिाई करती रहेगी तो योगसामथरयरर भी आएगा और उससे आगे जाना िाहेगी तो परमातरमा
का साकरिातरकार भी हो जाएगा।"
वे योगी तो िले गये। अब उस माई ने िगरनार की गुिा में योगसाधना आरंभ की।
सपरताह में एकबार वह जूनागढ़ में िभकरिा माँगने आती और िभकरिा में िमले आटा-दाल
से अपने िटकरकड़ बना अपनी भूख िमटाती। बाकी का सारा समय साधना में वरयतीत करती।
ऐसा करते-करते माई ने कुछ समय िबताया। एक िदन उसके मन में आया िक 'मुझे कुछ
सामथरयरर वगैरह िमला भी है िक नहीं ?" मनोबल तो िवकिसत था ही उस माई का, कुछ छोटे-
मोटे पररका , नीलिबनरदु दररशन इतरयािद अनुभूितयाँ भी हुई थीं लेिकन गुरू जी ने कहा थाः

उसने योग का बल परखने के िलए िविार िकयाः "मैं इस झोली और डंडे के साथ
हमेशा िभकरिा माँगने जाती हूँ लेिकन अब मुझे जाने की करया जरूरत है ? मैं अपने योग
बल सेिभकरिामँगवाऊँगी। ''
उसने डंडे को पकड़कर आड़ा िकया और उसमें िभकरिा माँगने का झोला टाँगकर
अपनी योगशिकरत का संकलरप उसमें सरथािपत िकया िकः "जाओ ! िजन घरो से मै आटा-दाल लेकर
आती हूँ, उन घरों से िभकरिा लेकर आओ।"
आजरञा पाकर झोला टँगा हुआ वह डंडा िला। िगरनार की ऊँिाई से जब झोली-डंडा
जूनागढ की बसती मे पहँचु ा तो लोगो न आ े िय थ म य ी द ि ृ ष स ेदेखािकजोगननहीआईऔ
लोग आियथ से पणाम करन ल े गे।
िजस-िजस घर से झोली मे ििका िमलती थी, उन घरों के लोगों ने देखा िक माता जी नहीं आई
लेिकन उनकेडड ं े मे लटकता झोला आया है। उनका तो अहोिाव था और जो कुछ आटा -दाल देना था, उस झोले
में डाल िदया। यह बात िबजली की नाई पूरे जूनागढ़ में िैल गई और राजा के कानों तक
भी बात पहुँिगई।
राजसी पुरूि बड़े ितुर होते हैं। वे देखते हैं िक ऋिदरध-िसिदरध और शिकरतपररापरत
महातरमा है तो उनरहीं के पास जाएँगे अथवा िजसको लाखों लोग जानते-मानते हैं ऐसे
लोगो केपास जाएगँे। कोई िवरले राजा ही शाित पान क े े उ द े श य स े ज ाएगँे।बाकीतोअििकाशराज
लेन क े े ि लए ज ा ए ग ँ े अ थ े ीकोिशश
वातोििरलोकसंतकीलोकिपयताकालािलेनक
जो िी हो, उस राजा को भी उस जोगन के पररित शररदरधा हो गई। राजा ने जोगन के पास
चकर लगाना शुर कर िदया। राज-काज में लाभपररािपरत के िलए उसने जोगन को पटाने की एक
युिकरत खोज ली। उसने कहाः "माता जी ! िजस पकार राजा जनक केदरबार मे गागी पिारी थी और राजय को
पावनिकया था, इसी पकार आप िी इस युग की गागी है, माता हैं जगदंबा हैं। आप भी हमारे
राजदरबार में पधारने की सरवीकृित देकर ितिथ दीिजये।"
माताजी हाँ-ना, हाँ-ना श करती रही। अतंतः एक िदन िन ि र ि तहोगयािकजोगन
आयेगी राजदरबार को पावन करने के िलए। वह जोगन गुरू िक थोड़ी-सी शिकरत लेकर उनरनत
हुई थी िकनरतु उसे अभी सतरसंग का रंग नहीं लगा था। उसका जोग अभी किरिा था।
सामथरयरर आना एक बात है और सामथरयरर के साथ साथ सतरसंग करके 'सतरय करया ?
असतरय करया ? धमरर करया ? अधमरर करया ?" यह समझकर वरयवहार करना दूसरी बात है। िकरत
आ जाना व पररिसिदरध िमलना पृथक िविय है करयोंिक शासरतररानुकूल जीने से ही शिकरत बनी
रहेगी, शासरतरर-पररितकूल जीवनिजयेतो शिकरतऔरसामथरयररदोनोंही करिीणहो जाएँगे।
उस जोगन ने सोिा िक राजा पररभािवत हैं। करयों न मैं अपनी योग शिकरत से कुछ और
भी करिदखाऊँ ?
ऐसे कई जोगी मेरे भी पिरिित हैं जो आकाश में हाथ घुमा दें भभूत िनकाल देते
हैं। सोने की िरंग िनकाल देते हैं। यह कोई हाथ की सिाई नहीं, उनके पास िसरथत
मानिसक शिकरतयों का कमाल है। लेिकन मेरे गुरूदेव ने मुझे ततरतरव िदया है उसके
आगे तो वे सारी िीजें मुझे बहुत छोटी लगती हैं। ऐसे जोिगयों को मैं जानता हूँ जो
अदृ शर य हो जाते हैं। ऐसे जोिगयों से भी मेरा समरपकरर था जो हवा पीकर जीते थे। वे
मेरे िमतरर रहे हैं। 12-12 विोररं के दो मौन रखें तथा िजनके सामने नमररदाजी पररकट हो
जाएँ , हनुमानजी पररकट हो जाएँ, हनुमानजी के साथ गगनगामी उड़ान लेकर वापस आ जाएँ,
ऐसे लोगों को मैं जानता हूँ, लेिकन आतमजान की दिृष से जब देखता हूँ तो वे मेरे आगे .....
वे मुझे पररणाम करते हैं, मेरा अतरयिधक आदर करते हैं। वे लोग जब मुझे
पररणामकरतेहैंतो मैंअपनेगु रू देवसाँईंशररीलीलाशाहजी बापू की उस करूणा-कृपा को पररणाम करता हूँ िक मेरे
गुरूदेव ! आपने मुझे करया दे िदया ! आहा...."!
,

बररहमिवदर
र यािीज ही ऐसी हैिकः

..... िजसन ए े क क ण ि , बररहम-र परमातरमािसथरकरिदयाहै


ी अ प न ामनबहिवचारमे को पा
िलया है उसन स े ा र े तीथों,मउसने
ेसनानकरिलया
सारे दान दे िदये, उसने सारे यजरञ कर िलये।
लोग तो गोदावरी मे सनान करन ज े ा त े ह ै ल े ि क न व ह ीगोदावरीनारीकारपलेकरए
थी। एकनाथजी ने कहाः "माताजी ! मैं खुद ही आपके िकनारे सतरसंग करने आया करूँगा।"
गोदावरी ने कहाः "नहीं महाराज ! नािसक के कुंभ में लोग गोदावरी माता की जय
करके गोता मारकर अपने पाप मुझमें छोड़ जाते हैं। आप जैसे बररहरमजरञानी पुरि ू के
सतरसंग में मैं नारी का रूप लेकर पैदल िलकर आती हूँ। एक-एक कदम िलकर सतरसंग
में जाने से एक-एक यजरञ का िल होता है। महाराज ! आप मुझे पहिानकर मेरे िनिमतरत
अनेक ताितरतरवक बात बोलते हैं इस कारण 'बहुजनिहताय-बहुजनसुखाय' का उिरि ताितरतरवक जरञान
लोगो को िमलता है। महाराज ! रासरते में दुिरट लोग भले ही मेरा मजाक करें लेिकन दुःखी होना
न होना अपने हाथ की बात है। महाराज ! वे िाहे िकसी भी नजर से मुझे देखें लेिकन
मेरी अपनी जीने की नजर है जो मुझे आपके सतरसंग में िमली है।"
कोई आदमी िाहे आपको कुछ भी, कैसा भी कहे, लेिकन अपनी अकल यिद आप समता का पसाद
पायेहुए हैंतो लोगोंकेउलाहनेदेनेसेआपदुःखी हो या सुखी नहींहो सकतेहैं। जो अलरप मितकेहोतेहै ,ंवे दूसरों
के िढ़ाने से िढ़ जाते हैं, उतारने से उतर जाते हैं, उनका जीवन जमररन-टॉय की
तरह होता है। लेिकन जो जातजेय होते है , सतरसंगी व सगुरे होते हैं और आतरमवेतरता सदगुरू के
े ििरयहोतेहैंवेजानतेहैंिकिजतनीिननरदा घातक है, उतनी ही सरतुित भी घातक है। िजतना अपमान
पकरक

घातक उतना ही मान घातक है।

,
गोदावरी मैया कहती हैः
"महाराज ! 'चाह मात दःुख है' – यह आपकी कथा से जाना है, इसिलए मै चाहरिहत चैतनय मे रमण
करने के िलए आपके िरणों में आती हूँ।"
जो एकनाथ जी की िननदा करते थे उन चाडाल चौकडी केलोगो को िी आियथ हआ ु िक इस बाबा केसतसंग मे हम
तो आलोचनातमक दिृषकोण से गये थे, कुभाव से गये थे ििर भी गोदावरी माता के दरर न हुए। यिद
अिरछे भाव से जाते तो हमें भी आतरमा परमातरमा का रस िमल जाता। एकनाथ जी महाराज
के िरणों में वे लोग नतमसरतक हुए और अपने सजल नेतररों से उनरहोंने एकनाथ जी के
चरणो का अििषेक कर िदया।
एकनाथजी तो संत पुरूि थे। उनरहोंने उन पिततों को भी गले से लगाकर उदरधार कर
िदया। एकनाथजी से वे लोग इसिलए ििढ़ते थे िक एकनाथजी का सतरसंग सुनकर जनता
वहमों से, टोटके, डोरे-धागों के बंधनों से िनकल िली थी इस कारण जो लोग 'अला
बाँधूं.... बला बाँधूं.... पररेतबाँधूं.... डािकनी बाँधूं..... ािकनी बाँधूं..... हूरररऽऽऽ...... िूरररऽऽऽ..... कनरया-
मनरया कूरररऽऽऽ..... ले यह ताबीज..... ले यह िागा....' के धंधे में िलपरत थे उनका धंधा बनरद हो
रहा था।
सिरिे संत समाज में आते हैं तो समाज में शांित िमलती है, जान िैलता है , पररेमका
िवसरतार होता है और वहमों से एवं ठगे जाने वाले आकिररणों से समाज सावधान हो
जाता है। ऐसे संत जब समाज मे आते है तो समाज का शोषण करन व े ा ल ो क ो त कलीिहोतीहै।कबीरजीऔर
जी केिलए लोगो न ऐ े स े क ई षड य न त र च े े ोईदःु
ल ेिकनबदलेमेइनमहापुरषोनक

।।
मीरा के िलए भी लोगों ने करया नहीं िकया ? मीरा के देवर ने िवदरयालय के बिरिों
व अधरयापकों तक को िसखा िदया था िक मीरा के िलए ऐसा-ऐसा पररिार करो। दीवारों पर िलख
िदया जाता था िक मीरा ऐसी है.... वैसी है....। ििर भीिलखनेवालेकौन सेनकररमेंहोंग,ेभगवान जानें,
पढ़करिननरदा करनेवालेन जानेिकस अशांित की आगमेंजलतेहोंगेलेिकन मीरा तो मािलक सेिमलकर तर गई।
लोग अिी िी मीरा केनाम से िजन गाकर दो -दो घंटे के पररोगरराम के तीस-तीस हजार रपये कमा रहे है-
" .... ...."
उस जोगन ने सोिा िकः "मैं जाऊँ तो सही लेिकन जैसे गागीरर राजा जनक के
दरबार में िदगमरबर होकर गयी थी उसी तरह िदगमरबर होकर जाऊँ।" गागीरर तो आतरमजरञानी थी
लेिकन इस जोगन न य े ो ग की थ ो ड ी स ी ह ी ि स िदपाईथी।अगरचपरासीत
अपेकरिा वह बड़ा साहब है लेिकन रािरटररपित के आगे तो वह बहुत छोटा है। ऐसे ही
साधारण आदमी में से कोई यिद कुछ योगशिकरत पररापरत कर ले तो साधारण आदमी की
अपेकरिा तो वह बड़ा है लेिकन साकरिातरकारी बररहरमजरञानी महापुरूिों के आगे तो वह
बिरिा है।
ऐसे कई बिरिे मेरे िमतरर हैं, िजनकी साठ-साठ विरर की उमरर व 24-24 विोररं का मौन
है लेिकन आज भी मुझे अतरयिधक आदर से नमन करते हैं। हालाँिक उनकी उमरर से तो
मेरे शरीर की उमरर छोटी है, उनके मौन से मेरा मौन बहुत छोटा है, लेिकन मेरे गुरदेव सवामी शी
लीलाशाहजी महाराज न म े ु झ े , उसकी ऊँिाई का मुकाबला तो कोई भी दजारर
ज ोतततवजानकापसादिदयाहै
नहीं कर सकता है।
उदाहरणाथररः बैलगाड़ी की मुसािरी 50 विोररं की हो और हवाई जहाज की मुसािरी
मातरर 50 घंटों की हो तब भी बैलगाड़ी अमेिरका की यातररा नहीं करवा सकती जबिक हवाई
जहाज तो अमिरका िदखाकर 50 घंटों में वापस भारत में छोड़ सकता है। इसी पररकार कुछ ऐसे
िवहंग साधन होते हैं जो शीघररता से इस जीव को बररहरमसाकरिातरकार करवा सकते हैं। कुछ
साधन अपने ढंग के होते हैं जो जीव को कुछ ऊँिाई तक तो ले जाते हैं लेिकन उनमें
साकरिातरकार कराने की करिमता नहीं होती।
ताितक सािना मे परमातमा का साकातकार करान क े , कमररकांड परमातरमा का
ी शिकतनहीहै
साकरिातरकार नहीं करवा सकता, तीथथसनान मे िी परमातमा का साकातकार करान क े ा स ामथयथनहीहै।तीथथसनान
से हृदय पिवतरर होगा, भाव शुदधहोगा र लेिकन उस पिवतररहृदय और शुदधभाव
र सेिकसी महापुरि
ू को खोजकर
सतरसंग सुनेगा तब उस तीथरर का िल पुणरय और परम पुणरय में बदलेगा।
,
,
अगर तीथररसरनान से ही परमातरमा िमल जाते तो सबसे पहले मेंढकों व मछिलयों
को परमातरमा का साकरिातरकार होना िािहए था करयोंिक वे बेिारे तो तीथरर से बाहर कभी
िनकलते ही नहीं हैं। हालांिक तीथररदररशन व तीथररसरनान करना िािहए करयोंिक इस सतरकमरर
से बुिदरध पिवतरर होती है। पिवतरर बुिदरध में ही सतरसंग की रूिि होती है। पापी बुिदरध में
सतरसंग की रूिि नहीं होती है। पुणरयों की वृिदरध और अनरतःकरण की पिवतररता से ही सतरसंग
में बैठने की इिरछा होती है। अित पापी आदमी तो सतरसंग की जगह पर पहुँि भी नहीं
सकता है और यिद पहुँिकर बैठ गया तो आप उसे अित पापी मत समझना। उसके पाप अलरप
हैं और यिद वह बैठा रहेगा तो पाप करिीण हो जाएँगे। ििर नया पाप न करे तो वह महातरमा
बन जाएगा। िाहेउसकेकपडे ़महातरमा केन भी होंलेिकन उसकी आतरमा तो महानर बननेलगेगी।
उस जोगन ने सोिा िक कुछ ऐसा करूँ िजससे गागीरर जैसी मेरी पूजा हो। जोगन को
आतरमयोग तो था नहीं, केवल भीतर के िकररयायोग की थोड़ी सी कुँजी िमली थी, संकलरपशिकरत
िवकिसत हुई थी। आप िकसी के िलए दुआ कर दो तो वह सिल हो जाए यह एक छोटी सी बात है
लेिकन दआ ु जहा से आती है उस दआ ु केिड ं ारसवरप आतमा -परमातरमा का साकरिातरकार करनािनराली बात है।
आपके घर में लाईट िििटंग हो गई, 10 वॉट, 25 वॉट, 40 वॉट या 100 वॉट का बलरब
जलता है लेिकन यिद वही 200 वॉट का एक बलरब और लग गया तो तुम पावर हाऊस तो नहीं हो गये
भाई ! चूहे को हलदी की डली िमल गई तो वह िबल मे जाकर मूँछे ऐठंन ल े ग ग य ा ि क हमिीदक ु ानदारहैकयोिक
दुकानदार के पास भी यही वसरतुएँ होती हैं।
राितरर में कहीं शरािबयों की महििल हुई थी। शराब के नशे में धतरत होकर वे वहीं
लुढककर सो गये। जब चूहे बाहर िनकले तो िशथ पर िवहसकी की दो-चार बूँदे कही ढुली पडी थी। िकसी चूहे न च े ाटली
तो नशा चढ गया। वह चूहा दो पैरो केबल खडा हो गया और अपनी मूँछे ऐठंन ल े गाः "बुलाओिबलरली की बिरिी को.....
कहाँ रहती है ? अब हम उससे नहीं डरते।"
कहने का तातरपयरर यह है िक बोतल के बल से आई हुई िनभीररकता वासरतिवक नहीं है।
अभी िबलरली आयेगी तो सरवाहा कर लेगी। िूहे में से तुम मनुिरय बन जाओगे तो िबलरली से
नहीं डरोगे लेिकन िूहा रहकर शराब के बल पर तुम िबलरली के साथ िभड़ोगे तो वही हाल
होगा जो दूसरे िूहों का होता है। ऐसे ही जीव होकर तुम मौत से िभड़ोगे तो जैसे अनरय
जीवो का हाल होता है, ऐश
सा ही तुमरहारा भी हाल होगा। जीव के सरथान पर िवतरव को तुम पा लो, ििर
मौत आये, मौत का बाप आए, उसके साथ आँख िमलाओगे तो वह तुमरहारे िरणों में झुक
जाएगी और तुम उसकेिसर पर पैर रखकर मुकतातमा होकर परमातमा से िमल जाओगे।
दुिनया के सब राजा िमलकर जो िीज नहीं दे सकते, दुिनया के सब सैिनक िमलकर
जो चीज नही दे सकते, हजारों-हजारों जनरमों के माता-िपतािमलकर जो िीज नहींदेसकतेवह िीज सतरसंग
में हँसते-हँसते सहज ही िमल जाती है। इसिलए सतरसंग ही सबसे ऊँिा साधन माना गया
है। तुलसीदास जी कहा हैः
,
,
सतरसंग के पुणरय की बराबरी तो सरवगरर का पुणरय भी नहीं कर सकता है। शुकदेवजी
महाराज परीिकरित को सतरसंग सुनाने का संकलरप करके धरयानसरथ हुए तो आकाश में देवता
लोग िदखाई िदये। उनहोन प े ाथथ"नमहाराज
ाकीः !शआप बररहरमजरञान का जो सतरसंग अपने ििरय
परी
िकरितको सुनानेजा रहेहै ,ंकृपा करके उसके बदले हमारे िलये संकलरप कीिजए और हमें ही
बररहमर जर
ञानपररापतर हो, ऐसी कृपा कीिजये। बात रही परीिकरित की तो उसे सरवगरर का अमृत देकर अमर
लोक की याता करवा देते है।"
शुकदेव जी ने कहाः "सरवगरर का अमृत पीने से अपरसराएँ िमलेगी, अमरावती
िमलेगी लेिकन पुणरय करिीण होते ही पुनः िगरना पड़ेगा जबिक सतरसंग सुनने से पाप खतरम
होते हैं। सरवगरर में रहने से अपरसराएँ िमलती हैं, लेिकन सतसंग मे रहन स े े द ेरसबेरआतमाको
परमातरमा की मुलाकात होती है। देवता लोग ! तुम चालाकी करते हो। हीरा लेकर तुम काच का टुकडा देना चाहते हो। मै
तुमहारे िलये संकलप नही करँगा , मेरा परीिकरित ही उसका अिधकारी है।" ऐसा कहकर शुकदेव जी ने
देवताओं को इनरकार कर िदया।
कैसे िकरकड़ होते हैं संतजन.....! राजा-महाराजों पर जब तक वे उदार हैं, सरल
हैं तब तक तो ठीक है, लेिकन यिद संत अड जाए त ँ ो उ न क ेिलएदे ? इनि कया होता है ?
वताकयाहोताहै
,
, ?

वे संत ऐसे आतरमदेव को पा लेते हैं। उस आतरमदेव को पाये िबना िगरनार की वह


बेिारी जोगन आतरमजरञािनयोंसा ढोंगकरनेलगी । ढोंगकरनेसे शिकरतकरिीणहोती है। नकल करनेमेंभी अकरल िािहये
नहीं तो शकल बदल जाती है। जोगन ने सोिा िक मैं राजा के यहाँ जाऊँ तो जैसे गागीरर
गई थी जनक के दरबार में, ऐसे ही मैं भी एकदम परमहंस होकर, िदगमरबर होकर जाऊँ, तािक
मेरा पररभाव बढ़ जाये। वह रथ में िनवररसरतरर बैठकर राजदरबार में गई।
मूखोररं ने उसे देखकर वाह-वाही की लेिकन राजा के दरबार में कायरररत बरराहरमण
मंतररी की वेद-वेदांत व शासरतररजरञान में पारंगत पतरनी ने सोिा िक राजा भले ही इसे
माता जी माने, पूजा करेिाहेइसका आदरकरे, ििर भी खुले आम सरतररी का िनवररसरतरर होकर
िनकलना सामािजक धमरर नहीं है। साधु भी जब समाज में रहता है तो कुछ ओढ़-पहनकर ही
चलता है।
जो लोग समाज मे िनवथसत होकर बैठते है उनहे इस सूत का धयान रखना चािहए। तुम िगिर-गुिा में हो तो
भलेनंगधड़ंगबैठो, चलेगा लेिकन जब िसंहसथ कु ंि या समाज मे ऐसी जगह आते हो जहा से मा-बहनेिनकलती ह,ैंवहाँ
तो तुमहे लोक-लजजा िनवारणाथथ, जैसे िशवजी िी ओढ लेते है, ऐसे तुमको भी कुछ ओढ़ना िािहए।
यह सामािजक धमरर है। तुम जब समाज में जाते हो तो समाज की वरयवसरथा न िबगड़े,
यह पररतरयेक नागिरक का कतरतररवरय है। ऐसे ही घर में कौटुिमरबक धमरर व सतरसंग में
सतरसंग धमरर होता है। तुम सतरसंग में िलकर आते हो तो एक-एक कदम िलने पर एक-एक
यजरञ करने का िल िमलता है लेिकन िालू सतरसंग में पीछे से आकर आगे बैठो तो
पीछेवालेको कथा मेंबाधा पहुँिानेसेकथा मेंआनेका पुणरय निरटहो जाता है।
जैसे गाडी चलाना हो तो पहले गाडी सटाटथ करो, एकरसीलेटर दो, ििर िगयर दो, ििर धीरे-धीरे
करलि छोड़ते हुए एकरसीलेटर से गित बढ़ाओ.... यह डरराईिवंग का धमरर है। पहले से ही
यिद तुम एकरसीलेटर की जगह बररेक पर पैर रखोगे अथवा बररेक की जगह तुम एकरसीलेटर
पर पैररखोगेतो डररायिवंगधमररसेआपिरयुत होकर सरवयंकेिलए खतरा पैदाकर लोगे।
से ही 'सरव' सरवधमरर होता है। जीव का वासरतिवक धमरर है अपने ई शर वर से जुड़ना।
शरीर का धमरर है आवास, वसरतरर, अनरन। मन का धमरर है मनन करना, बु िदरधका धमररहैिनणररयकरना,
साँसों का धमरर है शरीर का संिार करना लेिकन आपका धमरर है सरवयं को जानकर जीवन की
शाम हो जाये उसके पहले जीवनदाता का साकरिातरकार करना।
उस जोगन ने तो यह िकया ही नहीं और पररिसिदरध की लालि में िगरकर िनवररसरतरर हो
राजदरबार में पहुँि गई। राजा और पररजा दोनों ने ही उसे नवाजा।
लेिकन किी-कभी पररजा में भी िहमरमतवाले लोग िनकल आते हैं। उस मंतररी की
पतरनीको बहुत दुःख हुआ। मंतररीजब घर आया तो वह कहनेलगीः"पितदेव! आप तो बरराहरमण हैं, शासरतरर के
जाता है। वह अलप मित की माई, जो थोडी सी शिकत िमलन क े े क ा र ण स ा मािजकिमथकाखंडनकरकेसव
िसदरध सािबत कर रही थी। मेरा मसरतक तो झुका नहीं अिपतु मेरे िितरत में एक तूिान पैदा
हुआ िक हमारे सनातन धमरर, िहनरदू धमरर की रकरिा के बजाय वह तो इसका िवना कर रही है।
यहाँ सामािजक धमरर का हररास हो रहा है। आप राजा को समझाइये।"
मंतररी ने कहाः "राजा इस जोगन पर इतना लटरटू हो गया है, मूखरर बनकर उससे इतना
पररभािवत हो गया हैिक यिद मैंकहूँगातो वह मुझेबरखासरत कर देगा।"
मंतररी की पतरनी ने सोिा िक मंतररी को तो अपना पद खोने का भय है लेिकन मैं तो
अपना कतरतररवरय िनभाऊँगी।
यह मिहला जब बिरिी थी तब अपने िपता के साथ िकसी महापुरूि के सतरसंग में जाती
थी। उस समय तो सतरसंग के पररभाव का पता नहीं िला लेिकन देर सबेर सतरसंग में िमले
संसरकार अपना असर तो िदखाते ही हैं।
वह मंतररी की पतरनी अपने पित के सोने के बाद रात के 12 बजेउठी औरआतरमरकरिथरर ा एक
खंजर अपनी साड़ी के पलरलू में खोंसकर िगरनार की ओर िल पड़ी। सीिढ़याँ िढ़ते-चढते
उसे एक योगी पुरूि की गुिा में जाने का रासरता िदखा। वह उस पर िल पड़ी और गुिा के
दरवार पर पहुँिकर दसरतक दी। मधरय राितरर में दसरतक की आवाज सुनकर योगी ने पूछाः
"कौन है ?"
मिहलाः "मैं अमुक मंतररी की धमररपतरनी हूँ।"
दरवार खोलते ही योगी िौंकेः "मिहला ! इतनी रात गये अबला बाई तू कैसे आई है ?"
मिहलाः "महाराज ! मैं अबला नहीं, सबला हूँ।" खंजर िदखाती हुई वह आगे बोलीः
"अपनी रकरिा करने की मुझमें िहमरमत है। यिद कोई मेरे ील को अंगुली लगाने की भी
ु ी हूँ। "
चेषा करता तो मै उसकी अंगुली काट लेती। इस बल से मै आपकेदार तक पहँच
उस मिहला के िनभीररक विनों से पररसनरन हुए संत ने पूछाः "कहो, करया बात है ?"
मिहलाः "महाराज ! मुझे नींद नहीं आती। मैं बड़ी दुःखी हूँ। हमारे िहनरदू धमरर की,
सनातन धमरर की हािन हो रही है। िगरनार में रहने वाली अमुक जोगन िनवररसरतरर होकर
राजदरबार में समरमािनत हो रही है। कल दूसरी माँ-बहनेंभी ऐसा करेंगीतो समाज मेंभररिटर ािार वरयापतर
होगा। महाराज ! कुछ भी कीिजयेगा लेिकन इस जोगन को सबक िसखलाइयेगा।"
महाराज ने पूछाः "करया सबक िसखाऊँ ?"
मिहलाः "महाराज ! मेरा उससे कोई वरयिकरतगत दरवेि नहीं है, लेिकन िकसी िी पकार से
वह कपड़े पहनना सीख ले। िनवररसरतरर होकर राजदरबार में आना उसकी तररुिट थी, सा उसे
पता िल सके, ऐसी कुछ कृपा कीिजये।"
महाराज ने कहाः "अिरछा, अब तू जा। ििनरता मत कर। तेरा काम हो जाएगा। मैं उस
जोगन को वापस कपडे पहनना िसखा दँगूा।" महाराज ने मंतररी की पतरनी को इतना आ शर वासन देकर
रवाना िकया।
महाराज के िरणों में एक पररेतातरमा अपना उदरधार करने के िलए आयी थी।
महाराज ने उसका नाम गंगाराम रखकर भजन करने के िलए उसे िकसी गुिा में छोड़ रखा
था। महाराज ने पररेत को बुलायाः "बेटागंगाराम!" सुनते ही पररेत हािजर हो गया। महाराज ने
उसे आदे िदयाः "उस जोगन के पेट में घुस जा और सुबह होते होते उसके भीतर दस
महीने का बिरिा हो जाना तािक उसे पता िले और जब तक मैं आजरञा न दूँ तब तक अनरदर
ही िहलते-डुलते रहना। उसे ऐसा महसूस होना िािहए की बस, अभी पररसूित हुई..... अभी पररसूित
हुई।"
गंगाराम उस जोगन के पेट में घुस गया। पररातःकाल में जब जोगन उठी तो देखकर
चौक गईः "अरे बाप रे.....!" एकाध बिरिे को पूवरर में जनरम देने का उसे अनुभव भी था। वह
देखती है िक यह तो अभी ही पररसूित होने वाली है। अब िकसे मुँह िदखाऊँगी। मैं तो
एकानरत भजन करने वाली जोगन हो गई थी। अगर कोई अभी मुझे बिरिे को जनरम देनेवाली
माँ के रूप में देखेगा, सुनेगा तो मेरी इजरजत ही िमट जाएगी।' ऐसा सोिकर वह दुःखी होकर
अकेले में रोती रही..... रोती रही। झोली-डंडे का िमतरकार भूलकर वह पेट के िमतरकार
को ठीक करने की ििनरता में िििनरतत रहने लगी।
कहीं वह राितरर में आतरमहतरया न कर बैठे इसिलए उस योगी महातरमा ने मंतररी की
पतरनीसेकहा था िक दो िार गुपरतिर भेजदेतािक उस पर नजर रखी जा सके।
अलग-अलग सरथानों पर अलग-अलग वेश में दो मिहला व दो पुरूि गुपरतिर के रूप
में तैनात कर िदये जो िौबीसों घंटे उस पर नजर रखे हुए थे। एक रात वह जोिगन अपने
साथ अनरयाय करने को उदरयत हुई। उसने अपनी पीठ पर पतरथर बाँधा और िल पड़ी िगरनार की
िकसी ऊँिाई से कूदकर आतरमहतरया करने के िलए। िनयत सरथान पर पहुँिकर वह कूदने के
िलए कदम बढा ही रही थी िक गुपतचरो न उ े सेपकडिलया।
गुरूजी को बुलाया गया। उनरहोंने पूछाः "करयों बाई ! आतरमहतरया करयों कर रही थी ?"
वह िगड़िगड़ाकर रोने लगीः "महाराज ! मैं िनदोररि हूँ लेिकन मुझे यिद पररसूित हो
़ंगे। महाराज ! यहाँ का राजा भी मुझे
गई, बिरिा पैदाहो गया तोिगरनार की गुिाओंकेसारेसाधु मुझ पर टूट पडे
मानता है.... वह करया कहेगा ?"
महाराज ने कहाः "वह करया कहेगा, यह सोिती है लेिकन नगरन होकर जाऊँगी तो
दूसरे लोगों के पतन होने पर भगवान करया कहेगा ? गुरू महाराज करया कहेंगे ? यह नहीं
सोिा मूखरर ! िनगुरी !! तू नगन कयो गई ? अब कपड़े पहनेगी िक नहीं पहनेगी ?"
जोगन िगडिगडाईः "महाराज ! एक नहीं िार-चार कपडे पहनूँगी।"
महाराज ने डाँटकर पूछाः "ििर कभी ऐसे िमतरकार िदखाएगी ?"
जोगनः "महाराज ! अब कभी ऐसे िमतरकार नहीं िदखाऊँगी। मुझे ठीक कर दीिजये।"
कहकर वह महाराज के िरणों में िगर पड़ी।
वे संत दयालु थे। उनका हृदय पसीजा। उनरहोंने आदेश िदयाः "बेटागंगाराम! वापस आ
जाओ।"
गंगाराम वापस आ गया तो जोगन का पेट एकदम National Highway जैसा पूवथवत सीिा सपाट
हो गया।
कहने का तातरपयरर यह है िक यिद आतरमसाकरिातरकार की रूिि िबना कोई साधक साधना
करेगा और ऋिदरध-िसिदरध या कोई योगरयता आ जाएगी तो उसी में कूपमंडूक बनकर िँस
जाएगा और सवय क ं ो म ह ा नस म झ न ल े ग ेगा।इसिलएजीवनमेसतसंगक
कर बड़ा हो जाना वासरतिवक उनरनित नहीं है। वासरतिवक उनरनित है सवोररिरि परमातरमा के
जान को शवण, मनन व आतरमसातर कर उसकी गहराई में गोता मारकर उस परमातरमा का
साकरिातरकार कर लेना..... ऐसा करने से बेड़ा पार हो जायेगा।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

'जनम-मृतरयु में ही तू ही तू.... मान तू..... अपमान भी तू.... तनदरसती तू... रोग भी तू..... सवररतरर
बस तू ही तू । ' यिद मनुिरय को ऐसा जरञान हो जाये तो वह जीवनमुकरत हो गया। ििर कोई ििकरर
नहीं। रोग, दुःख और अपमान में यिद आप अपने ही िपररयतम का हाथ देखेंगे तो ये उतना
दुःखी नहीं बनाएँगे, िजतना दःुख िेदबुिद से होता है। अिेदबुिद मे दःुख और िय नही, उसमें तो ओज,
तेज, आनंद, शांित होती है।
आज कल समाज में िजतने भी तनाव, िखंिाव, खून आिद हो रहे हैं उनके पीछे
िदरधका ही हाथ हैकरयोंिक कररोधकभी सरवयंपर नहीं, दूसरों पर ही आता है। ऐसे ही मनुिरय कभी भी
भेदबु
सरवयं पर मोिहत नहीं होता, चाहे वह िकतना िी सुनदर या सुनदरी हो। मोह दस ू रे पर ही होता है। ऐसे ही काम,
लोि, अहंकार, ईषया, दरवेि आिद हमें सरवयं को देखकर नहीं, अिपतु दूसरे को देखकर ही
उपजते हैं।
यिद पररतरयेक अवसरथा में अपने ही आतरमसरवरूप के दीदार करने की कला आ जाये
तो सवथत तू ही तू नजर आएगा।
- -
अथाररतर मैं उसी का हूँ। अथाररतर मैं तेरा हूँ।
अथाररतर वह मैं हूँ।
मँगनी होने के बाद लड़की कहती हैः "मैं उसकी हूँ।" शादी होने के बाद वह कहती
हैः "मैं तेरी हूँ।" घर में रहकर कुछ िदन पुरानी हो जाय और पित का िमतरर अगर पूछने
आवे िक अमुक भाई कहाँ है ? मुझे उनसे जरूरी काम है तो वह कहती हैः "मुझसे ही कह दो।
वे और मैं एक ही हो तो हैं। यह घर मेरा नहीं है करया ?"
'तू ही तू' मानो मँगनी हुई। 'मेरा तू' अथाररतर शादी हो गई और मैं भी तू यानी काम पकरका
हो गया..... मेरा घर है।
मँगनी हुई तो लड़की बोलती है 'उनका घर है... मेरे ससुरालवालों का घर है'। ादी
हुई तो कहती है 'मेरे पित का घर है' औ र थोड ी पु र ा न ी ह ो ग ई त ो कहत ी ह ै 'हमारा घर लगता
है।' ििर मायके का घर पराया और ससुरालवाला घर अपना लगता है। यह सब भाव बदलने
के कारण ही होता है। बाहर का घर 'मेरा तेरा' तो ठीक है लेिकन आतमा-परमातरमा 'मैं हूँ.... मेरा
है...' ऐसी सोि समझ आ गई तो काम बन जाएगा।
भाविकसी साधन सेनहीं, जान से बदलता है। बकरे केगले मे िँदा हो ििर आप उसे घास िखलाओ , िमठाई
िखलाओ, अगरबतरती करो िाहे आरती करो ििर भी बँधन नहीं छूटेगा लेिकन िँदा कहाँ है
व कैसे कटेगा यह जानकर कैंिी ले आओ। बस, काम बन जाएगा। ऐसे ही मन रूपी बकरे
के गले में जो िँदा पड़ा है उसे समझो.... िववेक, वैरागरय और सतरसंग की कैंिी से
काटो तो जीव सरवतंतरर, सरव के तंतरर हो जाएगा।
भगवान कहतेहैः

"िजन पुणयकमा मनुषयो केपाप नष हो गये है , वे दरवनरदरव-मोह से रिहत हुए मनुिरय दृढ़वररती
होकर मेरा भजन करते हैं।"
(गीताः 7.28)
दरवनरदरव करया है ? सुख-दुःख, लाि-हािन, मान-अपमान आिद सब दरवनरदरव हैं। दरवनरदरव और
मोह से मुकरत पुरूि 'यह अिरछा िक वह अिरछा.... संसार में ऊँिे रहें िक भिकरत करें....'
ऐसे संकलरप-िवकलरप से रिहत हो जातें। संसार की न शर वरता को वे भलीभाँित जान िुके
होते हैं। ऐसे पुणरयातरमा लोग दृढ़ता से भगवान का भजन करते हैं और परमातरमततरतरव के
जान एव ि ं व ज ानकोपापतकरतेहै।
िवदरयाएँ तीन पररकार की होती हैं- पहली ऐिहकिवदरयाःसरकूल -कॉलेजों में आज कल जो
पेटभरनेकी िवदरयािमलती है , वह ऐिहक िवदरया कहलाती है।
दूसरी योगिवदरयाः इससे अलौिकक सामथरयरर आती है।
तीसरी आतमिवदाः ऐसा जान-िवजरञान पररापरत करना, िजसका उललेख गीता मे है।
जान अपनी आतमा का पापत करना चािहए िक मै कौन हँू ? शरीर का नाम तो रख िदया िक अमुक भाई,
अमुक साहब, डॉकरटर साहब, वकील साहब, नरयायाधी , कलेकरटर, संत आिद लेिकन ये
सारे नाम शरीर तक ही संबंध रखते हैं। शरीर खतरम हो गया तो सब छू हो जाएँगे लेिकन
ये सारे नाम-रूप और मन-बु िदरधकी सतरतासरिू
ितररजहाँसेआती हैवह आतरमा है। उस आतरमा का जरञानपाना िािहएिक
आतरमा कैसा है ? उसका सरवरूप करया है ? हम कौन हैं ? कहाँ से आये हैं ? लाखो-करोड़ों
जनम हो गये। हम शरीर लेते गये.... छोड़ते गये। वासरतव में हम कौन हैं ? इसका वेदानती व तततवदिृष
से जरञान पररापरत करके, ररवण करके ििर उसके अनुभव में आ जाना इसे कहते हैं
िवजरञान।
ऐिहक िवजरञान एक पृथक िविय है िजसमें वसरतुओं का जरञान होने पर उनका
पिरवतररन, पिरमाजररनकर उनरहेंउपयोगी बनाना एवंउनमेंसंशोधन कर उनकी उपयोिगता बढ़ाना ऐिहकिवजरञानकहलाता
है। लेिकन अपने सरवरूप के जरञान को अनुभव में लाना यह आतरमिवजरञान है।
इलेकटीसीटी और इलेकटािनकरण का जान हआ ु तो िकतना लाि होता है। िवदतु तततव केजान केउपयोग से हम
अनेकानेक उपकरण िलाते हैं। पृथव र ी, जल, तेज, वायु व आकाश ततरतरव का यिद हम जरञान
पातेहैंतो अनेकानेक ऐिहक लाभ होतेहैंलेिकन येपंिमहाभूतिजस पररकृित सेसंििलत होतेहैं, उस पररकृित को
संिािलत करनेवाले आतरमा-परमातरमा का यिद जरञानपावेंतोिकतना सारा लाभ हो सकता है!
चपरासी केघर की वसतुओं का जान पाप् करकेउसका उपयोग करन स े े इ तन ी खुशीिमलतीहैतोराषटपितक
घर का खजाना िमल जाए तो आपको िकतना लाभ होगा ? .....औ र प र म ा त म ा त ो िि र र ा ष ट प ित य ो
का भी रािरटररपित है। पररवृितरत परमातरमा के िरणों की दासी है। उस वासी के पंिभौितक
जगत केथोडे से िहससे का िी यिद ठीक से जान हो जाता है तो सासािरक पिसिद िमल जाती है।
आईनरसरटीन ने िरसिरर िकया तो िकतना पररिसदरध हो गया !
जमनदादास बजाज केजामाता एव ग ं ु ज र ा त क ेिूतपूव"िरसिरर
थराजयपालशीमननारायणनआ े ई
की दुिनया में तुम इतने आगे कैसे बढ़ गये ?"
आईनरसरटीन ने कहाः "चलो, मैं िदखाता हूँ।" वह हाथ पकड़कर उनरहें एक कमरे में
ले गया। कमरा साि-सुथरा था िजसमें धरयान करने के िलए एक आसन िबछा था और एक मूितरर
थी। आईनरसरटीन ने कहाः "मैं भारतीय योगिवदरया के अनुसार पररितिदन धरयान करता हूँ।
मेरी पतरनी के साथ िपछले िार विोररं से मेरा शारीिरक संबंध नहीं है। बररहरमियरर वररत
का पालन करने से मेरा तीसरा केनरदरर िवकिसत हुआ िजसे िरसिरर की दुिनया में लगाने
से यह सब कुछ पररापरत हुआ। मेरे िलये तो यह आसान है लेिकन लोगों के िलए िमतरकार
है।"
योगिवदरया का आं ि क ज शर ञ ा न प ा करउस िकरतकोिरसिररकीदुि
कर आईनरसरटीन िव शर विवखरयात हो गया। समथरर रामदास ने योगिवदरया सिहत आतरमिवदरया का
जान पाया तो िशवाजी को इतना बल, शश ांित और समता िमली िक राजवैभव होते हुए भी िवाजी
राजरयदोि में नहीं आये।
मुगल शश ासकों से िवाजीका युदरध होता और मुगलों की हार होती तो उनके सरदार
तोहिेमे खूबसूरत राजकुमािरया , शाहजािदयाँ ले आते। अगर दूसरा कोई राजा होता तो तोहिा पाकर
बोल उठताः "वाह ! ाबास !!" औ र ल ा न व े ा ल े क ो इ न ा "नहीं।
म द े त ा ल े िक न िशव ा जीक
हमारी दु शर मनी तो राजा से थी , उसकी कनरया या पतरनी से नहीं।"
सरदार कहतेः "हम तो आपके िलए तोहिा लाये हैं। आप इसे अपनी भायारर
बनाइये। यह बहुत सुनरदर है।"
तब िशवाजी कहतेः "यह सुनरदर है तो मुझे अगर दूसरे जनरम में आना पड़ा तो ऐसी सुनरदर
माँ की कोख से जनरम लूँगा। यह तो मेरी बहन के समान है, माँ के समान है।"
भारतीय संसरकृितिकतनी उदार है। िकतनी महान है !! समथरर रामदास की अनुभूित का पररसाद
िवाजीके
श जीवन में उतरा है। इसे कहते हैं जरञान िवजरञान।
मनुिरय का आतरमा इतना सुखसरवरूप है िक उसे ऐिहक िवकारों की तो तिनक सी भी
आव शर यकता नहीं है लेिकन उन बेिारे ने अपने तिनक -सी भी आव शर यकता नहीं है
लेिकन उस बेचारे न अ े प न आ े त म सु ? इसी कारण तो उसे तृिपत ैस
ख काअिीजानहीनहीपायातोिवजानक नही
ेपायेगा
होती है और कहता हैः "िसगरेट, तू सुख दे। िडसको, तू सुख दे। परदेश केरपयो की थिपपया , तुम सुख
दो...." लेिकन वे बेचारी खुद लाचार है सुख केलेन क े ेिलए।
िवदेशों में पित भी दुःखी है, पतरनीभी दुःखी है, उनके बिरिे भी दुःखी हैं इन िीजों से।
मैंने िव शर व के कई देशों की यातररा की और देखा िक उन लोगों ने िकतना भी एकितररत कर
िलया, िकतना भी िडसरको कर िलया लेिकन उन लोगों में हमारे देश की तुलना में कई गुना
अशांित है करयोंिक वहाँ ऐिहक जरञान-िवजरञान तो है लेिकन आतरमजरञान का पररसाद नहीं
है। ऐिहक जरञान तो पररकृित का अंश मातरर है, लेिकन पकृित को जहा से सिा आती है , उस सरव का,
परमातरमततरतरव क जरञानिमल जाएऔरउस जरञानमेंथोड़ीयातरराकरकेगहरा उतर कर उसिवजरञानका अनुभव करिलया जाए
तो वह वयिकत सुखी, खुशहाल व तृपरत हो जाता है। ििर ऐसा आदमी अगर लाखों पुरूिों के बीि भी
बोलेतो उन सभी को अनरतरातरमा की तृिपरतकी झलकेंपररापतर हो जाती हैंजोिक संसार सेपररापतर होना असंभवहै।
गीता पररेस, गोरखपुर के भकरतांक में एक घटना पररका ि त ह शु ई थी।का ीमेंएक
महातरमा की कुटी की दरवार पर कोई िबलरली मर गयी थी। महातरमा का सरवभाव दयालु था अतः
उनरहोंने िबलरली को कपड़े में लपेटकर गंगाजी में पररवािहत कर िदया तो िबलरली का जीव
देव की देह धारण करके पररकट होकर बोलाः
"महातरमा जी ! आपने मेरा कलरयाण कर िदया। मैं वही िबलरली हूँ जो आपके दरवार पर
मरी हुई पड़ी थी। आपकी दृििरट पड़ने से तथा आपके करकमलों से अतरयेििरट होने से
मुझे देव की देह िमली है, महाराज !"
यह भी कोई बड़ी बात नहीं है। जो जरञान-िवजरञान से तृपरत होता है ऐसा महापुरि ू यिद
िकसी मुदेरर की जलती ििता के धुएँ को भी देख लेता है तो ििर मरने वाला महापापी व
पातकी भी करयोंन रहा हो, उसे नरक की यातररा नहीं करनी पड़ती, उसकी सदगित हो जाती है। यह
िकतना अदभुत िवजरञान है !

।।
बालक केसमरमुख िाकलेट, लालीपॉप व िबिसकट केसाथ चाहे आप हीरे जवाहरात रख दो या सुनदर कीमती
रतरन, मोती रख दो, वह ननरहा-मुनरना इन रतरनों को छूकर या देखकर नहीं रख देगा और
चॉकलेट-िबिसरकट मेंखुश हो जाएगा। ऐसेही हमारी मितभी ऐिहक जगत मेंउलझी होकर ताितरतरवकदृििरटसेननरहे-ं
मुनरनों जैसी ही है। हम भी संसार के िखलौनों में इतना उलझ जाते हैं िक आतरमहीरा
हमारे साथ, हमारे पास होते हुए भी हमें अनुभूित नहीं होती है। जब तक आतरमा-परमातरमा के
िविय में हमने ररवण-मनन नहीं िकया और भीतर थोड़ा िरसिरर नहीं िकया तब तक आतरमहीन
ऐसे ही पढ़ा रह जाता है।
तुलसीदास जी न क े हाहैः
, ।
,
कबीर जी ने कहा हैः

,
आदमी खोजत करया है ? सुख। सुख भी कैसा ? सा नहीं िक आपको दस िमनट के िलए
सुख िमले ििर दुःख। दस घंटे, दस िदन या दस साल तक आपको सुख िमले ििर भी बाद में
आप दुःख नहीं िाहते हैं। जीवन भर सुख और मरने के बाद आपको दुःख िमले ऐसा भी आप
नहीं िाहते। कोई भी मनुिरय ऐसा नहीं िाहता। सदा रहने वाला सुख पररतरयेक मनुिरय की माँग
है लेिकन वह िकतनी भी को श ि करके देख ले , सदा रहने वाला सुख पररकृित में है ही
नहीं।
सरथाई सुख की माँग है तो ऐसा सुख भी कहीं न कहीं है। वह दूर नहीं, िकसी आका -
पाताल मेंनहीं, वह तो तुमरहारे वासरतिवक शुदरध सरवभाव में है, उसका तुम जरञान पररापरत कर लोगे
तो सदा रहन व े ा ल ा स ु खतुमहारेघरकाखजानाहोजाएगा।

वह िनतरय है, पररकाशसरवरूप है, लेिकन सूयथ, िवदरयुत या नेतररों के पररकाशसरवरूप नहीं, उसे
देखने के िलए तो मन का पररकाश िािहए।

वह अनरधकार से परे, माया से परे, जयोितयो की जयोित तुमहारा आतमा है। मन ठीक देखता है िक
नहीं इसे भी देखने वाली मित है और मित ठीक है िक नहीं इसे देखने वाली जरयोित है
आतरमजरयोित। वह सदा जरयों की तरयों रहती है। नेतररों की जरयोित, सूयरर-चनि की जयोित, अिगरन
औ र िवद त ु की ज य ो ित त ो कम ज य ा द ा ह ो ज ा त ी ह ै ल े िक न अं िक ा र म े ि ी म ह ा अं िक ा र को
देखने वाली, दुःख और सुख दोनों ही को देखने वाली आतरमजरयोित है। हम दुःख से जुड़
जाते है तो दःुखी होते है और सुख से जुड जाते है तो आसकत होते है कयोिक हमे अपना जान नही है। यिद हम अपन ज े ान
से जुड़ जावें तो न तो हमें आसिकरत होगी, न सुख होगा, न दुःख होगा। हम सदैव परमानंद
में रह सकते हैं, ऐसा हमारा आतरमदेव है।
"िजसका अनतःकरण जान-िवजरञान से तृपरत है, जो कूटसथ है , कूट की तरह िनिवररकार है,
िजतेिनिय है और िमटी केढेले , पतरथर तथा सरवणररमेंसमबु
िदरधवाला है, ऐसा योगी युकरत (योगरूढ़) कहा जाता है।"
(गीताः 6.8)
भगवान शररीरामिनरदररजीनेराजरयािभिेकोपरांतअपनेिपताशररीका शररादरधकमररिकयािजसमेंभुजाएँपसारकर सबको
आमंितररत िकया िकः "देव, यकरि, गनरधवरर, िकनरनर, देवािधदेव और महादेव भी अगर इस दास
राम की परराथररना सुन लें तो पधार सकते हैं।"
शररादरध हुआ। िजनरहे रूिि थे वे साधु-संत तो आये ही अिपतु साधुओं के भी साधु
भगवान सांबसदा ि व भ ी स ा ध ु ओ ं क ा व े , से ेअयोधरयाआये।िजनरहेंभ
िधारणकरक
िवजीअगर
श भोजन करने बैठें तो उनकी मौज है ! वे एक गररास से भी तृपरत हो सकते हैं
औ र पू र ी सृ िष को स व ा ह ा कर द े िि र ि ी अ तृ प त र ह सकत े ह ै । उन क े सं क ल प का अ प न ा
श पम सामथरयरर है। िवजीको तो लीला करनी थी। िजतना भी परोसा सब सरवाहा... थाली में
अनु
आया िक सरवाहा।
भरत और शतररघरनपरोसत
ु े-परोसतेथक गयेतो लखन भैयासेकहा गया। वेभी परोसनेमेंअपना जोर आजमाते
हुए थकने लगे। लखनजी भी देखते हैं िक ये बाबा गजब के हैं !
वे राम जी के पास गये और कहने लगेः "ये बाबा जी को िजतना भी परोसते हैं
सब खतरम कर जाते हैं। परोसकर वापस लेने जाते हैं तब तक वे थाली साि कर देते
हैं और पेट की आकृित वही की वही है। तिनक सा भी िकरर नहीं पड़ रहा है। ऊपर से
आवाज देकर परोसने बुला रहे हैं। हजारों लोगों को अभी भोजन कराना बाकी है। हमने
सोिा िक पहले बाबा लोगों को भोजन करवा दें बाद में अनरय लोगों को करवाएँगे। दूसरे
सभी बाबा तो तृपरत हो गये मातरर दो-तीन बार परोसन म े े ह ी ले ि क न इ न बाबानपेेदेकीआवाजिीस
ििर भी भूखे ही हैं। अब करया करें पररभु !"
पररभु आयेऔरदेखािक येकोई पृथरवीलोक का बाबा नहीं, यह श तो िवलोकका बाबा है। भगवान सांब

सदा ि व स र व य ं प ध ा र े ह ैं।रामजीनेमनहीमनपररणा
लकमण जी से कहा िक इन बाबा को तृपत करना हमारे बस की बात नही है। रामजी न म े ाअनपूण(पा ावररती) का आवाहन
कर माँ से ही परोसने का अनुरोध िकया। माँ परोसने लगी तो बाबा बोलते हैं- "बस ! अब
खेल खतरम हुआ।"
िवजीने यह खेल खतरम करते ही दूसरा खेल शुरू कर िदया। शश तररुघरन को िवजीरूपी
बाबा कहतेहैं- "तुम तो शतुओं का नाश करन व े ालेश"तुघहो।
शतररुघरनः "हाँ, महाराज !"
िवजीः "अिरछा, तो मुझे सहारा देकर उठा दो। बहत
श ु खाया है तो उठा नही जा रहा है। " शतररुघरन ने
अपना जोर लगाया लेिकन वे उठा न सके। आज तक शतररुघरन के मन में जो थोड़ी-बहुत हवा
घुसी होगी वह बराबर हो गई। भगवान और तो सब कुछ सहन कर लेते हैं लेिकन अपने िपररय
भकरत का अहंकार नहींसहतेहैं। िवजीनेअब भरत सेकहाः

"भरत भैया! तुम थोडी कोिशश करो।" भरत जी नेभी को श ि करने केबाद करिमामाँगी।
िवजीः "लकमण लाला ! तुम उठा दो िाई ! बहुतिखलािदया है, इसिलए हम उठ नही पा रहे है।"

लकमणजी रामजी केसाथ अििक रहे थे। बडो केसाथ अििक रहन स े े द ि ृ ष ि ीबडीहोतीहै।अपनस े ेउचच
पुरि
ू ोंका संगकरनेसेसहज मेंही मित की ऊँिाई होती हैऔरनीि वरयिकरतयोंकी बातोंमेंआनेसेबहुत नुकसान होते
हैं।
राजा जनक ने जरञान-िवजरञान से तृपरत अिरटावकरर की शरण ली तो वे भी जरञान-
िवजरञान से तृपरत हो गये। अ शर व राजा, िवाजीमहाराज
श तथा अनरय वे सभी राजा -महाराजा,
िजनहोन जे ान-िवजरञान से तृपरत बररहरमवेतरताओं की शरण ली, वे भी वहाँ पहुँि गये।
जैसा आपका संग होगा वैसा ही रगं आपको लगेगा। आपका मन उस सिचचदानदं चैतनय परमातमा से सिुिरत होता
है इसिलए बड़ा संवेदनशील रहता है। इसको जैसा रंग लगा दो, तुरनत लग जाता है।
धरती में तमाम पररकार के बीजों में रस भरने की शिकरत है। जैसा बीज होता है,
ऐसा रस ले आता है धरती से। ऐसे ही हमारा सािहतरय कैसा है ? हमारा संग कैसा है ?
हमारा खानपान कैसा है ? हमारी इिरछा कैसी है ? हमारी आव शर यकता कैसी है? जैसी-जैसी
हमारी इिरछा, आव शर यकता , संग, खानपान आिद होते हैं, देर सवेर वैसी ही हमें पररािपरत
होती है।
न शर वर वसरतुओं की इिरछ-ावासना बढ़ाने वाला संग करके न शर वर वसरतुओं की ही
सतरयबुिदरध से इिरछा और पररयतरन करते हैं तो हम न शर वर वसरतु और न शर वररीरश पररापरत
करते जाते हैं... ििर मरते जाते हैं.... ििर जनरमते जाते हैं। यिद हम शा शर वत का
जान सुने, शा शर वत की इिरछा पैदा हो और मनन करके शा शर वत की गहराई में तिनक सी खोज
करें तो शा शर वत आतरमा परमातरमा का साकरिातरकार भी हो सकता है। वे लोग सिमुि में
भागयर शाली हैिजनकी सतरसंगमेंरूिि हैऔरिजनरहेंआतरमजरञानऔरआतरमिवजरञान शररवणाथररिमलता है।
िवजीने लकरिरमण की ओर देखा तो लकरिरमण जी भगवान राम से परराथररना करते हैं -

"पररभु ! आपकी कृपा और आशीवाररद होगा तो ही मैं सिल हो सकूँगा अनरयथा दोनों भरराताओं
जैसा मेरा हाल िी होगा।" शश ररीराम का संकेत पाकर लकरिरमणजी ने िवजीसे परराथररना की िकः"नाथ
! उठेंगे तो आप अपनी ही सतरता से, िकनरतु यश इस दास को िमल रहा है।"
िवजीपरर
श सनरन होकर उठ खड़े हुए।
राम जी गालों में मनरद-मनरद मुसरकराये।
मुसरकान तीन पररकार की होती है। एक तो साधारण तौर पर हम लोग ठहाका मारकर
खुलेआम हँसते हैं- सरवासरथरय के िलये यह बहुत अिरछा है।
दूसरी होती है मधुर मुसरकान, जो गालो मे ही मुसकरा दी जाती है।
तीसरी है यौिगक मुसकान, िजसे जान-िवजरञान से तृपरत हुए आतरमयोगी पुरूि नेतररों से
मुसरकुरा देते हैं। नेतररों की यह मुसरकान इतना अिधक महतरतरव रखती है िक हजारों नहीं,
लाखो आदमी िी अगर बैठे हो और योगी नत े ो से मुसकुरा िदया तो लाखो आदिमयो को ऐसी शीतलता , शांित और
आनंद िमलेगा जो दुिनया की तमाम सुख-सुिवधाओं और साधनों के उपभोग से भी उनरहें
नहीं िमल सकता है। िजनरहें शररीराम, ररीकृिरण अथवा महापुरूिों के नेतररों की मुसरकान
िमली होगी, उसका आनंद वे ही जानते होंगे।

ररीकृिरण ने भी सा ही अमृत बरसाया था अनरयथा बाँसुरी की धून से गरवाल-गोिपयाँ


पागल हो जाएँऔर गौ केबछडे़दूध पीना छोड़देंयह संभव नहींथा। बंसी केसाथ शररीकृिरण केनेतररोंकी मुसरकान छलकती
थी तभी तो गरवाल-बाल बावरेहो जातेथे।
िसंधी जगत में एक भजन बना हैः
....

"मेरे जी में, मेरे हृदय में, मेरे िितरत में वह जोगी जादू लगाकर गया है। एक
िनगाह डाल दी बस ! अब मैं उनरहें बार-बार याद करती हूँ।"
रामकृिरण परमहंस ने नरेंदरर पर सा ही जादू बरसाया था िक नरेनरदरर में से
िववेकानंद हो गये िजनरहोंने कहा थाः "मुझे बेिकर िने खा जायें ऐसे िवदरवान मेरे
कालेज से िनकले। मेरी ककरिा के लड़के व मुझे पढ़ानेवाले लोग भी मुझसे आगे
थे। काशी में मुझे बेिकर िने खा जाएँ ऐसे िवदरवान अभी-भीिमलेंगेििर भी खेतड़ीकेमहाराजा
रथ में से घोड़ों को हटाकर सरवयं रथ खींिते थे और मुझे िबठाकर सरवागत करते थे,
यह मेरे गुरद ू ेव की िनगाह का पररसाद नहीं तो और करया है....?"

जान-िवजरञान से जो तृपरत हुए हैं उनकी नजरें नूरानी होती हैं। बाहर से तो वे
साधारण िदखती हैं लेिकन उन आँखों से सदैव जो आधरयाितरमकता की जरयोित का पररकाश
बरसता हैवह अदभुत होता है।
अमेिरका की डेलाबार पररयोगशाला में िपछले दस विोररं से िनरंतर िरसिरर करते
हुए वैजरञािनकों ने यह िनिरकिरर िनकाला िक जो उनरनत एवं उतरतम पुरूि हैं उनकी दृििरट
पड़तेही या उनकेवातावरण मेंआतेही हमारेएक घनिमलीमीटर रकरत में 1500 शरवेतकण िनिमररत होते हैं जो
आरोगरयता और पररसनरनता पररदान करने में सहायक होते हैं।
िवजरञान तो अब बता रहा है लेिकन हमारे शासरतरर, संत और परमरपरा तो सिदयों से
कहती आ रही है िक दूलरहा-दुलरहन जब आवें तो पहले उनरहें गुरू महाराज के पास शीश
नवाने भेजना िािहए। मरणोपरांत शवयातररा ले जाते समय शरमशान के मागरर में कोई
मंिदर आता है तो उस मुदेरर को भी देवदररशन करवाने का िवधान है तािक देवदररशन के
िनिमतरत िकसी हृदय के जरञान-िवजरञान से तृपरत हुए महापुरूि की नजर पड़ जाए तो इस मुदेरर
का भी कलरयाण हो जाए। यह हमारी वरयवसरथा थी।

'िजसका अंतःकरण जान िवजान से तृपत है, जो कूट की तरह िनिवथकार है , िजसकी इिनिया िलीिाित जीती हईु
हैं और िजसके िलए िमटरटी, पतरथर औरसुवणररसमान हैवह योगी युकरत अथाररतर भगवतरपररापतर हैऐसा कहा जाता
है।'
(भगवदर गीताः6.8)
कूट अथाररतर लोहार की ऐरन, सुनार की ऐरन। सुनार की ऐरन पर गहने बनते जाते हैं,
गहनों में िमक व िडजाइनें बनती हैं लेिकन ऐरन जैसी की तैसी ही रहती हैं। ऐसे ही
तुमहारी आतमा पर मन-बु िदरधकेिविार एवंसुख -दुःख की तरंगे आती हैं लेिकन तुमरहारे िनजी
सरवसरवरूप पर कोई असर नहीं पड़ता है, इस पकार का जान पापत कर यिद आप उसका अनुिव कर लेगे तो
परमातरमततरतरव केजरञान-िवजरञान से आप भी तृपरत हो जाएँगे व दूसरों को भी तृपरत करने का
सामथरयरर पा लेंगे।
अनुकररम
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मैंने सुनी है एक कहानी।


कोई हाथी मरकर यमपुरी पहुँिा। यमराज ने हाथी से पूछाः "इतना मोटा बिढया हाथी और
मनुिरय लोक में पैदा होने के बाद भी ऐसे कंगले का कंगला आ गया ? कुछ कमाई नहीं की
तूने ?"
हाथी बोलाः "मैं करया कमाई करता ? मनुिरय तो मुझसे भी बड़ा है ििर भी वह कंगला
का कंगला आ जाता है।"
यमराजः "मनुिरय बड़ा कैसे है ? वह तो तेरे एक पैर के आगे भी छोटा सा िदखाई
पड़ता है। तू अगर अपनी पूँछका एक झटका मारेतो मनुिरय िार गुलाट खा जाए। तेरीसूंड दस-दस मनुिरयों को
घुमा कर िगरा सकती है। मनुिरय से बड़ा और मजबूत तो घोड़ा होता है, ऊँट होता है और उन
सबसे बड़ा तू है।"
यमराजः "करया खाक है मनुिरय बड़ा ! वह तो छोटा नाटा और दुबला पतला होता है। इधर
तो कई मनुषय आते है। मनुषय बडा नही होता।"
हाथीः "महाराज ! आपके पास तो मुदेरर मनुिरय आते हैं। िकसी िजनरदे मनुिरय से
पाला पडे़तो पता िलेिक मनुिरय कैसाहोता है। "
यमराज ने कहाः "ठीक है। मैं अभी िजनरदा मनुिरय बुलवाकर देख लूँगा।"
यमराज ने यमदूतों को आदेश िदया िक अवैधािनक तरीके से िकसी को उठाकर ले
आना।
यमदूत िले खोज में मनुिरयलोक पर। उनरहोंने देखा िक एक िकसान युवक राितरर के
समय अपने खिलहान में खिटया िबछाकर सोया था। यमदूतों ने खिटया को अपने संकलरप
से िलिरट की भाँित ऊपर उठा िलया और िबना परराण िनकाले उस युवक को सशरीर ही यमपुरी
की ओर ले िले। ऊपर की ठंडी हवाओं से उस िकसान की नींद खुल गई। सनरनाटा था। िितरत
एकागरर था। उसे यमदूत िदखे। उसने कथा में सुना था िक यमदूत इस पररकार के होते हैं।
खिटया के साथ मुझे ले जा रहे हैं। अगर इनके आगे कुछ भी कहा और 'तू-तू..... मैं-मैं'
हो गई और कहीं थोड़ी-सी खिटया टेढ़ी कर दी तो ऐसा िगरूँगा िक हडरडी पसली का पता भी नहीं
चलेगा।
उस युवक ने धीरे से अपनी जेब में हाथ डाला और कागज पर कुछ िलखकर वह
चुपकेसे ििर लेट गया। खिटया यमपुरी मे पहँच ु ी। खिटया लेकर आये यमदत ू ो को ततकाल अनयत कही दस ू रे काम पर
भेजिदया गया। उस युवक नेिकसी दूसरेयमदूत को यमराज केनामिलखी वहििटरठीदेकर यमराज केपास
िभजवाया।
िचटी मे िलखा थाः "पतररवाहक मनुिरय को मैंयमपुरी का सव ेररसवाररबनाता हूँ।" नीिे आिद नारायण भगवान
िविरणु का नाम िलखा था।
यमराज ििटरठी पढ़कर सकते में आ गये लेिकन भगवान नारायण का आदेश था
इसिलए उसकेपिरपालन मे युवक को सवेसवा केपद पर ितलक कर िदया गया। अब जो िी िनणथय हो वे सब इस सवेसवा
की आजरञा से ही हो सकते हैं।
अब कोई पापी आता तो यमदूत पूछतेः "महाराज ! इसे िकस नरक मे िेजे ?" वह कहताः
"वैकुणरठ भेज दो।" औ र व ह व ै कु ण ठ ि े ज िद य ा ज ात ा। िकस ी ि ी प क ा र का प ा प ी आ त ा त ो व ह
सवेररसवारर उसे न असरसी नकरर में भेजता न रौरव नकरर में भेजता न कुंभीपाक नकरर में,
वरनर सबको वैकुणरठ में भेज देता था। थोड़े ही िदनों में वैकुणरठ भर गया।
उधर भगवान नारायण सोिने लगेः "करया पृथरवी पर कोई ऐसे पहुँिे हुए आतरम
साकरिातरकारी महापुरूि पहुँि गये हैं िक िजनका सतरसंग सुनकर, दरर न करके आदमी
िनिरपाप हो गये और सब के सब वैकुणरठ िले आ रहे हैं। अगर कोई बररहरमजरञानी वहाँ हो
तो मेरा और उसका तो सीिा संबि ं होता है।"
जैसे टेिलिोन आपकेघर मे है तो एकसचेज से उसका संबि ं होगा ही। िबना एकसचेज केटेिलिोन की लाइन
अथवा िडबरबा कोई काम नहीं करेगा। ऐसे ही अगर कोई बररहरमवेतरता होता है तो उसकी और
भगवान नारायण की सीधी लाईन होती है।
आपके टेिलिोन में तो केबल लाईन और एकरसिेंज होता है लेिकन परमातरमा
औ र प र म ा त म ा को प ा य े हएु स ा क ा त क ा र ी पुर ष म े क े ब ल य ा ए क स च े ज की जररत न ह ी ह ो त ी
है। वह तो संकलरप मातरर होता है।
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.....
वह परमातरमा साधु की िजहरवा पर िनवास करता है। िविरणु जी सोिते हैं- "ऐसा कोई
साधु मैंने नहीं भेजा ििर ये सबके सब लोग वैकुणरठ में कैसे आ गये ? करया बात है ?
" भगवान नेयमपुरी मेंपुछवाया।
यमराज ने अहवाल भेजा िकः "भगवनर ! वैकुणरठ िकसी बररहरमजरञानी संत की कृपा से
नहीं, आपके दरवारा भेजे गये नये सवेररसवारर के आदेश से भरा जा रहा है।"
भगवान सोितेहैं- "ऐसा तो मैंने कोई आदमी भेजा नहीं। िलो मैं सरवयं देखता हूँ।"
भगवान यमपुरी मेंआयेतो यमराज नेउठकर उनकी सरतुित की । भगवान पूछतेहै -ं"कहाँ है वह
सवेररसवारर ?"
यमराजः "वह सामने के िसंहासन पर बैठा है, िजसे आपन ह े " ाहै।
ीिेज
भगवान िौंकतेहैं- "मैंने तो नहीं भेजा।"
यमराज ने वह आदेशपतरर िदखाया िजसमें हसरताकरिर के सरथान में िलखा था 'आिद
नारायण भगवान िविरणु।'
पतररदेखकर भगवान सोितेहैं- "नाम तो मेरा ही िलखा है लेिकन पतरर मैंने नहीं िलखा
है। उनरहोंने सवेररसवारर बन उस मनुिरय को बुलवाया और पूछाः "भाई ! मैंने कब हसरताकरिर
कर तुझे यहाँ भेजा ? तून म े े र े ह ी नामक ?"ेझूठेहसताकरकरिदये
वह िकसान युवक बोलाः "भगवान ! ये हाथ-पैरसब आपकी शिकरतसेही िलतेहैं। परराणीमातररकेहृदय में
आप ही हैं ऐसा आपका विन है। अतः जो कुछ मैंने िकया है वह आप ही की सतरता से हुआ
है और आपने ही िकया। हाथ करया करे ? मशीन बेिारी करया करे ? चलान व े ा ल ेतोआपहीहै।

ऐसा रामायण में आपने ही िलखवाया है पररभु ! औ र ग ी त ा म े ि ी आ प न ह े ीकहाह ै ः


इसकेबाद िी अगर आपन ह े स त ा क र न ह ी क ! अब


रवायेतोमै अपनीबातवापसले
धरयान ताहँूलेिकनिगवा
रखना िक अब रामायण और गीता को कोई भी नहीं मानेगा। '
' इस िसख शासत को िी कोई नही मानगेा। आप तो कहते है 'मैं
सबका पररेरक हूँ' तो मुझे पेरणा करन व े ा ल े ि ी त ो आ प ह ी ह एुइसिलएमैनआ े पकानामिल
झूठा सािबत करते हैं तो आपके शासरतरर भी झूठे हो जाएँगे, ििर लोगों को भिकरत कैसे
िमलेगी ? संसार नरक बन जाएगा।"
भगवान कहतेहैं- "बात तो सतरय हैरेिजनरदा मनुिरय ! चलो िाई ! ये हसरताकरिर करने की सतरता मेरी
है इसिलए मेरा नाम िलख िदया लेिकन तूने सारे पापी-अपरािधयों को वैकुणरठ में करयों
भेजिदया ? िजसका जैसा पाप है, वैसी सजा देनी थी तािक नरयाय हो।"
युवकः "भगवान ! मैं सजा देने के िलए िनयुकरत नहीं हुआ हूँ। मैं तो अवैधािनक रूप
से लाया गया हूँ। मेरी कुसीरर िार िदन की है, पता नहींकब िली जाए, इसिलए िजतन अ े ििकिलाईके
काम हो सके मैंने कर डाले। मैंने इन सबका बेड़ा पार िकया तभी तो आप मेरे पास आ
गये। ििर करयों न मैं ऐसा काम करूँ ? अगर मैं वैकुणरठ न भेजता तो आप भी नहीं आने
वाले थे और आपके दीदार भी नहीं होते। मैंने अपनी भलाई का िल तो पा िलया।"
भगवानिसरमतबरसातेहुए बोलेः"अिरछा भाई ! उनको वैकुणरठ भेज िदया तो कोई बात नहीं।
तून प े ु ण य ि ी कम ा ि लय ा औ र मेर"ेदशथनिीकरिलए।अबमैउनहेवापसनरकिेजताहूँ।
युवक बोलाः "भगवनर ! आप उनरहें वापस नरक में भेजोगे तो आपके दरर न का िल
करया ? आपके दररशन की मिहमा कैसे ? करया आपके वैकुणरठ में आने के बाद ििर नरक
में....?"
भगवानः "ठीक है। मैं उनरहें नरक में नहीं भेजता हूँ लेिकन तू अब िला जा पृथरवी
पर।"
युवकः "हे पररभु ! मैंने इतने लोगों को तारा और आपके दररशन करने के बाद भी
मुझे संसार की मजदूरी करनी पड़े तो ििर आपके दररशन एवं सतरकमरर की मिहमा पर कलंक
लग जाएगा।"
भगवान सोितेहैं- यह तो बड़े वकील का भी बाप है ! उनरहोंने युवक से कहाः "अिरछा भाई
! तू पृथवी पर जाना नही चाहता है तो न सही लेिकन यह पद तो अब छोड ! चल मेरे साथ वैकुणठ मे। "
युवकः "मैं अकेला नहीं आऊँगा। िजस हाथी के िनिमतरत से मैं आया हूँ, पहलेआप
उसे वैकुणरठ आने की आजरञा पररदान करें तब ही मैं आपके साथ िलने को तैयार हो
सकता हूँ।"
भगवानः "चल िाई हाथी ! तू िी चल।"
हाथी सूँड ऊँिी करके यमराज से कहता हैः "जय रामजी की ! देखा िजनरदे मनुिरय का
कमाल !"
मनुिरय में इतनी सारी करिमताएँ भरी हैं िक वह सरवगरर जा सकता है, सरवगरर का राजा
बन सकता है, उससे भी आगे बररहरमलोक का भी वासी हो सकता है। और तो करया ? भगवान का माई-
बाप भी बन सकता है। उससेभी परे, भगवानिजससेभगवान हैं, मनुिरय िजससे मनुिरय है उस सििरिदानंद
परमातरमा का साकरिातकार
र करकेयहींजीते-जी मुकत हो सकता है। इतनी सारी कमताए म ँ न ु ष यमेिछपीहईुहै।अतः
अभागे िवियों एवं वरयसनों में अपने को िगरने मत दो। सावधान ! समय और शिकरत का
उपयोग करके उनरनत हो जाओ।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

नारायण..... नारायण.... नारायण.... भगवान केनामोििारण र सेजो लाभ होता है, यिद उस लाभ का
अनुभव हो जाए तो मनुिरय ििर दूसरी ओर धरयान ही न दे।
भगवान केनामसेहमारेअंतःकरण में, हमारे रीर की नस-नािड़यों में, रकरत में, हमारे
िविारों में, बु
िदरधमेंभगवान केनामोििारण
र सेजो पररभावपड़ता है, उसका यिद जरञान हो जाये तो हम
लोग ििर िगवनाम सुिमरन िकये िबना रहेगे ही नही। इतनी महान मिहमा है िगवनाम की।
आदमी जब बोलता है तो िकररया शिकरत काम करती है। जगत में देखा जाए तो
िकररयाशिकरत से ही सारी िीजें होती हैं। िकररयाशिकरत का संिालन मन के संकलरप से होता
है। मन जब भगवनरनाम लेता है तो भगवान की भावना मन में िनिमररत होती है, िजसका पिाव
हमारे िकस-िकस केनरदरर पर पड़ता है, इस बात का अगर पता चले तो आदमी सािारण से असािारण पुरष
में पिरवितररत हो सकता है।
टेिलिोन नंबर का पता होता है तो आदमी िव शर व में कहीं भी बात कर सकता है , यिद
उसके पास कनरटररी कोड, एिरया कोड और वरयिकरत के टेिलिोन का नमरबर हो। ऐसे ही
िव शर वेशर वर स संपकरर सरथािपत करना हो तो मंतरर रूपी टेिलिोन नंबर का सही सही जरञान
होना जरूरी है। हमारे अंदर मंतरर का बड़ा भारी पररभाव पड़ता है। वािलया लुटेरा
मंतररजाप के बल से ही वालरमीिक ऋिि के पद पर पररितििरठत हुआ। हनुमानजी ने पतरथरों पर
रामनाम का मंतरर िलखकर समुदरर में पतरथर तैरा िदये।

भगवान भी भगवनरनामकी मिहमा नहींगा सकते। भगवान सेभी बड़ाभगवान का नामकहा गया है।िजसकेजीवन
में मंतररदीकरिा नहीं है, िजसकेजीवन मे नाम की कमाई नही है , उसने जो कुछ भी कमाया है, वह
अपने िलये मुसीबत ही कमायी है, खतरा, िचनता और िय ही पैदा िकया है।
नाम की कमाई िनभररय बना देती है, िनदरवररनरदव र बना देती है, िनदुररःख बना देती है।
दुिनया में िजतने भी दुःख हैं, वे न तो ई शर वर ने बनाये हैं , न ही कुदरत ने बनाये हैं,
बिलरकसारेदुःख मनकी बेवकूिी सेबनेहै। भगवनरनाममनकी इस बेवकूिी को दूर करता हैिजससेदुःख दूर हो जाते
हैं।
जो लोग कहते है िक 'बाबा ! मैं बहुत दुःखी हूँ....' ऐसे लोगों से हम जरयादा समय बात भी
नहीं करना िाहते हैं करयोंिक बहुत दुःख तो होता ही नहीं है। बहुत दुःख बनाने की, बेवकूिी की
आदत हो गयी है।
"करया दुःख है ?"
"बहुत दुःख हैबाबा !"
"अिरछा भाई ! करया दुःख है जरा बताओ ?"
"बाबा जी ! सब तरि से मैं दुःखी हूँ... बहुत दुःखी हूँ।"
"अिरछा भाई ! जाओ, दूसरी बार िमलना।"
उसके जीवन में न शररदरधा का सहारा है, न नाम का सहारा है, न समझ का सहारा है।
ऐसा वरयिकरत दो-चार बार चकर काटेगा, सतरसंग में आएगा, माहौल का लाभ लेगा, भगवनरनामजपनेवालों
की बातों में आयेगा, ििर अगर उसे मुलाकात देता हूँ तो ऐसे वरयिकरत के जीवन में
जलदी ही चार चाद लग जाते है। सतसंग मे आकर बैठन स े े हज ा र , नाम
ो लोगोकेहिरनामक
केेकगुीतथँजन
नवपिु
के संकररामक वायबररेशन िमलते हैं।
जो आदमी पहली बार यहा आए और 'मैं दुःखी हूँ..... बहुत दुःखी हूँ....' की रट लगाये उसको यिद
कुँजी बता भी दो जलरदी उसका दुःख दूर नहीं होता। इसिलए मैं कहता हूँ- "अिरछा, दो तीन बार
सतरसंग में आना, ििर बताऊँगा।" वह भी इसिलए िक सतरसंग में आने से उसके
अनरतःकरण पर, उसके रकरतकणों पर, नस-नािड़यों पर साितरतरवक असर पड़ता है, मन ुदरध
होता है, मन की भावना काम करती है, िजहा की शुिद होती है। सतसंग मे बुिद काम करती है तो बुिद की शुिद
होती है। हिरनाम की ताली बजाने से हाथों की शुिदरध होती है। ििर उसे कोई शुदरध बात
समझता हूँ तो जलरदी असर करती है, अनरयथा नहीं करती।
तुलसीदास जी न क े हाहैः

िकसी भी पररकार का जोगी हो, िकसी भी पररकार का भकरत हो, साधु हो, गृहसरथी हो या िकसी
भी पररकार का वरयिकरतहो, उसके जीवन की उनरनित का मूल खोजो तो पता िलेगा िक उसने कभी न
कभी िकसी भी रूप में भगवनरनाम जपा है, रटा है। ििर िाहे वह संनरयासी हो, बैरागीहो, िगरी-
़-बडे
पुरी-भारती हो या गृहसरथी हो। गृहसरथी वेश मेंभी बडे ़महापुरि
ू हो गयेहैं।
मैंने सुना है िक एक बार गोरखनाथ को लगा िक हमने तो िसर में खाक डालकर
इतन ज े ोग-जतन िकये है, योगिवदरया, टेकिवदरया की साधनाएँ कीं, इतन प े ा प ड ब ेलेहैतबकहीजाकरलोग
हमको बाबाजी कहते हैं। लेिकन ये संत कबीर ? इनकेतो बेटा -बेटीहैं, ििर भी हमसे अिधक
आदरणीय होकर बाबाजी के रूप में पूजे जा रहे हैं !
िकनरहीं ईिरयाररलु लोगों की सीख में आकर एक िदन गोरखनाथ ने संत कबीर को
रासरते में रोक िलया और कहने लगेः
"महाराज ! कुछ िसदरधाई िदखाओ।"
कबीर जी बोलेः "भाई ! हम तो कुछ भी िसदरधाई नहीं जानते हैं। हम तो ताना-बाना बुनकर
गुजारा कर लेते हैं। बस, खुद जपते हैं, दूसरों को भी जपाते हैं। हम तो और कुछ नहीं
जानते।"
सिरिे संतों के हृदय में "मैं बड़ा हूँ" ऐसा भूत होता ही नहीं। 'मैं छोटा हूँ.... मैं
बड़ाहूँ....' यह देह के अिभमान से होता है। बाहर की वसरतुओं में अपने से बड़ों को
देखोगे तो अपने में हीनता की भावना आएगी और यिद अपने से छोटे को देखोगे तो
अपने में अहंकार आएगा। यह छोटा-बड़ातो देहकेभाव सेहोता है। देहकेअंदरजोिवदेहीआतरमा है ,
उसमें करया छोटा और करया बड़ा...? कबीर जी ऐसे ही थे।
देह में होते हुए, देह की गहराई में जो देह को िलाने वाला है, 'चम चम' चमकता
हुआ जो िैतनरय परबररहरम परमातरमा है, उस पर कबीर जी की िनगाह थी।
कबीर जी ने तो हाथ जोड़ िलयेः "बाबा ! आप तो बड़े तरयागी हैं। हम तो ऐसे ही
साधारण हैं। िलो, झंझट-िववाद करया करना महाराज !"
गोरखनाथ को तो कई अनरय सािथयों ने बहका रखा था। उनरहोंने कहाः "नहीं। तुम
इतन ब े ड े म ह ा प ु रष ह " गोरखनाथ
ोकरपूजेज ाचरहेहोतोदेखने
लोअबहमारीिसदाई।
अपना ितरर शू ल
भोंका जमीन मेंऔरयोगिस िदरधका अवलमरबन लेकर, ितशूल पर ऊँचा आसन जमाकर बैठ गये और कबीर जी से बोलेः
"अब हमारे शासरतरराथरर करो।"
कबीर जी ने देखा िक ये अब बाहर की िीजों से बड़परपन िदखाना िाहते हैं। कबीर
जी केहाथ मे िागे का एक छोटा -मोटा िपंडा था। उसका एक िसरा धरती पर रखते हुए कबीर जी ने
दूसरी ओर िपंडे को ऊपर िेंका। िपंडा खुलते-खुलते पूरे धागे का िसरा सीधा खड़ा हो
गया।
कबीर जी ने अपनी संकलरपशिकरत से, मन शिकरत से खड़े रहे हुए िसरे के ऊपरी
छोर पर जा बैठे और बोलेः "अिरछा महाराज ! आ जाओ।"
गोरखनाथः "चलो छोडो इसको। दस ू रा खेल खेलते है।"
कबीर जीः "ठीक है महाराज।"
गोरखनाथः "चलो, गंगा िकनारे िलते हैं। मैं भी गोता मारूँगा, तुम िी गोता मारना। मै
गोता मार के कुछ भी बन जाऊँगा। तुम मुझे खोजना।"
आदमी के तीन शरीर होते हैं। एक वह जो आँखों से िदखता है, उसे सरथूल शरीर
कहते हैं। दूसरा होता है मन शरीर। सरथूल शरीर का िकया कुछ नहीं होता, मन रीर के
संकलरप से ही सरथूल शरीर घूमता ििरता है। आपके मन में हुआ िक 'चलो सतसंग मे जाएँ ....' तो यह
बेिारसरथूल शरीर मेंआगया सतरसंगमें।
मन रीर में, सूकरिरमता में िजसकी िसरथित दृढ़ होती है, वह एक सरथूल शरीर होते
हुए अनेक शरीर बना सकता है। जैसे राितरर में अनजाने में हम लोग मन शरीर में
े वयिकत बना लेते है। आप िी सवप मे अनक
चले जाते है। एक वयिकत होते हएु िी सवप मे अनक े वयिकत बनाते है लेिकन
वह सरवपरन की, करिीण सुिुिपरत की अवसरथा है। जो योगी हैं, उनके मन की एकागरर अवसरथा है।
जोगी जागत अवसथा मे िी अपन अ े न क े स थ ू लश र ी र ब नासकताहै।मनशरीरमेबहत
ु श
िवकास करो, कम है। लेिकन मन शरीर के बाद हमारा वासरतिवक सरवरूप है।
.....तो एक शरीर यह हआ ु जो िदखता है। मन शरीर मे जैसे संसकार डाल िदये – गुजराती, िसंधी, पंजाबी,
गरीब-अमीर, मेरा तेरा, ऐसा ही िलबास पहनेगा और िदखेगा।
वासरतव में हमारी कोई जात नहीं है लेिकन मन में सब घुसा है। ललाट पर तो कुछ
िलखा नही है िक यह जात है या हाथ मे िी जात नही िलखी। िकनतु जात आिद की बात मन मे बैठ गई िक हम गुजराती है ,
मारवाड़ी हैं, पंजाबी हैं, गृहसरथी हैं, वरयापारी हैं। ये संसरकार मन में पड़ जाते हैं और
मन के संसरकारों के अनुरूप ही आदमी अपने को और अपने तन को मानता है।
इसी मन शरीर का यिद सूकमता केरासते पर जाकर िवकास िकया जाए तो मन जैसा संकलप करे , सा हो भी
जाता है। उदाहरणाथथः रात को सवपसृिष बन जाती है। ऐसे ही जागत मे िी एकाग मन मे संकलप करन क े ीशिकतहोती
है।
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िकसी-िकसी बररहरमजरञानी महापुरूि की मानिसक शिकरतयाँ िवकिसत होती है और िकसी
ऐसे वैसे वरयिकरतयों की भी मानिसक शिकरतयाँ िवकिसत होती है। कोई ऐसे भी जरञानी होते
हैं िजनकी मानिसक शिकरत िवकिसत नहीं होती ििर भी बररहरमजरञानी तो बररहरमजरञानी है,
उसको मुकाबला कोई नहीं कर सकता।
जैसे वेद वयास जी महाराज। उनकी मानिसक शिकतया इतनी अििक िवकिसत हईु थी िक उनहोन पेितसमृित
िवदरया के बल से एक बार मरे हुए कौरव-पाणरडव पकरिकेतमामयोदरधाओंको एवंकणरर को बुलाया था।
युदरधोपरानरत धृतरािरटरर, कुंती, गाँधारी और संजय वन में जाकर एकांतवास कर रहे
थे लेिकन वे बड़े दुःखी मन से जीवन-यापन कर रहे थे। तब एकाएक वेद वरयासजी
महाराज पधारे। वेद वरयासजी ने पूछाः "धृतरािरटरर ! करया िाहते हो ?"
धृतरािरटरर बोलेः "औ र त ो कु छ न ह ी म ह ा र ा ज ! युदरध में मारे गये पुतररों के मुँह तक
हमने नहीं देखे। हमारे बेटों से हमारा एक बार िमलन हो जाए, ऐसी कृपा कीिजए।"
वेद वरयासजी ने कहाः "मैं अमुक िदन ििर आऊँगा। इतने में तुम बहुओं को भी बुला
लेना तािक वे िी िमल ले।"
बहुएँभी आगई,ंवेद वरयास जी महाराज भी पधारे। उनरहोंने गंगा िकनारे पररितसरमृित
िवदरया के बल से सनरधरया समय के बाद मृतकों का आवाहन िकया। कुछ ही पल में, गंगाजी
से जैसे लोग नहाकर िनकलते हैं ऐसे ही कौरव पकरि और पांडव पकरि के योदरधा, जो
महाभारत के युदरध के दौरान मृतक हुए थे, 'खलल....' करते हुए जल से बाहर िनकले। िजस
वे भू िा में वे युदरध के मैदान में गये थे वही वे भू िा अब भी उनरहोंने धारण कर रखी
थी लेिकन एक िवशेिता थी िक उन सभी के कानों में सरवणरर के कुणरडल शोभायमान हो रहे
थे और हृदय में राग-दरवेि नहीं था। उनमें सतरतरवगुण की पररधानता थी।
कौरवों ने अपनी-अपनी पतरनी से, अपने िपता व माता से वाताररलाप िकया। ऐसे
वाताररलाप करते-करते शुभ भाव में ही राितरर पूरी हो गई। पररभात होने को थी तो वेद वरयास
जी न के हाः"अब इनरहें मैं िवदा करता हूँ। जो पितरनयाँ पितलोक को पाना िाहती हैं वे गंगा
में पररिविरट हों। वे मेरे योगसामथरयरर से स रीर पितलोक में पहुँिा दी जाएँगी।"
वेद वरयासजी ने गंगा से िजन मृतकों को पररकट िकया उनका शरीर हमारे ही सरथूल
शरीर जैसा िदखता है लेिकन उसमें पृथरवी ततरतरव एवं जल ततरतरव की कमी होती है। उस
शरीर से केवल उनकी आभा नजर आती है। जो सरवगरर में होते हैं उनका शरीर तेज, वायु
औ र आ क ाश त त त व ो स े ह यु क त ह ो त ा ह ै । व े य िद सं क ल प कर े िक ह म इ न ह े िदख े त ो व े
हमें िदख सकते हैं अथवा हमारी इतनी सूकरिरम अवसरथा हो तो हम इन सूकरिरम शरीरों को
अथवा गंधवरर, िकनरनरों को देख सकते हैं।
वेद वरयासजी महाराज पररितिदन आठ घंटे बैठकर बदरीकाशररम में धरयान करते थे
औ र द ी घथ काल तक उ न ह ो न य े ह स ा ि न ा कीइस , साथ
िल एहीउन क े प ास आ त म ज ा
साथ मानिसक शिकरतयाँ व िरिदरध-िसिदरधयाँ भी कम नहीं थीं। इसी के बल पर उनरहोंने
पररितसरमृितिवदरयाका उपयोग करकेमृतकोंको बुलाया औरउसीिवदरयाकेबल सेउनकोिबदाई दी। जो प ितरनयाँपितलोक को
पाना िाहती थीं, वे भी गंगा में पररिविरट हुईं और पितलोक को पररापरत हो गई।
आदमी सपने में जैसे बहुत कुछ बनाता और समेट लेता है ऐसे ही जागृत में
यिद मन शरीर में िसरथित िवकिसत हो जाए तो संकलरप के बल से बहुत कुछ बन सकता है और
उसका िवसजररन भी हो सकता है। तांितररक मंतररों का सहारा लो तब भी हो सकता है, साबरी
मंतररों का सहारा लो तब भी हो सकता है। यिद पुणरय बड़ा है तो वैिदक मंतररों का सहारा लो
तो सािततवकता और वयवहार की पिवतता िी बढ जाएगी।
तुम िकसी िी मंत का सहारा लो, मंतररों से तुमरहारी िकररयाशिकरत और मननशिकरत का िवकास
होता है और वह िवकास जहाँ से आता है, वही है आतरमा..... वही है परमातरमा। जैसे गनरना
पैदाहोता हैतब भी रस धरती सेआता हैऔरिमिररपैदाहोता हैतब भी रस धरती सेआता है, मूँग, मटर, मसूर की
दाल भी धरती के सहारे से है। यहाँ तक िक छोटी से छोटी घास-पात व जड़ीबूटी का सहारा भी
धरती है।
ऐसे ही िजस िकसी के मन में जो िरिदरध-िसिदरधयाँ हैं, जो िसदाई आई है या ऊँचाई आई है ,
सभी ने उस अखंड भंडार में से ही िलया है। आज तक उस अखंड परमातरमारूपी भंडार में
से ही तांितररकों को तंतररिसिदरध, जापको को जपिसिद, भकरतोंको भिकरत, िवदरवानों को िवदरवता और
चतुरो को चतुराई पापत हईु। यहा तक िक सुंदरो को सुनदरता िी उसी िपटारी से िमल रही है।
िवदरवानों की िवदरया उसी परमे र वररूपिीपटारी से आती है , बु
िदरधमानोंकी बु
िदरधउसी
परमातरमसतरतासेपोिित होती है। अरे! ऐसी कोई िीज नहीं, ऐसा कोई वरयिकरत नहीं, ऐसा कोई देव नहीं,
य नहीं, गंधवरर नहीं, िकनरनर नहीं, ऐसे कोई शररीकृिरण, ररीराम, ईसा या मूसा नही, ऐसा कोई
परमातरमा नहींिजसनेउस िपटारी केिसवाय अपना अलगसेकुछजलवािदखाया हो।
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िजस िकसी न ज े ल व ा ि द ख ा य ा ह ै । उसेकहतेहैवासतिवकसवरप।
पहलेभी वह परमातरमा था, ररीकृिरण पधारे उसके पहले भी था, ईसा-मूसा तो बाद में आये। ये सब
नहीं आए थे तब भी 'वह' था। आप हम नहीं थे तब भी वह परमातरमा था, आप हम हैं तब भी
परमातरमा हैऔरआपका हमारा यह शरीर िला जाएगाििर भी वह आकाश सेभी अिधक सूकरिरमपरमातरमा रहेगा। दुःख है
तब िी है और सुख है तब िी है। दोनो बदल जाते है ििर िी वह अबदल है। गहरी नीद है तब िी है , नींद िली जाती
है तब भी है.... है.... है.... है....। बस ! बदलनेवाली िीजेंनेित.... नेित...नेित। सरथूल-सूकरिरम-
कारण.....नेित। ििर परलोक और तपलोक नेित..... नेित हो जाते हैं। ििर भी वह रहता है।
कहते हैं िक महापररलय में कुछ नहीं रहता। 'कुछ नही रहता' उसका जरञान रखने वाला तो
जरर रहता है। वह सिचचदानदं परमातमा है।

।।
'सििरिदानंदसरवरूप भगवान शररीकृिरण को हम नमसरकार करते हैं, जो जगत की उतपिि,
िसरथित और िवनाश के हेतु हैं तथा आधरयाितरमक, आिधदैिवक और आिधभौितक – तीनों
पररकार केतापोंका नाश करनेवालेहैं। '
(शररीमदर भागवतः 1.1)
एक सेठ आया मेहमानों को लेकर। साथ ही जवान बेटा भी था। उसने सभी को अपनी
पिास-पिरिीस कमरेवाली लंबी-चौडी कोठी िदखाई, जो अिी बन रही थी। 'यह पूजा का कमरा... यह धरयान का
कमरा.... यह भजन का.... यह अितिथ का.... यह बाथरूम....' आिद। सारा महल देखकर सब वापस
आये। मुखरय दरवार पर ताला लगाया जा रहा था तो िपता ने अपने पुतरर से कहाः "जा एक बार ििर
से देखा आ। इतने सारे मेहमान थे, कोई अनरदर तो नहीं रह गया !"
बेटाजाकर सभी कमरोंकी जाँिकरकेऊपर सेही आवाज देताहैः "िपताजी! यहाँ कोई नहीं है।"
यह सुनकर िपता दरवार को ताला लगाने लगा। यह देखकर बेटा बोलाः
"िपता जी! ताला कयो लगा रहे हो ?"
िपताः"तू बोलता है न िक अनदर कोई नही है !"
बेटाः "कोई नहीं है ऐसा कहने वाला मैं तो हूँ ! मुझे तो बाहर आने दो पहले !"
"मकान के अनरदर कोई नहीं है' ऐसा कहने वाला बेटा तो अनरदर है ही।
इसी पकार 'महापररलय के समय कुछ नहीं रहता' यह जानने वाला तो कोई है ही।.....औ र
वही है परमातरमा।
पररलयिार पररकार केहोतेहैं- िनतरय पररलय, नैिमितरतक पररलय, महापररलय और आतरयािनरतक
पररलय। आतरयािनरतक पररलयमेंकुछनहींरहता है। सूरज भी नहींरहता , चनदा िी नही। बहा, िविरणु, महे का वपु
भी नहींरहता। सब पररलयहो जाता है। कुछनहींरहता।
'कुछ नहीं रहता' को जानने वाला तो रहता होगा ? उसी को कहते हैं अकाल पुरि ू ।
आकृितयाँ सब काल में आ जाती हैं। यह हमारा शरीर भी काल में ही पैदा हुआ और काल
में ही लीन हो जाएगा। इस शरीर को तो काल खा जाता है लेिकन यह शरीर िजसकी सतरता से
चलता है, मन िजसकी सतरता से शिकरतयाँ लाता है, वह परमातरमा अकाल पुरूि है। वेदानरत की
भािा मेंवह बररहमह
र ैऔरभकरतोंकी भािा मेंवह शा शर वतनारायण है।
यह िबलरकुल सतरय है िक साधन भजन करने वालों को सतरसंग की बहुत जरूरत है।
अकेले में िकतना भी मौन रखो, िकतना भी जप करो, तप करो लेिकन पदा दरू नही होता है, घमंड आ
जाता हैः "मैं पापी हूँ..... मैं तपी हूँ... मै तरयागी हूँ.... मैं िलाहारी हूँ..... मैं मौनी हूँ।'
'मैं' की पिरििरछनरनता वरयिकरततरतरव बन जाता है और इस 'मैं' के वरयिकरततरतरव से ही सारे
झगड़े पैदा होते हैं। एक कहेगा 'मैं बड़ा' तो दस ू रा कहेगा 'मैं बड़ा'। लेिकन 'मैं-मैं'
करने वाले इस मन में यिद ईमानदारी से परमातरमा के नाम में और परमातरमा के जरञान
में गोता मारने की शिकरत आ जाय तो ििर 'मैं बड़ा' औ र 'मैं छोटा' का भूत िला जाता है।
अपने से छोटों को देखकर अहंकार आता है और बड़ों को देखकर हीनता आती है। बड़ा
औ र छ ो ट ा द े ह की न ज र स े िदखत ा ह ै । द े ह म े र ह न वे ा ल े, देहातीत परमे शर वर की
िनगाह िमल जाए तो महाराज ! ये सारी झंझटें दूर हो जाती हैं।
"महाराज ! हम तो गृहसरथी लोग हैं।"
अरे भैया ! कबीरजी भी गृहसरथी ही थे !
कबीर जी की मनःशिकरत िवकिसत थी, कारक पुरूि रहे होंगे। गोरखनाथ जी ने कबीर
जी से कहाः "चलो जल मे सनान करन क े े ि ल ए । म ै ग ो त ा मारँगाऔरमनःशिकतसेिकसीि
वैसा ही बन जाऊँगा। ििर आप मुझे खोजना। आप मुझे खोज िनकालें तो ििर आप गोता
मारना, मैं आपको खोजूँगा। िकसकी जीत होती है, यह देखा जाएगा।"
कबीर जी ने कहाः "छोड़ो भाई ! यह सब रहने दो महाराज ! आप तो बड़े जोगी
महातरमा हैं..... बडे ़संतहैं।"
गोरखनाथः "नहीं। िसदरध करके िदखाओ। तुम संत-महातरमा होकर पूजे जाते हो, इतने
लोग तुमहारे पास आते है और हमारे लोग बेचारे ििूत रमा-रमाकर घूम रहे हैं लेिकन कोई पूछता नहीं।"
कबीर जीः "भाई ! कोई पूछता नहीं इसमें मेरा करया दोि ? मैंने तो िकसी को मना
नहीं िकया है महाराज। लोगों को जहाँ से लाभ िमलता है, शांित, जान और आनदं िमलता है, वहीं
वे रूकेंगे। लोगों में भी तो अकरल है, बु िदरधहै, हृदये शर वर है। लोग भी तो पारखी हैं , जग-
जौहरी है।
यह जग जौहरी है। वह पुराना जमाना गया महाराज ! अब तो लोग बुिदरधशाली हो रहे
हैं। जाँि लेते हैं, वकरता की वाणी से ही पहिान लेते हैं िक कौन िकतने पानी में
है।"
गोरखनाथः "नहीं, चलो....मेरे साथ तैरना होगा।"
कबीर जीः "अिरछा तो घर से तौिलया ले िलें।"
गोरखनाथः "ठीक है।"
कबीर जी ने तौिलया लेकर पतरनी से कहा िक "मैं गंगा में सरनान के िलए जा रहा
हूँ" औ र ग ो रख न ाथ क े स ाथ च ल िद य े ।
गोरखनाथ ने जल में गोता मारा और मनःशरीर से ििंतन िकया िक "मैं मेंढक
हूँ.... मैं मेंढक हूँ... मैं मेंढक हूँ....' औ र उनकी आ कृ ित म े ढ क म े ब द ल ग ई। ज ै स े र ा त
में सपने में आप सोिते हैं िक 'मैं दुःखी हूँ..... मैं दुःखी हूँ....' तो दःुखद आकृित बन जाती
है। 'मैं शादी कर रहा हूँ....' सोिते हो तो दूलरहा बन जाते हो, घोड़ी भी आ जाती है, बाराती भी
आ जाते हैं।
आपके मन में बहुत शिकरत है करयोंिक मन जहाँ से उठता है उसका मूल छोर जो है
वह सवररशिकरतमान है। जैसे धरती से जो भी पौधा जुड़ा है वह बीज और संसरकार के
अनुकूल ही सब लाता है। गुलाबवाला गुलाबी रंग लाता है, मोितया का पौधा मोितयों की आकृित
लाता है, इमली का पौिा खटाई ले आता है, गनरना िमठास ले आता है, पपीतेका पौधा भी िल मेंिमठास लेआता
है लेिकन िमटरटी में यिद खोजोगे, चखोगे तो कुछ नही िमलेगा। न गुलाब िदखेगा , न इमली िदखेगी, न
गनरना िदखेगा न पपीता िदखेगा लेिकन आता सब इसी िमटरटी से है।
......औ र इस िम ट ी को ज ो सि ा द े र ह ा ह ै , वह सतरताधीश तुमरहारे अनरतःकरण को भी
सतरता दे रहा है। अनरतःकरण िमटरटी की अपेकरिा अिधक साि है, इसिलए िमटी मे तो िकयाशिकत के
साथ जरञानशिकरत और पररेमशिकरत िवकिसत करने की भी योगरयताएँ हैं।
िकररयाशिकरत से तो तुम भी रोटी खाते हो, खून बना देते हो और खाद बना देते हो।
भोजन केतीनिहसरसेकर देतेहो। भोजन करकेउसका सरथूलिहसरसा रोज सुबह छोड़आतेहो , मधरयम िहसरसे से

माँसपे ि य , सूकरिरम िहसरसे से मन और बुिदरध को सींि लेते हो। तुम ही तो
ाँबनालेतेहो
यह सब कर रहे हो।
यह सब तुम कर रहे हो यह देहदृििरट से नहीं। देह को लेकर जो िल रहा है, वह तुम
हो। इस दृििरट का यिद सहारा िमल जाय तो राग-दरवेि घट जाएगा और कबीर जी की नाई सतरपद
में रूिि हो जाएगी। जैसे िबलरलौरी काँि अिधक िसरथर करते हो तो सूयरर के पररकाश के
साथ-साथ दाहक शिकरत भी आ जाती है, से ही मन को अगर धरयानसरथ िकया जाए और खूब
एकागरर िकया जाए तो आितरमक शिकरतयों का िवकास होगा।
जैसे पेड अििक समय तक िरती से िचपका रहता है तो उसमे िल-िूल बड़े-बडे ़लगतेहैंलेिकन पौधा दो-
चार िदन ही रहे तो उसकी अपनी सीिमत योगयता है। अथात् एकागता िजतनी बिढया और लकय िजतना बिढया उतन हेी
आप भी बिढ़या हो। बिढ़या में बिढ़या यह है िक आप आतरमरस में रहो और दूसरों को भी
आतरमरस में रंग लो।
मैं िुटकी बजाकर भभूत िनकालने वाले महातरमाओं से भी िमला और वे मेरे िमतरर
हैं। उनरहोंने मुझे हाथ घुमाकर सोने की अंगूठी िनकाल कर दे दी। मैंने देखी भी
लेिकन मै उनसे पिािवत न हआ ु कयोिक मुझे बहजानी लीलाशाह जी बापू न अ े क ा ल पु रषकाजोपसाददेिदयाउसके
आगे यह सब बिरिों का खेल लगता है।
आप सतरसंग में करयों िखंिकर िले आते हो बार-बार? इसिलए की आपको कुछ िमलता है।
संशय िमटते हैं, शांित िमलती है, माधुयरर िनखरता है, जान पापत होता है। पचास वषथ अकेले ििकत
करने से जो बात समझ नहीं सकते, वह मातरर दो घंटों में समझने के िलए मुिरत में
िमल जाती है। िकतना िायदा हो रहा है....!
पिास विररकीिनिरकपट भिकरतसेभी हृदय का अंधकार दूर नहींहोता हैऔरदो घड़ीआतरमजरञानीसंतोंकेिरणोंमें
बैठनेसेहृदय का अजरञानदूर हो सकता ,हैयह शररीमदर भागवत में भगवान शररीकृिरण ने ऋिियों से
कहा है।
ररीकृिरण साधु-संतों का जब सरवागत कर रहे थे, पतरतलेंबाँटरहेथेतब ऋिियोंनेकहाः
"कनरहैया ! तुमहे यह सब करन क े ी ? तुम तो आिदनारायण हो ! यहाँ वसुदेव के बेटे होकर
कयाजररतहै
लीला कर रहे हो तो कया हआ ु ? हम तो तुमरहें पहिानते हैं। ये पतरतले बाँटने से और उठाने
से तुमको करया लाभ होगा ?"
शररीकृिरण कहते हैं- "पिास विररकीिनिरकपट भिकरतसेहृदय का अजरञाननहींिमटता है, लेिकन बहवेिा
सतरपुरूि की सेवा से वह कायरर हो जाता है। हजारों साधुओं में आप जैसे एकाध
बररहमर जर
ञानीमहापुरिू भीिमल जाएगा तो मेरीसेवासाथररकहो जाएगी। मेरेसाथ जो सेवाकर रहेहैंउनका भी कलरयाण हो
जाएगा। इसिलए महाराज ! मुझे पैर धोने दो।"
शररीकृिरण के इन विनों से सरपिरट होता है िक पिास विरर की अपने ढंग की तपसरया,
वररत या िनयम भी दो घड़ी के सतरसंग की बराबरी नहीं कर सकते इसिलए तुलसीदास जी की
बात हमको यथाथररऔरसिमुि मे िपरर
ं यलगती हैः
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सतरसंग में आने से पाप तो निरट हो जाते हैं लेिकन हमारी पुरानी आदते हैं
गलितयाँ करने की, उनसे हम पुनः पाप िनिमररत कर लेते हैं। ईमानदारी से यिद सतरसंग
में बैठा जाए तो पाप निरट होते ही आनंद शुरू होता है। आनंद शुरू हो गया तो हम ििर से
वासनाओं के अनुसार कमरर करने लगते हैं। जैसे, कपड़ा मैला था, साि िकया, ििर
मैला िकया, साि िकया, ििर मैला िकया.... ऐसा हम लोग करते हैं।
यिद सतरसंग सुनकर एकांत में िले जाएँ, धरयान-भजन मेंिलेजाएँ, दूसरा कोई पाप कमरर
न करें और ििर सतरसंग सुनें, धरयान करें तो थोड़े ही िदन में मन शिकरत, बु िदरधशिकरतका
अनुभव कर लेंगे।
कबीर जी की मनःशिकरत का अब थोड़ा सा वणररन कर लें-
गोरखनाथ ने मनःशिकरत से संकलरप िकया िक 'मैं मेंढक बन जाऊँ.... मैं मेंढक
बन जाऊँ....' औ र गं ग ा म े कू द े। िच न त न की त ी वर त ा थी त ो व े म े ढ क ब न ग य े औ र दस ू रे
मेंढकों के बीि में छटपटाने लगे।
जो नया आदमी होता है वह नकल मे िी कुछ िहलचाल कर बैठता है। मेरे पास एक जेबकतरा आया और बोलाः
"बाबा जी ! सतरसंग सुनने से मैंने यह पकरका िकया है िक जेब काटने का धंधा नहीं
करना िािहए। मुझे आशीवाररद दो िक मैं अब अमुक धंधा ठीक से शुरू कर सकूँ।"
मैंने कहाः "आशीवाररद तो तुझे दूँगा लेिकन पहले तू बता िक तुझे पता कैसे
चलता है िक िला आदमी की जेब मे पैसे है ? औ र ज े ब क ै स े काटत ा ह ै ? मुझे िदखा तेरा यह धंधा।"
उसने बरलेड के दो टुकड़े िदखाये और कुछ ऐसी दवा भी थी। उसने बताया िकः "बाबाजी
! कभी जरूरत पड़े तो हम इस दवा का भी उपयोग करते हैं तािक जलरदी ही कपड़ा सड़ जाय
औ र कट ज ा य।"
मैंने कहाः "ठीक है, कपड़ा सड़ जाय, कट जाय। ये साधन तो मैंने देख िलये,
लेिकन तुम अनतयामी तो हो नही, बररहमर जर ञानभी नहीं, ििर भला तुमरहें कैसे
ञािनयोंकेिेलेभी नहींहो तो बररहमर जर
पता िलता हैिक सामनेवालेकी जेबमेंपैसेहै ?"

वह बोलः "बाबा जी ! यह तो सीधी सी बात है। िजस जेब में पैसे होते हैं न, आदमी
वहाँ बार-बार हाथ रखेगाऔरसमरहालेगा। बस, इतना इशारा कािी है हमारे िलये। हम पीछा कर लेते है यह समझकर
िक बस, यहाँ माल है।"
जोगी गोरखनाथ बार-बार छटपटानेलगेतो कबीरजी समझ गयेिक यह नया बनरदा है। उनरहोंनेमेंढक को हथेली
पर उठाया औरकहाः
.... ....
..... ..... -
.... ... ....
"चलो जोगी, जागो। अब तुमहारी बारी है।" कबीर जी की यह आवाज सुनकर गोरखनाथ ने
संकलरप िकया। सूकरिरम शरीर तो वही था, मेंढक में से हो गये वापस गोरखनाथ।
वह कैसा युग रहा होगा िक आदमी इिरछानुसार शरीर बना लेता था। यह अभी भी कहीं-
कहीं, कभी-कभी देखने को िमलता है। शररीरामकृिरण परमहंस ने जब सखी संपररदाय की
उपासना की तब अनरय सरतररीलकरिणों के पररगट होने के साथ-साथ उनका मािसक धमरर भी ु रू
हो गया।
िकसी कैदी को जेल में िाँसी की सजा िमली। उस पर एक पररयोग िकया गया। उसको
पता न िलेइस पररकार उसेिूहा कटवाया गया औरउसेकहा गयािक तुझेसाँपनेकाटा है। वह डर कर गहराई सेसाँप
का ििनरतन करने लगा िक मुझे साँप ने काटा है। पिरणाम यह हुआ िक उसके खून में साँप
का जहर बन गया। ऐसे ही आप सोिते रहेंगे िकः "मैं दुःखी... मैं दुःखी...." तो आप िी दःुखी
ही बन जाएँगे। सुबह उठकर भी यिद सोिते हैं िक "मैं दुःखी हूँ..... मेरा कोई नहीं... मैं
लाचार हूँ...." तो देिखये िक आपका िदन कैसा गुजरता है। पूरा िदन परेशानी और दःुख मे बीतेगा।
इसकेिवपरीत , सुबह उठकर यिद आप यह सोिें िकः 'चाहे कुछ िी हो जाए , दुःख तो बेवकूिी का
िल है। मैं आज दुःखी होने वाला नहीं। मेरा रब मेरे साथ है। मनुिरय जनरम पाकर भी
दुःखी और ििंितत रहना बड़े दुभाररगरय की बात है। दुःखी और िििनरतत तो वे रहें िजनके
माई-बाप मरगयेहों। मेरेमाई-बाप तो ऐ रब ! तू ही है न ! पररभु तेरीजय हो...! आज तो मैं मौज में रहूँगा।'
ििर देखो, आपका िदन कैसा गुजरता है !?
आपका मन कलरपवृकरि है। आप जैसा दृढ़ ििंतन करते हैं, ऐसा होने लगता है। हाँ,
दृढ़ ििनरतन में आपकी सिरिाई होनी िािहए।
सरवामी िववेकानंद िकागोमें पररविन कर रहे थेः"आपका दृढ़ ििनरतन हो, ररदरधा
पकरकीहो तो आपअगरपहाड़को हटनेका कहतेिलेजाओतो वह भी हटकर आपको रासरता देसकता है।िजसस नेभी
कहा हैः आदमी की िजतनी एकागररता और मनोबल होगा, शररदरधा पकरकी होगी वह उतना ही महान
हो सकता है।"
एक माई ने सोिाः "शररदरधा में इतनी शिकरत है, Faith में इतनी शिकरत है, बाईिबल मेरे
घर में है और िजसस ने भी कहा है तो ििर मैं नाहक दुःख करयों देख रही हूँ !"
वह माई िालू सतरसंग में से उठकर िल दी करयोंिक उसे यह परेशानी थी िक उसके
घर के पीछे एक पहाड़ होने के कारण उसके घर में सूरज की िकरणें नहीं आ रही थीं।
उसने सुन िलया िववेकानंद के मुख से िक अगर शररदरधा पकरकी हो तो पहाड़ से कहोः हट जा।
तो वह िी हट जाएगा।
वह माई घर आई और िखड़की खोलकर पहाड़ से कहाः " पहाड़ ! आज तुझे भागना
पडे़गा। मेरेमनमें ररदधराहै, िववेकानंद ने भी कहा है और बाईिबल में भी िलखा है। मुझमें भी
पकरकीशररदरधाहै। मैंकहूँगीतो तुझेहटना ही पडे़गा। "
माई ने आँख बनरद की और पुनः पहाड़ से कहाः "मैं तुमरहें शररदरधा से कहती हूँ िक
दूर हो जा..... दूर हो जा... दूर हो जा...." ििर आँख खोलकर देखा तो पवररत वहीं का वहीं। व
जोरो से हस ँ पडी और बोलीः "कमबखरत ! मुझे पता ही था िक तू जाने वाला नहीं है।"
सरपिरट है िक वरयिकरत को गहराई में पता होता है िक काम नहीं होगा। ऊपर ऊपर से
कहता रहे िक मुझे शररदरधा है, काम हो जाएगा, तो काम नही होगा।
आपका सिेतन और अिेतन, दोनों ही मन, जब तदाकार होते है, तब यह घटना घटती है। अज
लोग िजसे परमातमा की पेरणा मानते है, देवता की पररेरणा मानते हैं, भगवान की पररेरणामानतेहैं, हकीकत
में वह देवों की पररेरणा मानते हैं, भगवान की पररेरणामानतेहैं, हकीकत में वह देवों के देव
आतरमदेव का ही सरिुरण है। मन और परराण जब सूकरिरम होता है तब उस अंतयाररमी का सरिुरण
होता है। इस बात का महातरमा पुरि ू जानते हैं, बररहमरवेतरता, बररहमर जर
ञानीजानतेहैं। दूसरेलोगतो बेिारेभटक
जाते है िक इस देवी न क े रिदया , इस कब-दरगाह से मेरी मनौती पूरी हुई।" अरे, वहाँ जो मुलरला
झाड़ू लगा रहा है उस बेिारे की तो कंगािलयत दूर नहीं हुई और तू कैसे लखपित हो गया ?
समाज में ऐसा जरञान और ऐसे जरञान के पारखी बहुत कम होते हैं। अपना मजहब,
अपना मत िलाने वालों की और 'कनरया-कनरया कुररर.... तुम हमारे चेले..... हम तुमरहारे गुररर....'
करके दिकरिणा की लालि में िेले बनाने वालों की संखरया िदन-पररितिदन बढ़ती जा रही है।
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ऐसे हाल हो रहा है ििर भी अिरछे लोग तो अिरछे ऊँिे अनुभववाले महापुरूि को
खोज ही लेते हैं और एक बार उनके शररीिरणों में आ जाते हैं तो ििर उनका िदल कहीं
भी नहींझुकता है।
अगर सिमुि में ऊँिे बररहरमजरञानी का आतरम साकरिातरकारी पुरूि का ठीक से एक बार
सतरसंग सुन ले तो ििर वह भले ही हजार-हजार जगह घूम ले लेिकन उसका िदल कभी धोखा
नहीं खा सकता करयोंिक आतरमजरञान बहुत ऊँिी िीज है। और...

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कबीर जी बररहरमजरञानी थे। उनरहोंने जल में गोता मारा और दृढ़ संकलरप िकया िक
मैं जलततरतरव में ही हूँ। पाँि ततरतरव हैं- चार तततव को हटा लूँ तो जल ही जल हूँ... जल ही जल हूँ।
उन मन शरीर िनयंितररत था अतः जल में जल हो गये।
अब गोरखनाथ िकसको खोजें ? मेंढक हो, मछली हो, कूमरर हो, औ र कु छ ह ो त ो खोज े ।
जल मे जल को कहा खोजे ? जल तो जल ही है। गोरखनाथ खोजते खोजते थक गये। संधया हो गई। सोचन ल े गेः
"कबीर तो पानी में करया पता धँस गये.... मर गये... लाश िी नही िमलीती। न जान अ े बकयाकरे ? माई
बोलेगीिक बाबा लेगया था मेरेपित को, करया कर िदया ? कहीं ाप न दे दे।
'सिमुि ! िकसी की ईिरयारर से पररेिरत होकर िकसी संत की कसौटी करना यह हमारे
िलये अनुिचत था। हे िगवान ! हे भोलानाथ ! तू ही कुछ दया कर "। महादेवका सरमरणिकया। गोरखनाथ की मित
में थोड़ा पररका हुआ। गोरखनाथ ने अपना तुमरबा भरा गंगाजी में से और जाकर लोई माता
से कहाः "माता जी ! आपके पित गंगाजी में समा गये। उनकी अिसरथयाँ तो मैं नहीं लाया
लेिकन िजस जल मे वे लीन हो गये, वह जल मैं लाया हूँ माता जी ! आप मुझे करिमा कर दो।"
लोई हस
ँ नले गीः"मेरा सुहाग िगरा नहीं तो मेरे पित कैसे मर सकते हैं ?"
आपका यश होने वाला होता है तो दाँयी आँख िड़कती है और अपयश होने वाला
होता है तो बाँयी आँख िड़कती है। यह कौन िड़कता है ? कोई भूत-पररेतआता हैकरया ?
सृििरटकतरतारर का िनयम है.... उसी की लीला है यह। पुरूि की दाँयी और सरतररी की बाँयी आँख
िड़कती है तो यश एवं शुभ होता है और सरतररी का दाँयी तथा पुरूि की बाँयी आँख िड़कती
है तो कुछ न कुछ गड़बड़, घर में झगड़ा या अपय होता है। यह भले ही आप करके
देखना। ऐसे और भी कई शकुन होते हैं। इस सृििरटकतरतारर की लीला अजीब है.... बेअंतहै.... दो
हाथ और तीसरा मसरतक, बस....

उसके िसवाय आप और अिधक कुछ कह भी नहीं सकते।


'भगवान ! तू इतना बडा है..... तू ऐसा है.... तू वैसा है..... तुम िजतनी िी उपमा उसकेपीछे लगाओ सारी की सारी
छोटी हो जाएगी। 'वह असीम है....' सा करने में भी ससीम की अपेकरिा वह परमातरमा असीम
है। वह परमातरमा िनतरय है, तो अिनतय की अपेका तुम िनतय शबद जोड रहे हो। बाकी तो वही है। वहा वाणी नही
जा सकती। 'बेअनरत.... बेअनरत....' बेअनरत भी तुम अनरतवालोंको देखकर कहतेहो। अनरयथा वह तो वही है। न बेअनरत
है.... न अनरतवाला है। नानक जी ने कहा है।
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उसका वणररन मत करो िक वह ऐसा है, वैसा है.... करया जाने वह कैसा है ? हाँ ! उसका
िचनतन करते-करते उसमें मित लीन हो जाती है, मित पावन हो जाती है, आपका कलरयाण हो
जाता है।
कोई तरंग कह दे िक 'सागर ऐसा है.... वैसा है।' तरगं ! तू शात हो जा तो सागर बन जाएगी
अनरयथा दस, बीस, पिास, सौ िीट तक भागकर तू कोई सागर की माप थोड़े ही ले लेगी ! कोई
बुलबुला कह देिक 'सागर ऐसा है वैसा है....' अरे भाई बुलबुले ! तू अपना बुलबुलापन हटा और पानी से
पानी हो जा तब पता िलेगा।
कबीर तो जल में जल हो गये थे। लोई माता के आगे गोरखनाथ कहते हैं- "यह
जल का तुमबा िर लाया हूँ माता जी ! वे इसी में िवलीन हुए थे।"
लोई माता पूछती हैः "कौन से जल में िवलीन हुए थे ?"
गोरखनाथ बोलेः "इसी गंगाजल मे।" ऐसा करके गोरखनाथ ने तुमरबे में से गंगाजल
की धारा बहाई। कबीर जी संकलरप करके जल की धारा में से पररकट हो गये।
गोरखनाथ जी कबीर जी के िरणों में िगर पड़ेः
"महाराज ! पाय लागूँ।"
कबीर जी कहते हैं- "जोगीराज कोई बात नही।"
कहने का तातरपयरर है िक तुमरहारे सरथूल शरीर की अपेकरिा मनःशरीर में बहुत-बहुत
संभावनाएँ हैं। लेिकन उन संभावनाओं में आप उलझोगे तो कहीं अंत नहीं आएगा।
मनःशरीर की तुम िकतनी भी िरिदरध-िसिदरधयाँ पा लो। अिणमा, गिरमा, लिघमा आिद िसिदया तो
हनुमानजी के पास भी थीं ििर भी वे उनमें रूके नहीं और शररीरामिंदरर जी के िरणों में
शररदरधा भिकरत की। बदले में हनुमान जी को शररीरामिंदरर जी ने बररहरम जरञान का उपदेश
िदया तब हनुमान जी कहते हैं- "आज मैं जरञातजरञेय हुआ।"
रामजी पूछते हैं- "अब तुम मुझे करया समझते हो ?"
हनुमान जी कहते हैं- "वरयवहार जगत से आप सरवामी हैं, मैं सेवक हूँ। जगत की
दृििरट से आप भगवान हैं, मैं जीव हूँ लेिकन ततरतरवदृििरट से जो आप हैं वह मैं हूँ और
जो मै हूँ वही आप है।"
रामजी कहते हैं- "आज जीव और बररहरम एक हो गये।"
तततव की दिृष से जो शीकृषण है , वही तुम हो, जो शीराम है, वही तुम हो। जो नानक हैं, वही तुम हो,
जो कबीर जी है वही तुम हो लेिकन शरीर दिृष से, मनःशरीर से नानक का मन बहुत ऊँिा था, अपना मन
नीिा है। नानक का शरीर िवलीन हो गया, अपना शरीर तो िदख रहा है, लेिकन नानककेहृदय मे जो
चमक रहा था, वही परमे शर वर तुमरहारे हृदय में भी िमक रहा है।
नानक ििर से आ जाए या न आयें, इसमे संदेह है, ईसा-मूसा आयें या न आयें इसमें
संदेह है लेिकन ईसा-मू श सा में जो ततरतरव पररका ि , पररआ
तहु गटहुआ
था था, वह अभी भी तुमरहारे

हृदय में है। उसको पररका ि त औ र प र र ग , पूरा आदर हो गया।
ट करदोतोउसकीपू रीबनरदगीहोगई
उस परम ततरतरव को अपने हृदय में पररगट करने के िलए गोरखनाथ जी ने कहाः
!
जो जीिवत आतम-साकरिातरकारी महापुरूि हैं, उनकी शरण में जाओ।
गोरखनाथ जी ने सुलझे हुए महातरमा थे।
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जागता नर सेवीये.... मानो हम जागते नर के पास आ गये तो ििर वे जागते नर, गुरू
महाराज हमें करया कहेंगे ?
गुरू महाराज कहते हैं िक धरयान करो। आितरमक शिकरत िवकिसत करो।
"लेिकन बाबाजी ! धरयान नहीं लगता है।"
"भाई ! धरयान नहीं लगता तो उसके िार कारण हैं। ये िार कारण यिद हटा दो तो धरयान
लगन ल े गेगा।"
एक तो आहार की अ शु िदरधउससे । भी धरयान नहीं लगेगा।
अ शु दरध आहार करोगे तो तमोगुण आयेगा , काम-िवकार जगेगा, तिंा आएगी, आलसरय
आएगा। आहार ु दर ध व अपनी कमाई का होना िािहए। धरयान-भजन केअभरयास मेंमनलगा रहना िािहए।
अगर आप साधू हैं तो इतना अिधक भजन करें िक िजसका भोजन आप करते हैं, उसका जो
कुछ िहसरसा हो वह उसको िमल जाय, बाकी की अपनी कमाई हो जाय। इसीिलएसाधु पुरि ू ोंको गृहिसरथयोंकी
अपेकरिा अिधक भजन करना पड़ता है।
गृहसरथी अपना िजतना समय काम-धंधे में लगाता है साधू को उतना ही समय ई शर वर
भजन वििनरतन मेंलगाना िािहएतो ही साधू पररभावशाली होगा। अनरयथा दान का पररभाव साधू केपररभाव को ही दबा देगा।
यिद साधना का बल है तो उसका पररभाव बढ़ेगा।
दूसराः िितरत में अगर राग-दरवेि होगा और धरयान में बैठोगे तो या तो िमतरर को
याद करोगे या शतररु को याद करोगे। जहाँ महतरतरवबुिदरध होती है या िजसकी ओर आकिररण
अिधक होता है, आँख बनरद करने पर वही िदखेगा।
तीसरी बात है कमथ की पिवतता।
चौथी बात है वाणी की पिवतता। गाली गलौच करकेआये अथवा सुनकर आये और धयान मे बैठे तो उनही गािलयो
की पुनरावृितरत होगी और मन उधर हो जाएगा।
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जो शीतल वाणी बोलना-जानते है, हृदय को शुदरध रखना जानते हैं, उनके पास तो वशीकरण
मंतरर आ जाता है।
कई लोग मुझसे पूछते हैं- "बाबा जी ! आपके पास सा कौन-सा िमतरकार है िक
िसंहसरथ जैसे पवरर में लाखों आदमी आपके पीछे दीवाने हो गये ? यह कोई तांितररक,
साबरी या वैिदक िमतरकार है करया ?"
मैंने कहाः "न तो यह कोई तांितररक है, न साबरी है और न वैिदक। िजससे यह सब
िसदरध होता है उस िसिदरधदाता परमातरमा को पररेम करके ििर सबमें मेरा परमातरमा है और
सबका मंगल हो ऐसा सोिकर बोलता हूँ। यही मेरा मंतरर हैं। तुम भी सीख लो तो तुमरहारा भी
कलरयाण हो जाएगा। मेरी तो खुली िकताब है बाबा ! चाहे कही िी, कोई भी पनरना खोलकर पढ़ लो।"
मेरा वशीकरण मंतरर है 'पररेम' औ र य ह कोई ख े त ो , खिलहानों या बाजारों में नहीं
िमलता। पररेम में हमेशा एक दूसरे को देने की इिरछा होती है, लेन क े ी न ही।िशषयिदयेिबना
नहीं
श रहता है और गुरू भी िदये िबना नहीं रहते हैं। ििरय आदर देता है, पररेमकरता है, गुरू भी
उसका भला िाहते हैं, आदर देते है। पररेम में दोनों तरि से बाढ़ आती है.... आनंद
बरसता है। मैंसोिता हूँिक ऐसा कुछऑपरेशनकरूँिक इनको कुछिमल जाएऔर ििरयसोिता हैिक श ऐसा कुछकरूँिक
बाबा खुश हो जाएँ। सरवाथररमेंतोिलया जाता है।
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एक बार काशी नरेश ने कबीर जी से कहाः "महाराज ! इतन व े षथह,ोगये भागवत की कथा सुन
ली, यजरञ भी कर िलया, अनेक अनरयानरय कमरर भी कर िलये लेिकन अभी तक हृदय का बँधन दूर
नहीं हुआ।"
कबीर जी ने कहाः "िकस पंिडत से तुमने कथाएँ सुनीं ?"
का ीनरे ः "अमुक-अमुक जो भी बड़े-बडे ़पंिडत थेसब को बुला-बुलाकर कथाएँसु न लीं। अभी
जो िलान व े ि र ष प ि ं ड" तहैउनसेहमकथासुनरहेहै।
कबीर जीः "अिरछा ! मैं कल आऊँगा, लेिकन मै जो कहूँगा, वह तुमको मानना पड़ेगा।"
का ीनरे ः "जो आजा महाराज।"
कबीर जी दूसरे िदन राजदरबार में पहुँिे और राजा से बोलेः "दो घंटों के िलए
मेरी हर आजरञा का पालन होना िाहे। अपने मंितररयों से भी कह दो।"
राजाः "जो आजा।" राजा ने िसर झुकाया और अपने सभी मंितररयों को कहा िक संत
कबीर जी जो भी आदेश दें, उसे तुम मेरा आदेश समझकर ततरकाल पालन करना।
कबीर जी ने मंितररयों को आदेश िदयाः "राजा को इस खमरभे से बाँध दो और कथा
करने वाले पंिडत को उठाकर उस सामने वाले खमरभे से बाँध दो।"
मंितररयों ने आदेश का पालन करते हुए राजा और पंिडत को पृथक-पृथक खमरभोंसेबाँध
िदया।
"राजन ! तुम बि ँ े हएु हो तो इस पिंडत से कहो िक आकर तुमहे छुडावे। "
राजा कहता हैः "महाराज ! ये बेिारे तो खुद बँधे हुए हैं, तो मुझे कैसे छुडाएगँे ?"
कबीर जी कहते हैं- ''ऐसे ही यह पंिडत देह के अहंकार तथा अनरय िवशेिताओं
में बँधा हुआ है िक ''मैं पंिडत हूँ..... िलाँ हूँ...' लेिकन अपनी गहराई मे, आतरमा में तो गया ही
नहीं, ििर भला मुकरत कैसे हो सकता है ? िजसकेखुद केबि ँ न दरू नही हएु , वह औरों के बँधन
करया खाक दूर करेगा ?
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जो सथूल, सूकरिरम और कारण शरीर से पार आतरमा-परमातरमा मेंपहुँिेहैं, ऐसे बररहरमजरञानी की
सेवा कर तो वे पल भर में ही छुड़ा देंगे, उपदेश मातरर से हृदय को आनंद और जरञान से
ू ही हृदय को बँधनोंसेमुिकरतदेसकतेहैं, जो बि
भर देंगे।िनबररनरध पुरि ँ ा है वह नही दे सकता।"
िनबररनरध पुरूि ही संत कहलाते हैं करयोंिक उनके जनरम मरण के बँधनों का अनरत हो
चुका होता है। इस िनबथनि पद को पान क े े ि ल ए य े च ा र ब ा ते आपसदैवयादरखनाऔरकृपाक
को श ि करना। बहुत लाभ होगा। करोड़ों जनरमों में िजतना लाभ नहीं हुआ , उतना लाभ इन िार
बातोंसेआपको हो सकता है।
पहली बात आहार शिदर ु ध। आहार जो मुँहसेकरतेहैंउतना ही नहीं, आँखों से भी अिरछा देखो। बुरा
िदखते ही आँखें हटा दो। कानों से गररहण की जाने वाली आवाज भी शबरद आहार है।
िजसकी िननदा सुन रहे हो वह तो आईसकीम खाता होगा और तुम परेशान हो रहे हो।
नाक से भी पिवतरर सुगंध लो, आँख से पिवतरर दररशन करो, कान से पिवतरर शररवण करो,
मुँह से पिवतरर वाणी बोलो। शतररु के िलए भी मानवािक शबरद बोलो। इससे उसका भला हो िाहे
न हो, तुमहारा िला जरर होगा।
शतररु के िलए जब अपमानयुकरत कटुविन बोलते हो तो उस समय तुमरहारा हृदय कैसा
होता है, जरा परीकण करना। शतु केिलए िी मानयुकत वचन बोलते समय आपका हृदय कैसा होता है , इसका िी
परीकरिणकरना। अगरमानयुकरत विनोंसेआपका हृदय अिरछा हो तो आपमेरीबात सरवीकार करनेकी कृपा करना।
सिरिाई से पररेम शुरू होता है, िवनय से पररेम पनपता है और ई शर वर के धरयान से
पररेममेंिसरथरता आती है। आपकेहृदय मेंसिरिाई होगी तो लोगआपसेपररेमकरेंगे। आपकेहृदय मेंिवनय होगा तो उनका पररेम
आपके पररित पनपेगा। सदगुरू ने आपको धरयान का रंग लगा िदया तो ििर आप लोगों के िदल
में घर कर लेंगे। मैं सारी िकताब खुली कर रहा हूँ।
"बाबाजी ! आपको इतने लोग पररेम करते हैं ! गुजरात देखो, महारािरटरर देखो, मधरय
पररदे देखो, िजिर देखो उिर देखो उिर आपकेलाखो पेमी है। आप तो बस , बाबाजी ! एक आवाज मार दीिजये,
हमारा काम बन जाएगा। िकसी भी पाटीरर के िलए आप कह दें िक यह पाटीरर आना िािहए, तो लोग
उसी को वोट देंगे। हमारे िलये थोड़ा-सा कह दीिजये करयोंिक लोग आपको बहुत मानते
हैं।"
मानते हैं उसका यह अथरर तो नहीं िक मैं उनको ठगता जाऊँ ? यिद ठगने के भाव
से बोलूँगा तो पररेम नहीं होगा, सरवाथरर हो जाएगा। सरवाथरर से वाणी का पररभाव करिीण हो
जाएगा। ....औ र िि र प र म ा त म ा त ो द े ख र ह ा ह ै न ! उनके हृदय में भी तो परमातरमा बसा है।
मैं िकसी पाटीरर के िलए कह दूँ िक इसे वोट दो तो हर पाटीरर में अिरछे-बुरेलोगहोते
हैं। यिद मैं कहूँ िक मैं इस पाटीरर का हूँ तो दूसरी पाटीरर के अिरछे लोगों के िलए मुझे
अनरयाययुकरत बोलना पड़ेगा और अपनी पाटीरर में जो गनरदे लोग होंगे, उनके भी मुझे
गीत गाने पड़ेंगे। इस कारण मैं संत के सरथान से भी नीिे िला जाऊँगा।
अिरछे बुरे लोगों की गहराई में जो परमातरमा है, मैं उसकी पाटीरर का हूँ... इसिलए
सब मेरे हैं और मैं सबका हूँ.... ऐसा मेरा मन कहता है।
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सुना है एक महातरमा के पास एक बार एक डाकू आया और बोलाः "महाराज ! मैं यहाँ,
आपके सतरसंग में बैठ सकता हूँ ?"
महातरमा ने कहाः "हाँ।"
डाकू ने कहाः "महाराज ! मैं िंबल की घाटी का हूँ।"
महातरमा ने कहाः "कोई बात नहीं।"
"मैं दारू पीता हूँ।"
"कोई बात नहीं।"
"मैं जुआ भी खेलता हूँ।"
"कोई बात नहीं।"
"मैं वे शर यागामी भी हूँ"।
महातरमा ने कहाः "कोई बात नहीं।"
"मैं झगड़ाखोर भी हूँ।"
"कोई बात नहीं।"
"मैं अिीम भी खाता हूँ।"
"कोई बात नहीं।"
"महाराज ! मुझमें सब बुराइयाँ हैं।"
"कोई बात नहीं।"
"महाराज ! आप मुझे सरवीकार कर रहे हैं।"
महातरमा ने कहाः "हाँ।"
उसने पूछाः " सा करयों।"
महातरमा ने कहाः "अरे, परमातरमा जब अपनी दुिनया सेतुमरहेंनहींिनकालता हैतो मैंअपनेमंडप या
आशररम से तुमरहें करयों िनकालूँ यार ! वह भी तेरे सुधरने का इनरतजार कर रहा है तो मैं
करयूँ अपना धैयरर खोऊँ ? जब उसकी हा है तिी तो तू यहा पहँचु ा है। ििर मै ना कयो बोलूँ ? उसकी हाँ है
मेरी हाँ है तो तू ना करयों करता है ? तू िी बैठ जा यार !"
भगवान का विन हैः

'यिद तू सब पािपयों से भी अिधक पाप करने वाला है तो भी जरञानरूप नौका दरवारा


िनःसनरदेह संपूणरर पापों को अिरछी पररकार तर जाएगा।'
(भगवदर गीताः4.36)
पापी सेभी पापी, दुरािारी से भी दुरािारी है और अगर जरञान की नाव में आ जाता है तो
उसके िविार बदलेंगे, पाप छूटेंगेऔरििर ई शरवरकेरासरतेलगनेका संकलरप करता हैतोििर
वह उसको साधु ही मानो।
कबीर जी के पास दो भाई आये। बड़ा भाई तो सुलझा-सुथरा और सतरसंगी था लेिकन
छोटा भाई लोिर था। कभी िकसी साधु संत के पास नहीं गया था, कभी कोई सतरसंग भी नहीं
सुना था। पकरका लोिर था वह।
बडे़भाई न कबीर जी सेकहाः "महाराज ! इस कमबखत को घसीटकर लाया हूँ। इसे जरा उपदेश दीिजये।"
कबीर जी ने उसे आवाज देकर बुलायाः "साधो !" तो बडा िाई बोलन ल े गाः"महाराज ! यह तो
लोिर है लोिर।"
कबीर जी बोलते हैं- "तुम सतसंग सुनो, बीि मेंमत बोलो।" ििर छोटे भाई की तरि इशारा
करते हुए बोलेः "साधो ! चार िदन की िजनदगी है, साधो !"
बड़ाभाईििर टोकता हैः"महाराज ! साधु तो मैं हूँ। आपकी कथा में रोज मैं होता हूँ। यह
तो मेरा िाई है.... बदमाश औरलोिर है।"
कबीर जी उसे समझाते हैं- "बेटा! धीरज रख।" औ र छ ो ट े की ओ र इशा र ा करत े ह ै -
"साधो ! पाप का िल बुरा होता हैऔरसतरकमररका िल भला होता है।िजसिदन सेप शत
र ातापकरकेमनुिरय सतरकमररकी
तरि चलता है उसी िदन से पाप िमटन ल े ग त े ह ै , साधोक!"ापुणयबढनल
औ रसतकमथ े गताहै
कबीर जी ने उसे बार-बार 'साधो.....साधो....' से संबोिधत करके सतरसंग सुनाया और
सतरसंग वह घर गया। ििर केवल 'साधो.... साधो....' शबरद ही नहीं बोलने लगा अिपतु कबीर जी
के वाकरयों की नकल भी करने लगाः 'साधो ! पापकमररका िल दुःखदायी होता है। साधो ! सतरकमरर का
िल भला होता है।' उसे साधो बोलने में मजा आ रहा है। इस बहाने कबीरजी का ििनरतन हो
रहा है। िकररयाशिकरत साधो शबरद का ििनरतन कर रही है और कबीर के ििनरतन से उसमें
कबीर जी के गुण आये और वह युवक बड़े भाई से भी आगे िनकल गया।
आपके कुटुमरब में भी यिद कोई बुरे से बुरा सदसरय हो, उसे आप मानयुकरत, पररेमयुकरत विन
बोलतेहैंतो उसका शीघररभला होगा। आपका बेटा, बेटी, पतरनी, पित या पिरवार का अनरय कोई भी सदसरय हो औरउसकी
हजार गलितयाँ िदखें ििर भी आपकी वाणी में, दूिित शबरदों के बजाए आदर और मानयुकरत
विन होंगे तो वह जलरदी सुधरेगा।
यिद कोई वरयिकरत गलती करे और उसकी गलती को लेकर बार-बार आपटोकतेरहेंतो आपका
हृदय भी मिलन होता है और वह भी गहरी गलितयाँ करेगा। उसमें कोई न कोई सदगुण भी होगा
है। उसके उस सदगुण को पोसते जाओ और उसकी गलितयाँ को नजर अंदाज करो। ििर देखो
पिरणाम।
यिद कोई गलती करने वाला है तो उसे परयार से समझाओ िकः "भाई ! सी सी
गलितयाँ करने वाले लोग बहुत दुःखी होते हैं। तुझमें तो नहीं है लेिकन तुझसे भी
अिधक गलितयाँ करने वाले हैं, उनरहें बहुत दुःख होता है। तुझमें तो यह गुण मौजूद है
िक तू िाहे वह गलती छोड़ सकता है। तू सिरिी और अिरछी बात पकड़े तो बहुत आगे जा
सकता है।"
मेरे पास ऐसे कई खतरनाक लोगों को लेकर उनके पिरवार के लोग आ जाते हैं
िकः 'बाबाजी ! इसन ऐेसा- सा कर िदया।"
आपने देखा होगा हमारे आ ररम में पीले कपड़े में घूमने वाले लड़के, सुरे
को। उसकी माँ मेरे पास आयी और बोलीः "बाबा जी ! यह लड़का घर में िोरी करता है और
बरतन बेिकर उन पैसोंसेििलरमेंदेखडालता हैविसगरेटपी जाता है। माँकेकपडे ़बेिकर जुआ खेललेताहै। अभी तो
14-15 साल की उमरर है और सब काम कर िुका है। साँईं ! इसे ले जाओ, मेरी मुसीबत हटाओ।"
मैंने कहाः "चल बेटा !" .....औ र अ ि ी व ह लड क ा स त सं ग करत ा ह ै औ र ह ज ा र ो ल ो ग
सुनते हैं। िवदरयाथीरर ििवरिलाता है, हजार-हजार
श श बिरिे धरयान ििवरमें उससे जरञान
पातेहैंकरयोंिक सब जगह हमनहींपहुँिपातेइसिलएअनेकसरथानोंपर आशररमकेसाधकोंको भेजतेरहतेहैं। अभी लाखों
लोग उनहे 'सुरे बाप' व 'सरवामी सुरे ानंद' के नाम से जानते हैं।
.....तो मानना पडेगा िक जैसे िरती मे िमचथ , इमली और नीबू का रस है, गनरने, पपीतेऔरअनरयानरय खटरटे-
मीठे-कड़वे िलों का रस इसी धरती में है वैसे ही जहाँ बुराइयाँ हैं, उसकी गहराई में
भलाइयाँभी पड़ीहैं। तुम जैसेसंसरकार डालतेहो वैसेपनप आतेहैं। अतः आपजरूर कृपा करना -अपने ऊपर,
अपने कुटुिमरबयों पर तथा मुझ पर भी।
"महाराज ! आप पर करयों कृपा करें ?"
अरे भैया ! मेरी बात मान ली तो तुमने मुझ पर कृपा ही तो की है। आपका भला हो
गया तो आपने मुझ पर कृपा कर ली है।
मैंने अपने गुरू को विन िदया था िक आपका जो खजाना है, उसे मैं बाँटूँगा....
बाँटूँगा। मेरेगुरू कोिदयेहुए विन केकाम मेंआपभी लगगये।
एक सौ आठ आदिमयों को तो रब का दररशन गुरूजी की तरि से कराना है और बाकी के
लोगो को हमारी तरि से होगे। यूँ तो कइयो को हो गये, हो रहे हैं और होंगे।
गुरू की कृपा जब मुझ पर बरसी थी और ढाई िदन की समािध के बाद, इस लाबयान, लाजवाब
ईशरीय मसती केबाद , जब मै उठा और गुर जी से पूछा िक गुर जी ! आपकी सेवा में, दिकरिणा में करया
अपररण करूँ ? आप आजरञा कीिजये।"
गुरूजी ने पूछाः "दिकरिणा देगा ?"
मैंने कहाः "हाँ।"
गुरूजी बोलेः "बस, आप तर जा, दूसरों को तारने लग जा। यही दिकरिणा है।"
महापुरूिों को करया....?
आहार हक का हो, साितरतरवक हो। पसीने का हो, लेिकन उसमे अंडा, राब-कबाब हो तो वह
ठीक नहीं। ु दर ध हो, हक का हो और बनाने वाले का िविार भी अिरछा हो तो अित उतरतम है।
बनानेकेबतररनभी सा ितरतरवकहो। ऐसा आहार सा ितरतरवकहोता है।
दूसरी बातः कमरर पिवतरर हो। िोरी, डाका, िहंसा, घृणा से रिहत कमरर जीवन की
सवाररंगीण उनरनित में सहायक होते हैं।
तीसरी बातः पिवत वचन हो। वाणी मे मिुरता हो। जो जानते हो वही बोलो लेिकन सचचा बोलो।
एक राजनेता था। उसने अपने छोटे बेटे को कहाः "अमुक-अमुक आदमी आ रहे
हैं, वे पूछे िक कहाँ हैं साहब ? तो कह देना िक घर पर नही है। मै तलिर मे जाता हँू। उनको बोलना िक
पापा घर पर नहींहै।"
वे आदमी आये और बिरिे से िपता के बारे में पूछा तो वह बोलाः "पापा नेकहा हैिक
मैं तलघर में िला जाता हूँ। वे आदमी पूछें िक 'पापा कहाँहैं' तो बोल देनाः पापा नही है।"
िकतना िनदोररि बालक ! वह िकतना खुश रहता है सि बोलकर ! बेईमान का हृदय खुश नहीं
रहता। ऐसे बेईमानीयुकरत विन बोलकर ििर धरयान में बैठोगे तो जलरदी खुशी नहीं आएगी,
जलदी धयान नही लगेगा। ििर चाहे दोनो हाथ उठाकर दस ू रो को आशीवाद देते ििरो लेिकन हृदय की खुशी की बात ही
िनराली है।
'अला बाँधूं.... बला बाँधूं.... भूत बाँधूं..... पररेतबाँधूं.... डािकनी बाँधूं..... ािकनी बाँधूं......' ये
सब तू बाँध। मना नहीं है..... लेिकन पहले अपन म े न कोतोबाि , भैया! अनरयथा तो कुछ नहीं होगा। मन
अगर बँधा नहीं तो मोर के पंख कमबखरत करया कर लेंगे और अगर मन बँधा है तो पानी के
छींटे मार दे तो भी काम हो जाएगा। तेरा संकलरप बिढ़या होना िािहए।
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चाहे ईसा हो, मूसा हो, ररीकृिरण हों, राम हों, बुदधहो र ं, महावीर हों, एकनाथ जी हो, संत
जानशे र हो, तुकाराम महाराज हो चाहे मेवाड की मीरा हो.... िजन िजन पुरषो न अ े प न , िजनहोने
ािचिदे षरिहतबनायाहै
अपने िितरत को िैतनरय के पररसाद से सजाया है, वे सरवयं तो तर गये, उनके संग में
आने वाले भी तर गये। वे तो िनहाल हो गये, उनका दीदार करने वाले और उनके पद
सुनने वाले भी सनरतुिरट हो गये।
अनुकररम
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हम न र वर
वसरतुओं की इिरछा
वासना बढ़ाने वाला संग करके
न शर वर वसरतुओं की ही सतरयबुिदरध से
इचछा और पयत करते है तो हम नशर
वसरतु और न शर वररीर श पररापरत करते जाते
हैं... ििर मरते जाते हैं.... ििर जनरमते जाते हैं।
यिद हम शा शर वतर का जरञान सुनें , शा शर वत
की
इचछा पैदा हो और मनन करकशाशत् की े
गहराई में तिनक-सी खोज करें तो शा शर वतर
आतरमा परमातरमा का साकरिातरकार भी हो
सकता है। सतरसंग में िजनकी रूिि है
िजनहे शवणाथथ आतमजान और
आतरमिवजरञान िमलता है वे लोग
सिमुि में भागरयशाली हैं।
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अनुकररम

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