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अदैत भाव की चरम अवसथा मे पहुँचने हेतु पतयक सहायरप होने वाला एक 'मौन' ही िमत है। मौन से जो
शिकत उतपन होती है उसकी तुलना मे कोई दूसरी शिकत नही है। मौन के जानपूवरक अभयास से और उसके
अनुशीलन-पिरशीलन से जीवन मे तेजिसवता आती है। जीवन अिधक िवशाल, शात और समभावी बनता है।
मौन के अभयास से जीवन मे सवागीण शुिचता का संचार होने लगता है। परम तततव की झलक पाने मे जो
तततव अिनवायर है वह मौन। परंतु मौन का अथर केव वाणी का ही मौन नही, यह तो मौन का सथूल अथर हुआ। मौन का
सचचा अथर है पाचो इिनदयो का अपने अपने िवषयो से उपराम हो जाना।
'उपवास' अथात् रसनेिनदय का मौन, न बोलना, वाणी का मौन, अंतर के धयान मे चकु, कणर, तवचा आिद इन
सभी को समेट लेना यह भी मौन है। अनेक के बीच रहते हुए भी एक मे लीन रहना मौन है।
सथूल देह भले ही िकसी भी िसथित मे हो पर सूकम रप से िनरंतर एक (आतमा) के ही धयान मे रहने से, सभी
इिनदयो की एक साथ एकागता के केनदीभूत बल से जीवन मे अपार शिकत एकत होती है। ऐसी अवसथा उतपन होते ही
जीवन मे नवचेतना का संचार हो जाता है। नमता, शाित, धैयर, गाभीयर आिद सदगुण सवाभािवक ही पकट होने लगते
है। मन िवशाल व उदात बनने लगता है। इिनदयो के अपने -अपने पाकृत धमर अपने -आप छू ट रहे है – ऐसा महसूस
होने लगता है।
मौन के गभर मे अपार शिकत है। महासागर का उपरी सतर भले ही तूफानी िदखायी देता हो परंतु उसके अंदर
परम गाभीयर और शाित िवराजमान है। इसी पकार मौन के जान-भिकतपूवरक सेवन से बडा भारी मनोभंजन होता है परंतु
बाद मे अंतरतम मे अपार शाित और समता अनुभूत होती है। मौन से जीवन की सूकम पवृितयो मे भी शाित आ जाती
है। मौन-सेवन से मानव पशात-मूितर बन जाता है।
मौन के सतत अनुशीलन-पिरशीलन से बुिद मे योग, िववेक और धमर का पाकटय होता है। पितकण जो अपनी
संपूणर जीवनशिकत को परम कलयाण की दृिष से ही समिपरत करता है, उसकी सारी समपरणशिकत का जो मूल है वह
एक 'मौन' ही है। जीवन की पतयेक पिरिसथित मे यथायोगय वयवहार करते हुए मौन का आशय लेने से परम शाित एवं
धैयर की पािपत होती है।
सोतः लोक कलयाण सेतु, जून, जुलाई 2009
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